Friday, July 24, 2009

सामाजिक परिवर्त्तन के संदर्भ में मैथिली की दशा और दिशा

साहित्य का कार्य समाज का यथार्थ चित्रण होता है । हमारी सझ में मैथिली साहित्य इससे वंचित है । मैथिली साहित्य में सामाजिक परिवर्त्तन का स्वर कुछ आलेखों में मिलता है परंतु इस तरह साहित्य का चित्रण पुरातनवादी रचनाकारों को नहीं पचता है । वैश्वीकरण का प्रभाव मैथिली साहित्य पर भी पड़ा है । मैथिली पत्रकारिता के सिद्धांत के निर्वहन के झूठे दंभ भरनेवाले जे कहने के लिए सबों की बात करते हैं, की रचनाधर्मिता खास क्षेत्र, वर्ग और समुदाय तक ही केंद्रित है । इस शैली से अलग चलने की साहस किसी में नही है । पटना से प्रकाशित समय साल नामक मैथिली द्वैमासिक पत्रिका का अस्तित्व दीर्घजीविता के लिए मसाला पर टिका है । इस तरह का साहित्य सृजन मात्र दुकानदारी ही है । दल विशेष से प्रभावित रचनाकार और संपादक की लेखनी अभी भी उसके चक्रव्यूह को तोड़ने में समर्थ नहीं है । हिंदी में दलित साहित्य का सृजन अच्छी तरह हो रहा है परन्तु मैथिली साहित्य अभी भी इससे परिपूर्ण नहीं हो सका है । जब तक इस वर्ग की चर्चा मैथिली में नहीं होगी तब तक इस उपेक्षित वर्ग के समर्थक भाषायी समृद्धि के लिए कैसे जुड़ेगे? गाँवघर में सर्वहारा मजदूर लोग और कथित छोटे जाति के प्राणी ही इस भाषा को वास्तव में जीवित करके रखा है । मैथिली अकादेमी से प्रकाशित और डॉ० मंत्रेश्‍वर झा द्वारा रचित कविता संग्रह अनचिन्हार गाम में इसकी झलक दृष्टिगोचर हुई परन्तु इसके बाद की रचना में इस दृष्टिकोण का सर्वथा अभाव हो गया है । समाज में आज मैथिली के संदर्भ में प्रचलित है कि यह ब्राह्यणों की भाषा है मगर यह बात मात्र दुष्प्रचार ही है । एक गंभीर पाठक के रूप में मैं यह जानता हूँ कि जियाउर रहमान जाफरी, कैसर रजा, मंजर सुलेमान मेघन प्रसाद, महेन्द्रनारायण राम, देवनारायण साह,अच्छेलाल महतो, सुभाषचन्द्र यादव, महाकांत मंडल, अभय कुमार यादव, बुचरू पासवान, हीरामंडल, सुरेन्द्र यादव, शिव कुमार यादव, बिलट पासवान विहंगम आदि अपने साहित्य सृजनता से मैथली साहित्य का समृद्धि प्रदान करने हेतु सक्रिय हैं । पटना में मैथिली की समर्पित संस्था चेतना समिति द्वारा दलित महिला अमेरिका देवी और तिलिया देवी के सम्मान का क्या मतलब वास्तव में मैथिली भाषायी क्षेत्र की दलित महिला के सम्मान से दलित वर्ग के भाषा-भाषी लोगों का समर्थन अवश्य मिलेगा । इस प्रयास को अन्य संस्थाओं को भी अपनाने की आवश्यकता है । कितने आश्‍चर्य की बात है कि नोबेल पुरस्कार की चयन समिति को इस वर्ग के कृतित्व और व्यक्‍तित्व पर नजर खुली है परन्तु मिथिला और मैथिली की संस्था इस विषय पर आँख मूँदे है । बिहार राज्य धार्मिक न्याय परिषद के अध्यक्ष डॉ० किशोर कुणाल इस विंदु पर केंद्रित होकर ‘दलित देवो भव” पुस्तक की रचना की जिसकी मैथिली में अनुवाद होनी चाहिये । मैथिली साहित्य के बहुआयामी प्रतिभा के उपन्यासकार कवि नाटककार और इस साहित्य को अपने अपरिमित साहित्यिक रचना से उर्वर बनाने वाले डॉ० ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्म अपने विविध रचना और स्वभावगत विशिष्टता के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुए । उनके लोक गाथात्मक उपन्यास मिथिला की संस्कृति को समेटे है । लोरिक विजय, नैका बनिजारा, रायरणपाल, रजा सलहेस, लवहरि-कुशहरि, दुलरा दयाल की रचना कर मैथिली के सर्वागीण विकास, भाषायी समृद्धता और लोकप्रियता को बढ़ाने में अपना अविष्मरणीय योगदान दिया । उनके उपन्यास का वातावरण या विषयवस्तु में वो ऐसे पात्र के जीवन परिचय का प्रदर्शन किया जो अपने-अपने वर्ग समुदाय और वर्णव्यवस्था के अंतर्गत जीवनयापन करने में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । नैका बनिजारा में बनियाँ समाज की व्यापकता तो है ही साथ ही धोबी, हजाम, ब्राह्यण, क्षत्रिय आदि का उल्लेख आदि भी है । राजा सलहेस में दुसाध की शौर्यगाथा का वर्णन किया गया है । लवहरि-कुशहरि में ब्राह्यण द्वारा पूजा पाठ के विधा और भील मलाह आदि की चर्चा भी हुई है । वीर क्षत्रिय राय रणपाल की कथा से सभी परिचित है । समाज में धनी और गरीब में क्या अंतर है, इसका सूक्ष्म परख मणिपद्म जी को था । ग्रामीण जीवनयापन के कारण उनकी लेखनी में ग्राम्य समाज की मर्मज्ञता दृष्टिगत होती है । अट्टालिका में रहनेवाले झुग्गी-झोपड़ी में रहकर झोपड़ी को जो चित्रण करेंगे उसमें अंतर निश्‍चित ही होगा । मणिपद्म ने रचना का पात्र यादव, दुसाध, मलाह, चमार, धोबी, वणिक आदि चुना जिसका कारण उनकी सामंत्री शोषण की घोर विरोधी मानसिकता और स्वातंत्र्य प्रेम था । सामाजिक संरचना की दृष्टि को ध्यान में रखकर मैथिली के अपूर्ण भंडार को पूर्ण करने के सफल प्रयास करनेवाले मणिपद्म के बाद कौन है? वर्त्तमान में मैथिली में उनके विलक्षण लेखनशैली कथा में पात्र का सार्थक विर्वहन और भाषा का व्यवस्थित रूप किंचित नहीं मिलता है । आज उनके शैली को प्रेरणाश्रोत मानकर लेखनी उठाने के पहल की आवश्यकता है । वर्त्तमान में मणिपद्म के भूले-बिसरे कृति के पुनप्रकाशन हेतु कर्णगोष्ठी, कोलकत्ता का योगदान प्रशंसनीय है । मैथिली प्रकाशकों की जिम्मेवारी है कि इस विषयवस्तु को ध्यान रखकर वैसे विधाका प्रकाशन करें जिसका अभाव है । आज के मैथिलीप्रेमियों का ध्यान चहटगर गीत, नाटक, व्यंग्य और शोधपूर्ण आलोचना विधा के प्रति ज्यादा है । मैथिली को लोकप्रिय बनाने के अभियान में कुछ रचनाकार लग गए हैं । आज के युवा वर्ग के नब्ज को पहचानने के बाद मधुकांत झा की ‘लटलीला’ प्रकाशित हुई है । निश्‍चित रूप से इस कदम से मैथिली के पाठकों में वृद्धि होगी । वास्तव में आज दो ही वस्तु की ब्रिकी ज्यादा होती है - “धर्म और काम” । धर्म पर मैथिली में बहुत रचना हो चुकी है परन्तु काम पर अभी तक इरह का दुःसाहस किसी रचनाकार ने नहीं किया है । आज के संदर्भ में समाज का सही चित्रण वार्त्तालाप के रूप में “लटलीला” में की गई है । हालांकि इस पुस्तक की सभी रचनाएँ पटना से प्रकाशित समय-साल पत्रिका में लतिका के छद्‌म नाम से पूर्व में ही छप चुकी है । इस आलेख के प्रसंग में पं० चंद्रनाथ मिश्र अमर का कथन उल्लेखनीय है कि “इसके माध्यम से बहुतों के सड़े अँतरी का दुर्गन्ध बाहर आ गया है । यथार्थ के नाम पर नग्नता को हम पचा नहीं पाते हैं । ” रूढिवादिता, अंधविश्‍वास, छूआछूत और संकीर्ण मानसिकता के विरूद्ध ध्यान में रखकर आज मैथिली में लेखन चाहिये । स्व० राजकमलचौधरी और स्व० प्रभास चौधरी की कृति का प्रतिबिंब नहीं मिलता है । व्यवस्था के प्रति विद्रोह का स्वर जिस लेखन में होगा उसका स्वागत तो होगा ही । आज के पाठकों की मानसिकता बदलते समय के अनुसार बदल रहा है । इसका मूल कारण सामाजिक परिवर्त्तन है । इस परिवर्त्तन को दृष्टि में रखकर अगर लेखन नहीं होगा उसको आज का पाठक नकार देगा । स्व० हरिमोहन झा की वृत्ति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है । रसीले चटपटे, हास्य व्यंग्य और उपेक्षित वर्ग का स्वर मैथिली साहित्य में अनुगूंजित होगी तो उसकी लोकप्रियता और माँग दोनों में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी । पुराने भाषायी शैली के स्थान पर नए युवा रचनाकारों की आलोचनात्मक लेखन को प्रोत्साहन मिलने की आवश्यकता है । गौरीनाथ, अविनाश, पंकज पराशर, श्रीधरम, विभूति आनंद, अमरनाथ, देवशंकर नवीन, तारानंद वियोगी, मंत्रेश्‍वर झा, प्रदीप बिहारी आदि की रचना इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है । संक्षेप में कहा जाय तो मैथिली का सर्वागीण विकास तभी होगा जब इसके सभी विधाओं पर रचना होगी । अभी तक कुछ विधाओं पर ज्यादा रचना हो रही है मगर दूसरे विधाओं पर अत्यंत अल्प । इस तरह मैथिली की व्यापकता और लोकप्रियता स्वप्न जैसी लगती है । मैथिली में स्वाद के अनुसार रचना को ढालना पड़ेगा उसको सही दिशा मिलेगी और दशा सुधरेगी । वर्त्तमान में इसके लिए सबसे अधिक सक्रिय संस्था “भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर और साहित्य अकादेमी दिल्ली” तथा स्वाति फाउंडेशन (प्रबोध साहित्य सम्मान प्रदाता) आदि के मैथिली के संवर्द्धन हेतु प्रयास सराहनीय है ।
gopal.eshakti@gmail.com

8 comments:

  1. Bahut neek acchi. Please link your blog with http:www.bismillahkhan.blogspot.com OR http://www.tatyatope.blogspot.com

    ReplyDelete
  2. बहुत ही अद्भुत जानकारी दी आपने। मैथिली साहित्य और साहित्यकारों के बारे में इतना कभी नहीं जान पाता, अगर आपका यह लेख न पढ़ता। वैसे मैं साहित्य के मामले में खुद को शून्य मानता हूं। फिर भी कहीं कुछ अच्छा मिल जाता है, तो दिल से पढ़ता हूं। आपका एक बार फिर धन्यवाद।

    ReplyDelete
  3. हरिमोहन झा की खट्टर काका मैंने पढी है -अद्भुत कृति है ! आपने मैथिली साहित्य की अच्छी जानकारी दी -शुक्रिया !

    ReplyDelete
  4. Mai ise gaurse padhke tippanee zaroor doongi..sarsaree taurpe padhneme maza nahee ata..tabiyat kharab hai...aapka iske pahle wala aalekh bhi rochak nazar aa raha hai...ittela dene ke dhanyawad!

    http://shamasnsmaran.blogspot.com

    http://aajtakyahaytak-thelightbyalonelypath.com

    http://kavitasbyshama.blogspot.com

    http://shama-kahanee.blogspot.com

    http://shama-baagwaanee.blogspot.com

    ReplyDelete
  5. मैथिली साहित्य और साहित्यकारों के बारे लाजवाब जानकारी दी है आपने आपका धन्यवाद...........

    ReplyDelete
  6. Is durlabh jankari ke liye aabhar.

    ReplyDelete
  7. मैथिली साहित्य के जिस द्वन्द्व-सत्य को आपने उघारा है,कम ही लोग इसका साहस कर पाते हैं। सुंदर आलेख। किसी मैथिली पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेजें।

    ReplyDelete

I EXPECT YOUR COMMENT. IF YOU FEEL THIS BLOG IS GOOD THEN YOU MUST FORWARD IN YOUR CIRCLE.