Thursday, July 16, 2009

स्वाधीनता के ६२ वर्षः क्या खोया क्या पाया ?

स्वाधीनता के ६२ वें वर्ष में हम प्रवेश कर चुके हैं परन्तु क्या हम वास्तव में स्वाधीन हो पाए हैं? हमने अब तक क्या खोया एवं क्या पाया? इस तथ्य पर चिंतन किए बिना राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं का समाधान संभव नहीं है । आज केवल समस्याओं पर ही मूलभूत समस्याओं का समाधान संभव नहीं है । आज केवल समस्याओं पर ही बातें होती है, समाधान पर चर्चाएं होती ही नहीं है क्योंकि वैश्‍विक दृष्टि का अभाव है । हो सकता है हम अपने दृष्टि को क्रियान्वित करने में सक्षम ना हों । दोनो ही परिस्थिति खेदजनक है । आईटी क्रांति के बदलाव ने हर क्षेत्र को नई दिशा दी है । उदाहरण के तौर पर बैंक में हमें जमा अथवा निकासी हेतु घंटों पंक्‍ति में लगा रहना पड़ता था परन्तु आज एटीएम एवं नेटबैंकिग के कारण मिनटो में लेन-देन आसान हो गया । लोगों के पास आज पैसा है परंतु समय नहीं है । ऐसी परिस्थिति में लोगों की आकांक्षाएँ एवं पूर्ति करने हेतु संघर्ष बड़ गई है । हम संतोष को त्याग रहे हैं । अपने संस्कृति को भूलते जा रहे हैं । हम क्या थे, के बारे में विदेशी अनुसंधान करके हमें बता रहेहैं । हम पाश्‍चात्य संस्कृति के मोहपाश में पूरी तरह जकड़ चुके हैं । टीवी और इंटरनेट ने इस संस्कृति को और अधिक हवा दी है । इस स्थिति में भी हम अपने धर्म, सभ्यता, धरोहर से विमुख होते जा रहे हैं । अर्थात यह सब चीजें कल इसलिए हो जायेगी । क्या हमारे ऋषि-मुनियो, महापुरूषों ने इसी के लिए त्याग और तपस्या किया था । भारत जिन कारणों से विश्‍वगुरू है उन कारणों को छिन्‍न- भिन्‍न करने का षडयंत्र चल रहा है ताकि भारत और सशक्‍त बन ही नहीं सके । वास्तव में हम क्षणिक उपरी समस्याओं को ही देख पाते हैं और उसी के समाधान तक सीमित रह जाते हैं जबकि मौलिक समस्याएं अर्थात समस्याओं की जड़ तक पहुँच ही नहीं पाते हैं । होना यह चाहिए कि बदलाव हेतु सक्षम सकारात्मक शक्‍तिओं में आपसी संयोजन का कार्य शुरू हो । समन्वय के लिए समाज को डिजिटल होना पड़ेगा । सरकारी, गैर सरकारी सभी विभागों/ श्रेत्रों को कंप्यूटर से जोड़ना पड़ेगा ताकि पारदर्शिता आए । इसी पारदर्शिता से समन्वय के साथ-साथ भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगेगा जो हमारी व्यवस्था की जड़ों को खोखला कर रही है। समय की जबरदस्त माँग है कि एक बार फिर संपूर्ण क्रांति का उद्‌घोष हो । ताकि आमूलचूल परिवर्तन हेतु माहौल बन सके । राष्ट्र सर्वप्रथम की भावना एवं मानसिकता की अनिवार्यता का जज्बा जगाने हेतु छात्रों नौजवानों को जनजागरण का अभियान छेड़ना पड़ेगा । परिवर्तन हेतु मुख्यतः चार शक्‍तियाँ प्रभावी भूमिका अदा कर सकती है - मातृ शक्‍ति । महिला सशक्‍तिकरण, युवा शक्‍ति, आध्यात्मिक शक्‍ति एवं आईटी शक्‍ति । इसमें सबसे अधिक उर्जा आईटी शक्‍ति में है परन्तु उसे नियंत्रित करने हेतु आध्यात्मिक शक्‍ति की आवश्यकता है । कंप्यूटरीकृत व्यवस्था अथवा डिजिटल फॉरमेटिंग आवश्यक है परन्तु इसके इस्तेमाल के कुछ हानिकारक परिणाम भी सामने आ रहे हैं । इसके उपाय आध्यात्मिकता में ही निहित है । शांति एवं विकास की परिकल्पना “स्पिरिचुअल मैन एंड डिजिटल सोसाइटी” के फॉर्मूले से ही साकार हो सकती है । इस स्लोगन पर अनुसंधान करने पर पता चल सकेगा कि एक-एक वाक्य में बदलाव एवं उर्जा के सारे तथ्य समाहित है । इतिहास गवाह है कि छात्रों-युवाओं ने जब-जब अंगड़ाई ली है तो राष्ट्र और दिशा में बदलाव लाने का कार्य किया है । आज इस शक्‍ति की झंकृत करने की आवश्यकता है जो वैचारिक परिवर्त्तन के रामवाण से ही संभव है । पुरूष प्रधान समाज में महिलाएँ बराबरी एवं सम्मान का दर्जा पाने को आतुर है जो एक शुभ संकेत है । जनजागरण एवं शिक्षा ने हमारे सोंच को बदला है । हमारी अगली पीढ़ी हमसे अधिक ज्ञानवान एवं सजग है । आज पुराने आजमाए फॉर्मूलों पर नए का चस्पा लगा कर अलग तरीके से पेश करने की प्रवृत्ति बढ़ी है । सहकारिता, सहभागिता, पारदर्शिता, सकारात्मकता, समन्वय का सिद्धांत पुराना ही तो है बेशक नए लोग नए तरीके से इसकी व्याख्या में जुटे हैं । आज विकास की सारणी में हम बेशक अपना स्थान ऊँचे पर रखते हो परन्तु मूल्य, विचार, दर्शन, दृष्टिकोण, सभ्यता, संस्कृति, कमजोर कर दिया है । हमलोग केवल नकलची बनकर रह गए हैं । शिव खड़ा कहते हैं “अन्याय करने से भी अधिक दोषी तो अन्याय सहने वाला है” परन्तु आज हम अन्याय सहने के अभ्यस्त बन चुके हैं । व्यक्‍तिगत स्वार्थ ने हमें इस तरह पंगु बना दिया है कि हम स्वयं के अतिरिक्‍त दूसरे की आवश्यकता को समझना ही नहीं लगता कि इससे अच्छे तो हम गुलाम थे । हाँ इतना अंतर जरूर आया है कि पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे परन्तु अब सामंतवादियों, भ्रष्टाचारियों एवं दुर्जनों के गुलाम है । हमारे आईटी जगत के लोगों को ऐसा सॉफ्टवेयर बनाने में अभी असफलता नहीं मिली है जिसके माध्यम से हमारी चेतना, हमारे मूल्य, हमारे अधिकार, और हमारे कर्त्तव्य को सही-सही दर्शाकर आमजनों के दिमाग में भा सके । गाँधी आज अप्रासंगिक हो गए हैं । उदाहरण स्वरूप गाँधी पर बने संस्थाओं मेंही आपसी सामंजस्य और सहभागिता का अभाव है तो दूसरी संस्थाओं से किस बात की अपेक्षा? जिस नैतिक मूल्यों की दुहाई हम देते हैं उस नैतिकता को अनिवार्य शिक्षा के रूप में शामिल करने की हमारे शासकों/प्रशासकों को समझ नहीं आती । हम कहाँ जा रहे हैं, इसका पता खुद नहीं मालूम? हमारे क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों की त्याग और बलिदान को समानित करने के बजाय नेताओं ने अपनी मूर्त्ति लगाने का अभियान छेड़ा हुआ है । यह कहाँ तक उचित है ? आज हर श्रेत्र मे न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ता है । आखिर हम अपने कर्त्तव्य को क्यों भूल जाते हैं । कर्त्तव्य पथ पर चले बिना अधिकार की माँग करना बेमानी है । महाशक्‍तियों को यह अहसास हो गया है कि भारत अंग्रेजों से तो स्वाधीन हो है परन्तु इसे अपने पराधीनता के जाल में कैसे जकड़ा जाय । महाशक्‍तियों ने यह अनुसंधान कर लिया है कि समृद्ध और गौरवशाली भारतीय सभ्यता संस्कृति के बलबूते पर भारत विश्‍वशक्‍ति बन सकता है । इसलिए विश्‍वशक्‍ति बनने की राह में अनेक काँटे बिछाए जा रहे हैं । हमारी ढुलमुल विदेश नीति इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार है । भारतीय छात्रों, नौजवानों की प्रतिभा क्षमता के विदेशी कायल हो चुके हैं । वे अपने सभी श्रेत्रों में भारतीय मूल को अब स्थान देने लगे हैं । इसका कारण आखिर क्या है? हमें अपनी शक्ति को समझना होगा, केन्द्रित करना होगा, समन्वित करना होगा तथा उसको देश के व्यापक हित के लिए पुनः आध्यात्मिक एवं ई-क्रांति का आगाज करना पड़ेगा । तभी २०२० के सपनों का भारत की परिकल्पना साकार हो सकेगी ।

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