Thursday, July 9, 2009

गाँधी संग्रहालय में देखिए मेरा जीवन मेरा संदेश


दिल्ली में राजघाट स्थित गाँधी समाधि एवं गाँधी दर्शन समिति के अतिरिक्‍त गाँधी संग्रहालय में महात्मा गाँधी के जीवन पर आधारित एक्जीविशन ‘मेरा जीवन मेरा संदेश’ विगत २ अक्टूबर २००८ से ही आयोजित की गई है जो १५ सितंबर २००९ तक रहेगा । वैसे गाँधी जयंती (२ अक्टूबर) एवं पुण्यतिथि (३० जनवरी) को यहाँ विशेष चहल-पहल रहती है परन्तु इन दिनों इत्मीनान एवं एकाग्रता से बापू से संबंधित हर पक्ष का अध्ययन किया जा सकता है । महात्मा गाँधी, गाँधी कैसे बने, उनकी दिनचर्या, जीवन, दर्शन, मूल्य, विचार, प्रेरणा तथा औरों की नजर में व्याख्या देखकर कोई भी अभिभूत हो सकता है । संग्रहालय के अतिरिक्‍त, फोटे प्रभाग, पुस्तकालय, साहित्य बिक्री केन्द्र एवं फिल्म थियेटर में गाँधीजी से संबंधित फिल्म का निःशुल्क आनंद प्रत्येक शनिवार एवं रविवार को ४-५ शाम को लिया जा सकता है । यहाँ आप गाँधीजी द्वारा चरखे और खादी का पुनरूत्थान चरखा और खादी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, स्वदेशी, खादीवृत्ति ग्रामोद्धार के लिए कताई, कताई एक यज्ञ, विदेशी व्यापार, खादी और रोजगार आदि पर संक्षिप्त आलेख द्वारा अपनी जिज्ञासा तृप्त कर सकेंगे । गाँधी संग्रहालय की निदेशक डॉ० वर्षा दास जो नेशनल बुक ट्रस्ट की संपादक भी रह चुकी हैं, ने गाँधी पर अंग्रेजी कविता का हिंदी में अनुवाद भी किया है, वह भी उक्‍त प्रदर्शनी में मौजूद है । मैं यहाँ गाँधी जी से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्यों को रेखांकित का रहा हूँ । आप सभी प्रबुद्धजनों से मेरा आग्रह है कि निम्नांकित तथ्यों के आंतरिक मर्म पर चर्चा व चिंतन कर समाज एवं राष्ट्र को गँधी दर्शन के माध्यम से आलोकित करें तो यही गाँधीजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी । गाँधीहिंसा ने सद्‌ को मारापर मौत तो हिंसा ही हुईशुद्ध शहीदी रक्‍तआसमान से कहता हैहिंसा ने शांति को दबोचाऔर अब सदियों तक मानव इस हिंसा काशोक मनाता रहेगा चुप्पी सब जानती हैपावन नदी बहती हैवह तारणहार प्रकाशफैलता चला जाता हैफैलता चला जाता है । - विलियम रोज बेनेट अमरीकी कवि व समीक्षक (1886-1950) (अनुवाद ः वर्षा दास )
गाँधीजी की प्रिय भजन-वैष्णव जनवैष्णव जन तो तेने कहियेजे पीड़ पराई जाणे रेपरदुःखें उपकार करे तोयेमन अभिमान न आणे रेसकल लोकमां सहुने वंदे निंदा न करे के नी रेवाच, काछ, मन निश्‍चल राखेधन-धन जननी तेनी रेसमदृष्टि ने तृष्णा त्यागी परस्त्री जेने मात रेजिव्हा थकी असत्य न बोलेपरधन नव झाले हाथ रेमोहमाया व्यापे नहीं जेनेदृढ़ वैराग्य जेना मनमां रे रामनाव शुं ताली लागी सकल तीरथ तेना तनमाँ रेवणलोभी ने कपटरहित छेकाम क्रोध निवांर्यां रेभणे नरसैं यो तेनुं दरशन करतांकुल एकोतेर तार्या रे । - संतकवि नरसिंह मेहता (1414-1479)
आश्रम भजनावली पुस्तक की बंगाली भजन177. राग आसावरी-द्रुत एक तालअन्तर मम विकसित करो अन्तरतर हेनिर्मल करो, उज्जवल करो, सुंदर करो हेजागृत करो, उद्यत करो, निर्भय करो हेमंगल करो, निरलस निःसंशय करो हेयुक्‍त करो हे सवार संगे, मुक्‍त करो हे बंधसंचार करो सकल कर्मे शान्त तोमार छंदचरणपद्मे मम चिन्त निष्पांदित करो हेनंदित करो, नंदित करो, नंदित करो हे ।
गाँधीजी के अनुसार ‘सात सामाजिक पाप’* सिद्धान्तविहीन राजनीति* श्रमविहीन सम्पत्ति* विवेकहीन सुख* चरित्रविहीन ज्ञान* नीतिविहीन व्यापार* मानवताविहीन विज्ञान* त्यागविहीन उपासना (यंग इंडिया 22.10.1925)
गाँधीजी की प्रमुख उक्‍तियाँ“मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उसका देश है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है । मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा जिसमें ऊँचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध संप्रदायों में पूरा मेलजोल होगा । ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता । उसमें स्त्रियोंको वही अधिकार होंगे जो पुरूषों को होंगे । चूँकि शेष सारी दुनियाँ के साथ हमारा संबंध शांति का होगा, यानी न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे, इसलिए हमारी सेना छोटी से छोटी होगी । यह है मेरे सपनों का भारत । - मोहनदास करमचन्द्र गाँधी, यंग इंडिया (10.9.1931)
एक अचूक मंत्र“ मैं आपको एक मंत्र देता हूँ । जब कभी आप दुविधा में हों या आपको अपना स्वार्थ प्रबल होता दिखाई दें तो यह नुस्खा आजमाकर देखिएगा । अपने मन की आँखों के सामने किसी ऐसे गरीब और असहाय व्यक्‍ति का चेहरा लाइये जिसे आप जानते हों और अपने आपसे पूछिए कि आपकी करनी उसके किस काम आएगी? क्या उसे कुछ लाभ होगा? क्या उस काम से उसे अपना जीवन और भविष्य बनाने में कुछ मदद मिलेगी, दूसरे मायनों में क्या आपकी करनी हमारे देश के लाखों, करोड़ों, भूखों, नंगे लोगों को स्वराज्य की राह दिखाएगी? बस इतना सोचते ही आपकी सारी दुविधाएँ दूर हो जाऐंगी और स्वार्थ पिघलकर बह जाएगा । - मोहनदास करमचन्द्र गाँधी
अपनी संपूर्ण विनम्रता के साथ वे हमसे कहते हैं कि उनकी सफलता का राज प्रार्थना और आस्था है । अपने लंबे जीवन काल में इन चीजों ने उन्हें कभी असफल नहीं होने दिया । उनका उपवास संपूर्ण आसुरी शक्‍ति से लड़ते हुए मात खाई, चाहे वह आतंरिक द्वंद का संघर्ष हो उनके अनुयायियों के बीच का संघर्ष हो, ब्रिटिश शासन की आसुरी शक्‍ति हो अथवा उनके अपने प्रिय देश की ही बात हो । ”संपादकीय टिप्पणी 30 jan 1998 जिस दिन गाँधी की हत्या हुई थी “द कॉमनवेल्थ ” एक अमरीकी कैथोलिक पत्रिका जो गाँधीजी पर लिखे गए एक संपादकीय सहित प्रेस जो भेजी गई थी । यह उद्धरण वहाँ से उद्धत ।
“मेरे जाने के बाद कोई भी अकेला आदमी मेरा संपूर्णतया प्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं होगा । लेकिन मेरे कुछ अंश आपमें से अधिकांश में मौजूद रहेंगे । यदि प्रत्येक उस पथ को पहले और स्वयं को बाद में रखेगा तो यह शून्य स्थान काफी हद तक भर जाएगा ” - महात्मा गाँधी “शक्‍ति के विरूद्ध न्याय की इस लड़ाई में मै सारी दुनियाँ की सहानुभूति चाहता हूँ । ” डांडी मोहनदास करमचन्द्र गाँधी 541930
महात्मा गाँधी द्वारा १५ सितंबर १९३१ को फेडरल स्टूक्चर कमेटी में किए गये भाषण का सार (द्वितीय गोलमेज परिषद) . लंदन“सबसे बड़ी बात तो यह है कि कांग्रेस तत्वतः न करोड़ों मूक, अर्धवुमुक्षित मानवों का प्रतिनिधित्व करती है जो भारत भर में बिखरे ७,००,००० गाँवो में बसे हुए है फिर चाहे वे, जिसे ब्रिटिश भारत कहते हैं, उस हिस्से के रहनेवाले हो या जिसे भारत के देशी राज्य कहा जाता है, उस क्षेत्र के निवासी हों । ऐसी प्रत्येक हित को जिसे कांग्रेस रक्षणीय मानती है, इन करोड़ों मूक मानवों के हित साधन में सहायक होना है और इसलिए आपको यदा-कदा विभिन्‍न हितों के बीच उपरी परत तौर पर कुछ टकराव देखने को मिलता है लेकिन अगर इन हितों के बीच कोई वास्तविक टकराव हो तो मुझे कांग्रेस की ओर से यह कहने में कोई हिचक नही है कि उस हालत में वह इन करोड़ों मूक मानवों के हित-साधन के लिए बाकी सभी हितों का बल;इदान कर देगी । मैं आपके देश के लिए आजादी जरूर चाहता हूँ । लेकिन सच मानिए कि अगर मेरा बस चले तो वह आजादी में इसलिए नहीं चाहता कि एकैसे राष्ट्र का सदस्य होने के नाते, जिसकी जनसंख्या पूर्ण मानवजाति का बीस प्रतिशत है मैं दुनिया की किसी भी अन्य जाति अथवा किसी भी व्यक्‍ति का शोषण करूँ । यदि मैं अपने देश की वह स्वतंत्रता चाहता हूँ तो मै तब तक उसका पात्र नहीं हो सकता जब तक कि सबल दुर्बल दूसरी प्रत्येक जाति के वैसी ही स्वतंत्रता के उपयोग करने के अधिकार मैं श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता । ” अहिंसा के प्रयोग के बगैर क्रांति का जो गाँधीजी का तरीका था । उसके द्वारा ही वे भारत के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने में सफल हुए । मेरा यह विश्‍वास है कि विश्‍व में सर्वोपरि राष्ट्र के आधार पर शांति बहल करने की समस्या का समाधान सिर्फ गाँधी के तरीकों को व्यापक पैमाने पर लागू करके ही किया जा सकता है । ” “यह नहीं भूलना चाहिए कि गाँधी का विकास उनके विशिष्ट बौद्धिक और नैतिक शक्‍तियों का राजनैतिक कल्पना शक्‍ति और एक अद्वितीय परिस्थिति के साथ मिलन का ही परिणाम है । मैं सोचता हूँ कि थोरो और टॉल्सटॉय के बगैर भी गाँधी गाँधी ही होता । आने वाली नस्लें शायद ही इस बात पर यकीन करें कि ऐसा हाड़ माँस का एक व्यक्‍ति कभी इस धरती पर भी चला था । ” आल्बर्ट आइंसटाइन“वे सही थे, वे जानते थे कि वे सही थे । हम सब जानते थे कि वे सही थे, जिस व्यक्‍ति ने उनकी हत्या की वह जानता था कि वे सही थे । फिर कितने ही समय तक हिंसक तत्वों की मूर्खता क्यों न जारी रहे, वे यही प्रमाणित करते है कि गाँधीजी सही थे । उन्होंने कहा था कि अंत तक प्रतिरोध करो किंतु हिंसा के बिना यह विश्‍व हिंसा से त्रस्त है । भारत ! अपने आँधी के योग्य बनने की हिम्मत कर । ” - पर्ल एस० बक
“महात्मा बुद्ध के पश्‍चात्‌ भारत ने किसी और व्यक्‍ति को इतना सम्मान नहीं दिया (जितना गाँधीजी को दिया है ) संत फ्रासिस असिसि के पश्‍चात्‌ इतिहास में किसी और व्यक्‍ति का जीवन इतनी नम्रता, स्वार्थहीनता, ह्दय की सरलता एवं विरोधियों को क्षमा कर देने से परिपूर्ण नहीं रहा । हमारे समक्ष यह एक आश्‍चर्यजनक दृश्य हैं- एक संत के नेतृत्व में क्रांति” - विल ड्‌युरा
“गाँधीवादी प्रतिरूप की अहिंसा को मैंने सिर्फ एक अबाध सिद्धांत के रूप में नहीं देखा बल्कि एक युक्‍ति के तौर पर देखा है जिसका इस्तेमाल परिस्थितियों की माँग के अनुरूप किया जा सकता है । यह सिद्धांत उतना ही महत्वपूर्ण नहीं था कि इस युक्‍ति को स्वयं के हार की अवस्था में भी इस्तेमाल किया जा सकता था, जैसा कि गाँधी स्वयं मानते थे । ” - नेल्सन मंडेला
“महात्मा गाँधी के साथ उनके दर्शन के प्रति संपूर्णताया समर्पित एक सौ से अधिक लोग कभी भी नहीं थे । लेकिन इस समर्पित अनुयायियों के छोटे से दल के साथ उन्होंने संपूर्ण भारत पर अपने दर्शन की परत चढा दी और अहिंसा के तेजस्वी वीरतापूर्ण कार्य द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के सामर्थ्य को भी चुनौती दे डाली तथा अपने लोगों के लिए स्वतंत्रता जीत ली । ” - मार्हिंन लूथर किंग

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