Thursday, July 9, 2009

महात्मा गांधी और ग्यारह व्रत

“मैं महसूस करता हूं और अपने पूरे सार्वजनिक जीवन के दौरान मैंने महसूस किया है कि हमें आवश्यकता होती है, परन्तु शायद विश्‍व के सभी राष्ट्रों से अधिक हमें अभी तुरन्त जिस चीज की आवश्यकता है वह कुछ और नहीं, चरित्र-निर्माण है और इससे कम कुछ नहीं । ” - _महात्मा गांधी
गांधीजी ने २५ मई १९१५ को अहमदाबाद के कोचरब नामक स्थान पर सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की । इसके सदस्य देश की सेवा करने के योग्य हो सकें और इस दिशा में निरंतर अपना योगदान दें । यह देश सेवा सबके कल्याण से जुदा नहीं होनी चाहिए । उपरोक्‍त उद्देश्य की पूर्ति हेतु नीचे दिए व्रतों का पालन अनिवार्य समझा गया ।
१ * सत्य साधारण व्यवहार-कारोबार में झूठ न बोलना या नहीं बरतना इतना ही सत्य का अर्थ नहीं है । लेकिन सत्य ही परमेश्‍वर है और उसके सिवा दूसरा कुछ नहीं है । उस सत्य की खोज और पूजा के लिए ही दूसरे सब नियमों की जरूरत रहती है और उसी में से वे निकले नियमों की जरूरत रहती है और उसी में से वे निकले हैं । इस सत्य के उपासक, पुजारी अपनी कल्पना की देश की भलाई के लिए भी झूठ न बोलें, न बरतें । सत्य के खातिर वे प्रहलाद की तरह माता-पिता वगैरा बुजुर्गों की गलत आज्ञा का भी अदब से भंग करने में धर्म समझें ।
२ * अहिंसा या प्रेम प्राणियों को जान से न मारना इतना ही इस व्रत के लिए बस नहीं है । अहिंसा का मतलब है बहुत छोटे जीव-जंतुओं से लेकर मनुष्य तक सब जीवों के लिए समभाव- बराबरी का, अपनेपन का भाव । इन व्रतों का पालन करने वाला घोर अन्याय करने वाले पर भी गुस्सा न करे, लेकिन उस पर प्रेम भाव रखे, उसका भला चाहे और भला करे । लेकिन अन्याय करने वाले को प्रेम करते हुए भी वह अन्याय के वश में न हो, उसके अन्याय का विरोध करे और ऐसा करते हुए जो कष्ट मिले उसे बगैर सहन करे ।
३* ब्रह्यचर्य ब्रह्यचर्य के पालन के बिना ऊपर व्रतों का पालन नामुमकिन है । ब्रह्यचारी किसी स्त्री या पुरूष पर बुरी निगाह न डाले इतना ही बस नहीं है, लेकिन मन से भी विषयों का विचार या भोग न करे । और विवाहित हो तो वह अपनी स्त्री या अपने पति के साथ विषय-भोग न करे, लेकिन उसे मित्र समझ कर उसके साथ निर्मल संबंध रखे । अपनी या दूसरी स्त्री को या अपने पति या दूसरे पुरूष को विकार से छूना या उसके साथ विकारी बातचीत करना या दूसरी विकारी चेष्टा करना भी स्थूल ब्रह्यचर्य का भंग है ।
४* अस्वाद आदमी जब तक जीभ के रसों को नहीं जीतता, तब तक ब्रह्यचर्य का पालन बहुत मुश्किल है, ऐसा अनुभव होने से अस्वाद को एक अलग व्रत माना गया है । भोजन सिर्फ शरीर को निभाने के लिए ही करना चाहिये, भोग के लिए हरगिज नहीं । इसलिए उसे दवा समझ कर संयम से खाने की जरूरत है । इस व्रत का पालन करने वाला विकार पैदा करने वाले मसालों वगैरा को छोड दे । मांस खाना, शराब पीना, तम्बाकू पीना, भांग पीना, वगैरा की आश्रम में मनाही है । इस व्रत में स्वाद के लिए दावत की या भोजन के आग्रह की मनाही है ।
५* अस्तेय (चोरी न करना) दूसरे की चीज उसकी इजाजत के बिना न लेना, इतना ही इस व्रत केपालन के लिए काफी नहीं है । जो चीज काम के लिए मिली हो उसका उससे दूसरा उपयोग न करना या जितनी मुद्दत के लिए मिली हो उससे ज्यादा मुद्दत तक उसे काम में लाना भी चोरी है । इस व्रत के मूल में सूक्ष्म सत्य तो यह रहा है कि परमात्मा प्राणियों के लिए रोज की जरूरत की चीजें ही रोज पैदा करता है उन्हें देता है ।
६ * अपरिग्रह (जमा न रखना) अपरिग्रह अस्तेय के भीतर ही आ जाता है । बेजरूरी चीज जैसे ली नहीं जा सकती, वैसे उसका संग्रह भी नहीं हो सकता । इसलिए जिस खुराक या सरोसामान की जरूरत नहीं है, उसका संग्रह इस व्रत का भंग है । जिसे कुरसी के बिना चल सकता है वह कुरसी न रखे । अपरिग्रही मनुष्य अपने जीवन को दिनोंदिन सादा करता जाय ।
७ * जात-मेहनत अस्तेय और अपरिग्रह के पालन के लिए जात-मेहनत का नियम जरूरी है । और हर मनुष्य अपना गुजारा शरीर की मेहनत से करे तभी वह समाज के और अपने द्रोह से बच सकता है । जिनका शरीर काम देता है और जो सयाने हो गये हैं, ऐसे स्त्री-पुरूषों को चाहिये कि हाथ से निपटाया जा सकने वाला अपना रोज का सारा काम वे खुद ही निपटा लें । लेकिन जब बच्चों की, दूसरे अपाहिज लोगों की और बूढ़े स्त्री-पुरूषों की सेवा करने का मौका आये, तब उसे समाजी जिम्मेवारी समझकर करना हर इन्सान का धर्म है ।
८ * स्वदेशी मनुष्य सबकुछ कर सकने वाला, सर्वशक्‍तिमान प्राणी नहीं है । इसलिए वह अपने पड़ोसी की सेवा न करने में जगत की सेवा करता है । इस भावना का नाम स्वदेशी है । अपने पास वालों की सेवा को छोड़कर जो दूर वालों की सेवा करने या लेने दौड़ता है, वह स्वदेशी का भंग करता है । इस भावना के पोषण से संसार सुव्यवस्थित रह सकता है । इसके भंग में अव्यवस्था रही है । इस नियम के मुताबिक जहां तक हो सके, हम अपने पड़ोसी की दुकान के साथ व्यवहार-कारोबार रखें: देश में जो बनती हो या न लायें । स्वदेशी में स्वार्थ के लिए जगह नहीं है । इन्सान खानदान के, खानदान शहर के, शहर देश के और देश जगत के कल्याण के लिए कुरबान हो जाय ।
९ * अभय सत्य, अहिंसा वगैरा व्रतों का पालन निडरता के बिना नामुमकिन है । और आज कल जब कि सब जगह डर फैल रहा है, निडरता का चिंतन और उसकी तालीम बहुत जरूरी होने से उसे व्रतों में स्थान दिया गया है । जो आदमी सत्यपरायण रहना चाहे, वह न तो जात-पांत से डरे, न सरकार से डरे, न चोर से डरे, न गरीबी से डरे और न मौत से डरे ।
१० * अस्पृश्यता-निवारण (छुआछूत मिटाना) हिन्दू धर्म में छुआछूत के रिवाज ने जड़ पकड़ ली है । उसमें धर्म नहीं है बल्कि अधर्म है, ऐसा हमारा मानना है । इसलिए अस्पृश्यता-निवारण को नियमों में स्थान दिया गया है । अछूत माने जाने वालों के लिए दूसरी जाति वालों के समान ही आश्रम में स्थान है । आश्रम जातिभेद को नहीं मानता । जातिभेद से हिन्दू धर्म को नुकसान हुआ है, ऐसी उसकी मान्यता है । उसमें रही हुई ऊंच-नीच की और छुआछूत वर्णाश्रम-धर्म को मानता है । उसमें बताई वर्ण व्यवस्था सिर्फ धंधे के मुताबिक है, ऐसा लगताहै । इसलिए वर्ण-नीति पर चलने वाला आदमी मां-बाप के धंधे से रोजी कमाकर बाकी का समय शुद्ध ज्ञान लेने में और उसे बढ़ाने में खर्च करे । स्मृतियों की आश्रम व्यवस्था (चार चरण) जगत का भला करने वाली है । लेकिन वर्णाश्रम-धर्म को मानने पर आश्रम का जीवन गीता में बताये हुएव्यापक और भावना-प्रधान (भावनाशील, जड़ नहीं) सन्यास के आदर्श को लेकर बना हुआ है, इसलिए आश्रम में वर्णभेद के लिए जगह नहीं है ।
११ * सहिष्णुता (बरदाश्त) आश्रम का यह मानना है कि जगत के आज के मशहूर धर्म को प्रगट करने वाले हैं । लेकिन वे सब अधूरे आदमी के जरिये प्रगट हुए है, इसलिए सब में अधूरेपन की या असत्य की मिलावट हो गई है । इसलिए जैसे हम अपने धर्म की इजाजत करते हैं, उसी तरह हमें दूसरों के धर्म की इज्जत करनी चाहिये । ऐसी सहिष्णुता जहां हो वहां एक-दूसरे के धर्म का विरोध मुमकिन नहीं है, न दूसरे धर्म वालों को अपने धर्म में लाने की कोशिश मिमकिन हैं: लेकिन सब धर्मों में रहे हुए दोष दूर हों ऐसी ही प्रार्थना और ऐसी ही भावना हमेशा बनी रहनी चाहिये ।

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