- गोपाल प्रसाद
प्रादेशिक भाषाओं के शब्दावली का प्रयोग हिंदी में हो । अब पिताजी, माताजी कोई नहीं कहता ज्यादातर डैड, मॉम, आंटी, अंकल ही कहते हैं, क्यों ? नाना और दादा को ग्रैंडफादर नहीं बल्कि अंकल ही कह देते हैं । समाज के कारण भाषायी परिवर्तन हो रहा है । अंकल बनने के लिए वेशभूषा में परिवर्तन करना होगा । अंकलजी कहलाने के लिए खाने के तरीके और विद्याओं को स्वीकार करना होगा । कुर्सी-मेज पर बैठकर खाने वाले प्रगतिशील (modern) कहलाते हैं । प्रगति और परंपरा का विशेष महत्व हैं । सामने से आनेवाला प्रकाश अंधा कर देता है । पीछे से आनेवाला प्रकाश हमें रोशनी देता है, हमारा मार्ग प्रशस्त करता हैं । परंपरा गतिशील अवधारणा है । पाठ्र्यक्रम में परंपरावादियों को नकारकर प्रगतिशीलों को प्रोत्साहित करना दुखद है । आवश्यकता है- चिंतन की, परंपरा को ठीक से पहचानने की । हमारे देश की उज्जवल और उत्कृष्ट जीवन मूल्यों के समान परंपरा किसी देश की नहीं है । अधोगति और विसंगतियों का मूल कारण प्रगतिशीलता का अंधानुकरण है । शरतचन्द्र ने कहा था कि मैं बंग्ला में लिखने के कारण बंग प्रदेश से जुड़ता हूँ । बंगभूमि के कारण भारत से और विश्व से जुड़ता हूँ । भूमि और भाषा से ही हम संपूर्ण परिवेश से जुड़ते हैं । मातृभाषा में उत्कृष्ट सृजन कर सकता हूँ । भारतीय भाषाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने में असफल रहे हैं । अंग्रेजी दुनिया से जोड़ती है, यह झूठ है । भारतीय भाषाओं में बोली जानेवालों की तुलना में अंग्रेजी बोलनेवालों की संख्या कम है । मॉल संस्कृति से अंग्रेजी को बढ़ावा मिला है । चपरासी से हिंदी में, अफसरों से अंग्रेजी में बातचीत की मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता हैं । विद्यार्थियों के प्रश्नपत्र मातृभाषा में तथा साक्षात्कार भी मातृभाषा में हो । उच्च न्यायालयों में हिंदी का अनुवाद अंग्रेजी में करके बोला जाता है । आज बौद्धिक आंदोलन की आवश्यकता है । कंप्यूटर संगणक में हिंदी वर्णमाला के फॉन्ट ठीक नहीं है । कंप्यूटर संगणक की भाषा संस्कृत ही होगी । [अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा आहूत राष्ट्र जीवन की चुनौतियाँ ः स्वरूप ओ समाधान विषय पर संगोष्ठी में गोपाल प्रसाद के विचार] - साहित्य में समरसता की आवश्यकता है । मातृभाषा मैथिली के साथ-साथ सभी प्रांतीय भाषाओं का समावेश हो । साहित्य अकादमी सदृश समानांतर व्यवस्था भी चले । आपसी संयोजन समय की माँग है । राष्ट्रचिंतन हमारा केन्द्रबिंदु बने । पारंपरिक मूल्यों की रक्षा एवं लोकसाहित्य सृजन को प्रश्रय मिले । आईटी शक्ति के सहयोग से सहित्य की स्वरधारा को बढ़ाने की जरूरत है ।[ संघ के पदाधिकारी मनमोहन वैद्यजी के विचार ]मूल अवधारणा सही होनी चाहिए । सेकुलरिज्म का अर्थ धर्मनिरपेक्षा नहीं, हम धर्म सापेक्षता में विश्वास करते हैं । अभिव्यक्त करना देवत्व है । प्रकृति के आंतरिक और बाह्य खूबसूरती को साहित्य सृजन का विषय बनाना चाहिए । भारत के लोकमंगल की साधना तथा रचना के विद्याओं में राष्ट्रभाव हो तभी मर्यादा रहेगी । यह भावना विकसित करनी होगी कि मैं समाज के लिए हूं समाज मेरे लिए नहीं है । भगवान और भक्त के बीच अंतर समाप्त हो गया है । देने की प्रवृति बढ़नी चाहिए । निरपेक्ष भाव से देते रहने का भाव पैदा करने की जिम्मेदारी लेनी होगी ।[ संघ के रीति-नीति एवं योजना प्रमुख सूर्यकृष्णजी के विचार ] पहले माननीय, पूज्यनीय, श्री आदि लिखा जाता था , जो अब प्रायः लुप्त हो चुका है । लेखनी नहीं हैं, अभिव्यक्ति तो है । संविधान शाश्वत चीज नहीं है, उसे हमलोग ही निर्माण करते हैं । संस्कार और विचार बदल देने पर तो देश ही मर जाएगा । औरंगजेब ने डेढ़ मन जनेऊ काटकर ही अन्न ग्रहण करने का जो संकल्प लिया था, क्या वह आतंकवाद नहीं था ? हमारे संस्कार इतने प्रबल थे कि वे हमें नहीं डिगा पाए । अगर दृष्टि होगी तभी तो कीमत होगी । कबीर, तुलसी, वेदव्यास, बाल्मीकि ने तो पीएचडी नहीं करने के बाद भी उत्कृष्ट रचना दी । रचना तभी संतुलित होगी जब देश की सारी चीजों को समझने की कोशिश करेंगे ।[ प्रख्यात लेखिका क्षमा कौल के विचार ]आकर्षणों से दूर रहकर मेरा भारत क्या है, को समझना पड़ेगा । दिशा-नीति निर्धारित करनी पड़ेगी । हमें बहना नहीं है , विवेकपूर्ण बढ़ना है । विवेक का उपयोग मार्ग प्रशस्त करने में करना है । निष्प्राण सहभागिता का कार्यविस्तार प्रचंड चुनौती है । अतिथि भाव नहीं बल्कि आतिथेय भाव बनाना पड़ेगा ।
Wednesday, July 1, 2009
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