Thursday, July 16, 2009
बुनियादी हक के लिए शोषितों का संघर्ष
आजादी के वर्षो के बीत जाने पर भी दलितों, शोषितों, को अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने के बावजूद सफलता नहीं मिल पा रही है । ये लोग अपने बुनियादी हक के लिए जोरदार संघर्ष कर रहे हैं । ऎसा लग रहा है कि दलित चेतना अब नया करवट ले रहा है । अभी तक इनका आंदोलन टुकड़ों में विभक्त था परन्तु अब इसे संगठित स्वरूप प्रदान करने में विभिन्न लोग एवं संस्थाएं सक्रिय हैं । समतामूलक समाज के निर्माण के बगैर देश की प्रगति की कल्पना बेमानी हैं । इस हेतु ठोस पहल की आवश्यकता है । आज भी कुछ राज्यों में वर्षों से सिर पर मैला ढोने की प्रथा बरकरार है । बाल्मीकि (ड़ोम, मेहतर) समाज के लोग पुश्तैनी पेशे को घृणास्पद और अमानवीय मानने के बावजूद इसे नहीं छोड़ पा रहे हैं । सरकारी व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदारी जान पड़ती है । मध्यप्रदेश में मंदसौर के घाकियाखेड़ी गाँव की लालीबाई ने जीलत भरे जातिगत काम में खुद मुक्त हुई, साथ ही अन्य महिलाओं की मुक्ति का बीड़ा उठा लिया । आज वह अपने इलाके में मिसाल बन चुकी है । अपने सँडाघ भरे भविष्य की सिहरन और प्रतिदिन टोकरी और खपची लेकर घर-घर जाकर कमाऊ पाखाने से गंदगी निकालकर टोकरी में रखना, उस पर राख छिड़कना, पुनः टोकरी को माथे पर उठाकर गाँव से बाहर दूर जाकर फेंक आना ही उनकी दिनचर्या है । लालीबाई ने पारिवारिक दबाब में इस अमानवीय कार्य को आजीविका तो बना लिया, परन्तु हमेशा इससे छुटकारा पाने का रास्ता ढुँढ़ने लगी । उसने मन बना लिया था कि इसे जिंदगी नहीं बनाना है, नहीं तो बच्चों को उससे मुक्ति नहीं मिलेगी । जब मुक्ति की छटपटाहट हो तो वह स्वतंः विद्गोह के स्वरूप में परिणत हो जाता है । लालीबाई ने गंदगी उठाने का टोकरा जलाकर घोषणा कर दिया कि वह अब इस जलालत भरी जिंदगी से मुक्त हुई । इसके साथ ही उसने समाज की अन्य महिलाओं को भी इसके लिए प्रेरित किया, जिसका समाज में त्वरित असर हुआ । इस असर पर प्रतिक्रिया स्वरूप लालीबाई को खामियाज भी भुगतना पड़ा । अब वह गाँव-गाँव जाकर सालों से चले आ रहे इस घृणित अमानवीय कार्य से मुक्ति हेतु समाज को अलख जगा रही है । लाली के अनुसार इस पेशे और उसे कायम रखने की प्रक्रिया के लिए पंचायत और सरकार पर दोषारोपण करती है । लाली का कहन है कि “ हमारे समाज में लोग जागेंगे कैसे, बच्चों को स्कूल में दाखिला ही नहीं दिया जाता है क्योंकि वे अछूत हैं तो उसे दूसरे बच्चों से अलग बिठाया जाता है । शिक्षक भी उसके साथ छूआछूत बरतते हैं । पटवारी, मुखिया, सरकार सब कुछ जानने के बावजूद चुप रहना बेहतर समझती हैं । देश के लगभग सभी हिस्सों में करीब-करीब दलितों, वंचितों, शोषितों के द्घारा दिए गए विभिन्न बयानों से जाहिर होता है वे समाज और व्यवस्था की नाइंसाफी के मारे हैं । मध्यप्रदेश के देवास जिले की किरण, टीकमगढ़ की गैनाबाई बिहार के मिथिलांचल की अमेरिका देवी एवं तिलिया देवी गरिमापूर्ण जिंदगी जीने के लिए संघर्ष एवं व्यवस्था के प्रति विद्गोह अनवरत रूप से जारी किए हुई हैं । उनकी अपेक्षा है कि सरकार उसे इज्जत के काम से जोड़े । “ आँगनबाड़ी ” एवं “ मध्याह्र भोजन” जैसी योजनाओं में भोजन पकाने जैसी कार्य करने की वे इच्छुक हैं । उनका कहना है कि राजनीतिक रसूख रखनेवाले एवं वर्चस्व रखनेवाले लोग उनके हिस्से पर अपना कब्जा कर लेते हैं । जाति आधारित भेदभाव से व्यथित एक दलित महिला के टिप्पणी काबिलेगौर है- “ हमें भी पाने लेने से पहले सवर्णों के हाथों छुए नल को धो लेना चाहिए । हम जब तक ऎसा नहीं करेंगे यह भेदभाव नहीं मिटनेवाला । " वास्तव में दलितों के साथ-साथ भेदभाव आज भी कायम है । बच्चों को शिक्षकों द्घारा जातिसूचक शब्दों से पुकारा जाता है । दलित बच्चों के साथ विद्यालयों में सौतेला व्यवहार किया जाता है । विद्यालय ऎसे भी उदाहरण मिल जाएंगे जहॉ विद्यालय के मध्याह, भोजन के उपरांत दलित बच्चों को अपनी थालियाँ नहीं धुलवाई जाती । विद्यालयों में साफ-सफाई और पानी रखने की व्यवस्था की जिम्मेदारी भी शिक्षक दलित बच्चों को ही करना होता है । कुछ लोग जिंदगी को जीना सीख लेते हैं और समाज की समस्याओं को अपना मान लेते हैं । समस्याओं से जूझने के फलस्वरूप वे निर्णय ले लेते हैं - “ संगठित होकर व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी करने की " आंतरिक सच्चाई यह है ग्राम पंचायत में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण के बाद भी गाँवों में स्थिति नहीं बदली है । हर जगह भ्रष्ट्राचार, रोजगार, गारंटी योजना के अंतर्गत काम न मिल पाना, काम मिला भी तो समय पर मजबूरी न मिल पाना आम बात हैं । कहीं-कहीं सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत विस्थापित हुए समुदायों का दर्द भी एक जैसा ही हैं । भूमिहीन बेघर और संस्कृतिविहीन जिंदगी का अभिप्राय क्या है ? इन्हें बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर देना एवं आजीविका उपलब्ध नहीं कराना क्या न्यायोचित है ? संघर्ष और लड़ने की जिद के साथ-साथ इनको अपने समज। पारिवारिक माहौल एवं पितृसत्रात्मक समाज, गैरबराबरी एवं अनेक कुरीतियों से एक साथ जूझना पड़ रहा हैं ।
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