Thursday, July 9, 2009

जनसरोकार हेतु जनजागृति एवं क्रांति की आवश्यकता

अक्सर लोग जो बताने को तैयार रहते हैं वह प्रोपेगैंडा होता है, खबर खामोशी तोड़कर निकालनी होती है । मीडिया के भीड़ में ज्यादातर प्रोपेगैंडा वाली खबरों की ही भरमार होती है जिसको एक सजग पाठक बहुत ही हल्के अंदाज में लेता है । कभी भी इस तरह की खबरों से जनसरोकार का हल, जनजागृति एवं क्रांति नहीं लाई जा सकती है । समय दर्पण का प्रयास है कि एक बेवसाइट www.samaydarpan.com पर उसे उसकी पसंद और मतलब की खबरों को चयन करके पढ़ने का विस्तृत आयाम दे सकें । मैं एसोचैम के पूर्व अध्यक्ष काशीनाथ मेमानी के संपूर्ण वक्‍तव्य को आप तक हुबहू प्रस्तुत कर रहा हूँ । उनके अनुसार : - सबसे बड़ा मुद्दा बेहतर शासन का है । यानी गुड गवर्नेंस । इसलिए क्योंकि यह छोटी बड़ी पार्टियों और उनके निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर देश और देशवासियों के हितों से जुड़ा है । देश में भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है । इसके चलते शासन की हर सीढ़ी पर गिरावट, गैर जिम्मेदारी और जवाबदेही की कमी है । हम बात तो चांद पर जाने की करते हैं, मगर गांव की हालत ठीक नहीं कर पा रहे । शहरों को सुधारने की बातें करते हैं, जबकि न तो गांव में पानी मिल रहा है और न शहर में । यह सब भ्रष्टाचार के चलते हो रहा है । इसकी वजह से ही देश में संस्थागत विनाश हो रहा है । सारी विकृतियां इसी वजह से आ रही हैं । हो यह रहा है कि लोकतंत्र को ईमानदारी और प्रभावशाली तरीके से चलाने के लिए जितने भी संस्थाओं की जरूरत होती है वहां भ्रष्टाचार है । बहुत से ऐसे संस्थान हैं जो राजनीति के प्रभाव में हैं । हमें, चाहिए कि चाहे वो चुनाव आयोग हो, न्यायपालिका हो, रिजर्व बैंक हो या फिर सेबी जैसा संस्थान हो, ये सब राजनीतिक प्रभाव से बरी होने चाहिए । प्रभावशाली राजनीतिक पार्टियां और सरकारें इन संस्थानों में ‘अपने आदमी’ बैठाती है । लोकतंत्र के लिए यह वृत्ति घातक है । मुझे लगता है कि आज का एक बड़ा मुद्दा राजनीति में युवाओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी भी है । इसलिए कि वे ही बदलाव ला सकते हैं । देश का नेतृत्व ५० साल से, बल्कि ४० साल से कम युवाओं के हाथ होना चाहिए । पश्‍चिमी देशों में इसकी मिसालें देखी जा सकती हैं । मुद्दा सांप्रदायिक एकता का भी है । आज की राजनीति लोगों को बांट रही है । उनमें जाति, धर्म और समुदाय के नाम पर भेद पैदा कर रही है । लोगों के बीच अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की दीवार खींची जा रही है । आपस की एकता एक बड़ा मसला है । जातियों में बंटकर हम कभी विकास नहीं कर सकते क्योंकि असल विकास वही है जो देश के हर नागरिक तक पहुंचे, बगैर जातिगत भेदभाव के । मेरा मानना है कि पैसों की बर्बादी भी चुनाव का एक मुद्दा बनना चाहिए । सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जिनसे लोग कर की चोरी से बचें, दो नंबर के पैसे के फेर में न पड़ें और जो पैसा विकास योजनाओं में देरी और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है वह देश की जनता के काम आए । सरकार अगर इस मुद्दे पर ईमानदारी से काम करे तो उद्योग जगत को भी अपने कदम बढ़ाने चाहिए । ” स्विट्‌जरलैंड और कुछ दूसरे देशों में जमा भारतीयों के काले धन को वापस लाने का मुद्दा जोर पकड़ता जा रहा है । यह मुद्दा पहले भी जब-तक उठता रहा लेकिन बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पीएम इन वेटिंग माने जा रहे लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव के वक्‍त इसे उठाकर इसके इर्द-गिर्द की राजनीति को और तेज कर दिया है । अब सवाल यह उठता है कि क्या विदेश में जमा काले धन को स्वदेश लाया जा सकता है ? क्या बीजेपी जितना दावा कर रही है उतनी राशि इन बैंकों में जमा है ? आखिर इस रकम की जानकारी पार्टी को कैसे हासिल हुई या फिर यह वोटरों को लुभाने के लिए महज चुनावी स्टंट है । आडवाणी इस काले धन को वापस लाने के प्रति पूरी दृढ़ता जता रहे हैं । लेकिन इस संबंध में बीजेपी की कोशिश अधूरी ही जान पड़ती है । विदेशी बैंकों में भारतीयों का कितना काला धन है, इस बारे में पार्टी के पास कोई पुख्ता जानकारी नहीं है । पार्टी का कहना है कि स्विट्‌जरलैंड और कुछ अन्य देशों में भारत के लोगों को ७० लाख करोड़ रूपये से ज्यादा जमा है । अब सवाल यह उठता है कि इतनी सटीक जानकारी पार्टी को कहां से मिली । स्विट्‌जरलैंड के बैंक इस बारे में गोपनीयता की कड़े मानकों का पालन करते हैं । कोई भी बैंक आपको यह नहीं बताने जा रहा है कि उसके पास भारत के लोगों का कितना पैसा जमा है । फिर यह आंकड़ा किस आधार पर पेश किया जा रहा है । अगर संभावित एनडीए या बीजेपी सरकार इस धन को लाना चाहेगी तो इसके लिए उसे स्विट्‌जरलैंड और ऐसे दूसरे देशों से खास समझौता करना पड़ेगा । क्या ऐसा समझौता संभव होगा । सरकार को उन लोगों के खिलाफ एफ‍आईआर दर्ज करानी होगी, जिनके खिलाफ काला धन जमा करने का सबूत होगा । लेकिन यह सबूत जुटाना टेढ़ी खीर साबित होगा । इस तरह यह बेहद जटिल और दुरूह प्रक्रिया साबित होगी । आडवाणी एक अनुभवी राजनेता हैं फिर भी वह इस मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं । इससे साफ जाहिर है कहीं न कहीं वह इस मुद्दे का चुनावी लाभ लेना चाहते हैं । एक समय में यह वामपंथी पार्टियों का प्रिय मुद्दा हुआ करता था लेकिन उन्हें भी इसकी व्यर्थता समझ में आ गई होगी । अब उनकी ओर से यह मुद्दा नहीं उठाया जाता । लेकिन अपने आधे-अधूरे प्रयास के साथ बीजेपी ने यह मुद्दा उठाकर एक गंभीर मामले को चुनावी स्टंटबाजी का विषय बना दिया है । प्रसिद्ध वकील राम जेठमलानी और कुछ अन्य गणमान्य लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस काले धन को वापस लाने की मांग की है मगर उन्हें भी इस अभियान का हश्र पता है । इसलिए चुनाव के समय में ऐसे मुद्दों को उठाकर इनकी गंभीरता खत्म न की जाए तो अच्छा है । भारत की आम जनता वैश्‍विक आर्थिक मंदी को खत्म करने हेतु विदेशों में जमा काले धन को लाने का महत्वपूर्ण कार्यभार नई सरकार को सौंपेगी । उम्मीद है कि नई सरकार इसको अपने प्राथमिकता सूची में अवश्य डालेगी ।

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