Wednesday, July 1, 2009

नरेगा की सफलता पर दो पक्ष

बिहार और उत्तरप्रदेश से आने वाली ट्रेनों का इन दिनों पंजाब के स्टेशनों पर जोरदार स्वागत हो रहा है । यह स्वागत यहां के बड़े किसानों को खेतिहार मजदूर देने वाली कमेटियां कर रही हैं । जहां एक ओर पंजाब में खेतो में काम करने वालों की मजदूरी में जोरदार उछाल आया है । वहीं अब प्रवासी मजदूरों को खेतों में काम करने के बदले वॉटर कूलर दिए जाने की पेशकश की जा रही है । ये घटनाएं इस हकीकत की तस्वीर सामने रखती हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) को बेहतर तरीके से लागू किया गया है । इन दोनों राज्यों से आने वाले मजदूर अब पंजाब आने की बजाय अपने यहां मजदूरी को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं, जिससे पंजाब में मजदूरों की किल्लत पैदा हो गई । पंजाब के बड़े किसान इस समय अपने खेतों में धान की रोपाई के लिए मजदूरों की तलाश में दिन-रात एक कर रहे हैं । आमतौर पर धान की रोपाई जून के पहले हफ्ते से शुरू हो जाती है और इसके लिए अकेले पंजाब में ७ लाख मजदूरों की जरूरत होगी । जहां पिछले सालों में यहां बड़ी तादाद में मजदूर काम की तलाश में आया करते थे, लेकिन इस साल नरेगा के चलते मजदूर अपने गांव के आसपास के इलाकों में ही काम कर रहे हैं । इसके अलावा सिख संगठनों द्वारा प्रवासी मजदूरों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान भी यहां किल्लत का एक बड़ा कारण है । पंजाब के कृषि निदेशक बी एस सिद्धू का कहना है कि किसी भी फसल के लिए खाद की तरह मजदूर भी उसका अहम हिस्सा हैं । उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों से पंजाब के बड़े किसानों को मजदूरों की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है । उन्होंने बताया कि वर्ष २००८-०९ में मजदूरों की काफी किल्लत हुई थी और इस साल भी इनकी कमी रहने का अनुमान है । मजदूरों को काम करने के लिए आकर्षित करने के लिए जहां एक ओर उनकी मजदूरी को दोगुना कर दिया गया है, वहीं उन्हें वॉटर कूलर के साथ अतिरिक्‍त भत्ता देने की बात भी की जा रही है । पंजाब फार्मर्स कमीशन के एडवाइजर डॉक्टर पी एस रांगी ने बताया, ‘आमतौर पर मजदूर समूहों में आते हैं, जिनका एक नेता होता है और उसे प्रति हेक्टेयर ३,७००-४,००० रूपए दिए जाते हैं । इसके अलावा मजदूरों को चाय, दूध, शराब, जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराई जाती हैं । ’ लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्‍वविद्यालय के अध्ययन के मुताबिक, राज्य में ९० फीसदी धान की फसल की रोपाई बिहार और उत्तरप्रदेश के मजदूरों द्वारा की जाती है । स्टेट फार्मर्स कमीशन के चेयरमैन डॉक्टर जी एस कलकट ने बताया कि मजदूरों से जुड़ी समस्या काफी गंभीर है । उन्होंने कहा कि इस संकट का एक सकारात्मक पक्ष यही होगा कि ऐसे में पंजाबियों को प्रवासी मजदूरों पर निर्भर रहने के बजाय खुद काम करना होगा । फतेहगढ़ साहिब जिले के नंदपुर कालन में रहने वाले सज्जन सिंह का कहना है कि पंजाबियों ने अब अपना काम खुद ही करने का फैसला किया है । चंडीगढ़ में टैक्सियां चलवाने का काम करने वाले सज्जन अब अपने यहां अतिरिक्‍त ड्राइवर रखने की योजना बना रहे हैं, ताकि धान की रोपाई के सीजन में वह गांव जाकर काम कर सकें । कई किसानों ने तो मजदूरों की तलाश करने के बजाय या तो अपनी जमीन बेचना शुरू कर दिया है या फिर खेती को ठेके पर देने का फैसला किया है । पंजाब के पुरूषोत्तम गिल उन्हीं किसानों की सूची में शुमार हैं । नरेगा की हकीकत आंकड़ों से कोसों दूर संप्रग गठबंधन सरकार की एक महत्वकांक्षी योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (नरेगा) योजना बिहार में बहुत ज्यादा सफल होती नहीं दिखाई देती हैं । यहां सरकारी आंकड़ों की कलाबाजी आपको यह जरूर आश्‍वस्त कर सकती है कि सुदूर गांव के मजदूरों को इसका फायदा हो रहा है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है । इस बात से केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह भी इनकार नहीं करते हैं । उनका कहना है, ‘केंद्र ने बिहार के २३ जिलों में नरेगा को लागू करने की बात कही, लेकिन राज्य सरकार ने इसे एक साथ ३८ जिलों में लागू कर दिया । इसका खामियाजा यह हुआ कि अफसरशाही को छूट मिली है और ठीक तरह से जॉब कार्ड बांटने का काम तक नहीं पूरा किया गया । यहां के हर जिलें में १०० करोड़ रूपये इस योजना के तहत खर्च होने चाहिए लेकिन आंकड़ा १०-१२ करोड़ रूपये के बीच में ही बना हुआ है ।’ वहीं बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री नरेगा की सफलता के बारे में कहते हैं, ‘इस साल फरवरी तक १.०१ करोड़ लोगों से ज्यादा को जॉब कार्ड दिया गया लेकिन ३३,२०,९१६ लोगों को काम मुहैया कराया गया । ’ उनका कहना है कि केंद्र से दी गई राशि का ६४ फीसदी फरवरी तक खर्च की गई । हालांकि उनका दावा है की मार्च तक कुल व्यय ८३ फीसदी तक संभावित है । जमीनी दास्तां नरेगा पर शोध करने वाली ऋतिका खेरा का कहना है, ‘बिहार में नरेगा के तहत बहुत कम काम शुरू हुआ है । कई जगह ग्रामीणों का आवेदन नहीं लिया जा रहा है तो कहीं पैसा राज्य से जिले तक बहुत देर से पहुंचता है और अक्सर पूरी तरह से खर्च भी नहीं होता है और जागरूकता का अभाव भी है । मस्टर रोल पर हमने कई झूठे नाम और झूठी हाजिरी देखी है । ’ गौरतलब है कि इस योजना के लिए बिहार के लिए कुल फंड २०४१.४७ करोड़ रूपये दिए गए जिसमें से १३०५.८१ करोड़ रूपये खर्च किए गए । इसके अलावा नरेगा के तहत कुल १०४३३९ योजनाओं पर काम किया जाना था । फिलहाल स्थिति यह है कि इसमें से ५२४५६ काम ही पूरे हुए हैं । बिहार की महिलाओं की भागीदारी भी इस योजना में ३०.०९ फीसदी ही है । नरेगा के लिए जनजागरण अभियान के तहत अररिया और कैमूर जिले में काम करने वाली कामायनी का कहना है कि इन दोनों जिलों में एक सर्वे कराया गया जिसके मुताबिक महज २ फीसदी लोगों को ही १०० दिनों काम मिला था । इसके अलावा वर्ष २००७-०८ में नरेगा के तहत ग्रामीण घरों को ७ दिन का रोजगार मिला जबकि राजस्थान में ६८ दिन का रोजगार मिला । कामायनी कहती है, ‘बिहार में नरेगा में कई स्तर पर समस्याएं हैं । अररिया जिले में बहुत ज्यादा पलायन सी स्थिति है । वहां के लोगों का कहना है कि अगर मौका मिले तो हम पूरे साल काम करने के लिए तैयार हैं और हमें हर साल अपना घर छोड़कर काम की तलाश में दूसरे राज्य नहीं जाना पड़ेगा । बिहार में नरेगा के तहत औसतन २२ दिनों का जबकि राजस्थान में औसतन ७३ दिनों का काम सृजन हुआ । ’ कामायनी ने अररिया और कैमूर जिले में काम करते हुए पाया कि वहां लोगों को काम के एवज में ४०-६० रूपये तक मिलता था । जबकि वैध रूप से ८९ रूपये तक का भुगतान करना है । बिहार के कैमूर जिले में ठेकेदारों और स्थानीय दबंग लोगों का वर्चस्व भी साफ दिखाई देता है । एक पहलू यह भी नरेगा के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में सौ दिन रोजगार की गारंटी दी जाती है । दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से जुड़े रहे प्रख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रीज के दिमाग की उपज यह नायाब योजना पूरे देश में चल रही है । लेकिन बिहार में कई जगह पर इस पर भ्रष्टाचार की काली छाया मंडरा रही है । मित्र ने वैशाली, सीतामढ़ी समेत आसपास के कई जिलों का दौरा कर वहां नरेगा की हालत का जायजा लिया । नरेगा में एक दिन की मजदूरी ८२ रूपये बनती है लेकिन कई इलाकों में लोगों को सिर्फ २० रूपये मिल रहे थे । इस कारस्तानी में गांव का मुखिया अहम भूमिका निभा रहा था । नौकरशाही और स्थानीय निकाय यानि पंचायत के प्रतिनिधियों के गठजोड़ ने वहां भ्रष्टाचार का नया खेल शुरू कर दिया है ।नरेगा के तहत लोगों को एक कार्ड दिया जाता है, जिसमें उनके काम के दिन दर्ज होते हैं । कई इलाकों में इन कार्डों पर यह नदारद था । कुछ इलाकों में दबंग जातियों के मुखियाओं ने दलितों को इस रोजगार योजना में शामिल ही नहीं होने दिया । इस तरह शहरों की ओर पलायन रोकने की अच्छी योजना का कबाड़ा होता दिख रहा था । नरेगा को लेकर राजनीति भी खूब हुई । ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपने प्रभाव वाले कुछ जिलों को नरेगा के लिए पहले ही चुन लिया । फिर भला मुख्यमंत्री नीतिश कुमार कहां पीछे रहने वाले थे । उन्होंने अपनी प्राथमिकता वाले जिलों में राज्य के फंड से यह योजना शुरू कर दी । रघुवंश प्रसाद सिंह से मुखियाओं की ओर से फर्जी नरेगा कार्ड बनाकर अपने पास रखने और भुगतान लेने की शिकायत की गई । इस पर उन्होंने कहा कि नरेगा में काम करने वालों के नाम से बैंक में खाते खोले जाएंगे और मजदूरी के पैसे इसी में जमा होंगे? लेकिन ये खाते आज तक खुल नहीं पाए हैं ।

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