Wednesday, July 15, 2009

मेरी जम्मू यात्रा बनाम शिमला यात्रा

कंपनी के सी० ई० ओ० के निर्देशानुसार मुझे जम्मू जाना था । इंटरानेट पर IRCTC के बेवसाईट सर्च करने पर निराशा मिली क्योंकि अगले महीने तक सभी ट्रेनों में सीटें तो फुल थी ही वेटिंग लिस्ट में १५० के करीब यात्री थे । ऐसी परिस्थिति में सामान्य दर्जे में यात्रा करने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था । कुछ दोस्तों एवं रिश्तेदारों ने सावधान रहने और अन्य नसीहतों के साथ यात्रा करने का सलाह दिया । मैने सोचा यदि मरना होगा तो मुझे कोई बचा नहीं सकता । और यदि जीवन शेष होगा तो मुझे कोई मार नहीं सकता । वैसे भी ज्योतिषियों ने मेरी जीवन रेखा और भाग्य रेखा लंबी बताई है । खैर यात्रा प्रारंभ हुई । ट्रेन खुलने पर मैने अपने बॉस को सूचित कर दिया कि अब में दिल्ली को छोड़ चुका हूँ और अपने गन्तव्य पथ की ओर प्रस्थान कर चुका हूँ । संयोग से जिस बोगी में मै घुसा वह मिलिट्री बोगी था । मिलिट्री के लोग अन्य यात्रियों के अलावे किसी को घुसने नहीं दे रहे थे । मुझे इस डब्बे में घुसने हेतु उसी यात्री ने सहयोग किया जिससे मै नई दिल्ली जं० प्लेटफॉम पर सेना के मुद्‍दे पर लंबी बातचीत की थी । उस सेनाकर्मी की ड्‌यूटी श्रीनगर में था और भरतपुर (राजस्थान) का निवासी था । मैने उसके साथ गुर्जर आंदोलन, सेना में भ्रष्टाचार, आवश्कताएं एवं विवशता के साथ-साथ कई गंभीर मुद्‌दों पर बातचीत की । आमने-सामने के कई सैन्यकर्मी इस बातचीत का मजा लेते रहे और शायद प्रभावित भी हुए । अंत में मैंने कहा कि खादी, पुलिस की वर्दी, डाक्टर और वकील के पोशाकों से ज्यादा बेदाग सेना की वर्दी है । सर्वेक्षण के अनुसार आम लोगों का सेना पर भरोसा जयादा है । मुझे उन यात्रियों ने श्रीनगर में खासकर लालचौक में आतंकियों बेखौफ रहने के बारे मे बताया । साथ ही यह भी कहा कि वहाँ के स्थानीय लोग पुलिस सेना के मुकाबले आतंकियों का साथ देना ज्यादा पसंद करते है । दूसरे दिन सुबह ७ बजे जम्मू पहुँचा । पता सही नहीं मिल पाने के कारण दो-तीन जगह भटकना पड़ा । दर‍असल जिस अमर कुमार नामक क्लाइंट के पास जाना था, उसके पता मे सब्जी मंड़ी लिखा था और वहाँ चार-पाँच सब्जी मंडी थी । खैर जैसे-तैसे हनुमानजीका नाम लेकर मैं सही पते पर पहुँच गया । मैने अमर कुमार के संस्थान “जय बालाजी कंप्यूटर इंस्टीच्यूट” पर उनके भाई सुभाष गिल से भी बातचीत की । मैने अपने आगमन का उदेदश्य बताकर उनकी जिज्ञासाओं से संबधित प्रश्न पूछे और क्रमवार उत्तर दिया । शायद वे दोनो भाई मेरी उत्तर से संतुष्ट दिखे और अगले माह से एक्टिवली कार्य करने का वचन दिया । आवश्यक डोक्यूमेंट्‌स और स्टीकर वगैरह देने के बाद मैंने वहाँ के दर्शनीय स्थनों के बारे में जानकारी ली । मैं अमर कुमार के बड़े भई सुभाष घई के बाईक पर आंतकी निशाने पर रहे रद्युनाथ मंदिर पर गया । क्लॉक रूम मेम पेन, मोबाइल, पर्स वगैरह जम कर देने के बाद फूल व प्रसाद लेकर मंदिर में प्रवेश किया । अंदर घुसते ही पंडितों की मनमानी और रंगदारी देखी । जबरन सौ से ऊपर के नोट चढ़ाने के लिए ये कर्मकांडी दर्शनार्थियों से किस तरह शोषण करते थे । मैने किसी पंडित को एक रूपया भी नही देने का प्रण किया । टूस्ट के काउंटर पर जाकर मैंने दो प्रसाद के पैकेट ली और रसीद प्राप्त किया । वास्तव मे जो दान बॉक्स में या काउंटर में जाता है वही सरकार को प्राप्त होता है । पंड़ितों के पास चढ़ाए गए रकम तो उनके पॉकेट में चला जाता है । बाहर आकर बाजार में मैने एक किलो अखरोट सौगात हेतु खरीदा । महसूस हुआ कि कश्मीर का अपना कुछ भी नहीं बल्कि दिल्ली से अयातित सारे सामाग्रियों की ब्रिकी की जा रही है । सारे दुकानदार झूठ का सहारा लेकर पर्यटकों को दोनों हाथों से लूट रहे हैं । ऐसा लूट तो मैने दिल्ली में भी नही देखा । कुछ महिलाओं ने अपनी लूट की व्यथा C.R.P.F के जवानों को बता रही थी । कुल मिलाकर मुझे पूरे जम्मू में सरकार की विवशता और निरंकुशता दिखी । पर्यटकों के दिल में जम्मू कश्मीर के प्रति क्या संदेश जाएगा , इसकी परवाह किसी को नहीं । जिस दिन मैं अमर कुमार के संस्थान पर गया तो पता चला कि वे आज ही पिता भी बने है । मैने उनके नवजात शिशु के लिए कंपनी की ओर से वस्त्र सौंपा और अपने C.E.O की ओर से शुभकामना भी दिया । उनसे विदा लएकर मैं जम्मू कश्मीर श्राईन बोर्ड द्वारा संचालित वैण्णो धाम के काउंटर पर रहने हेतु रूम के बारे में पूछताछ की । पता चला सभी रूम बुक है और सभी फ्लोर के फर्श की बुकिंग हो रही है । मरता क्या नहीं करता मैने तुरंत बुकिंग करा ली । रात्रि मे हमने वहाँ के कर्मचारी को १०० रू० देकर बुकिंग हुए अन्य रूम जिसके यात्री नहीं आए थे में शिफ्ट किया । वहाँ के काउंटर से हमने एक सीडी और पुस्तक भी खरीदी । सुबह फ्रेश होने के बाद जम्मू स्टेशन पहुँचा और पठानकोट (योगेश सैनी से मिलने हेतु) चक्‍की बैंक पहुँचा । योगेश सैनी से मिला । उसके मन की व्यथाओं से रूबरू हुआ मैने उसे जम्मू येलो पेजेज दिया और कहा कि इसमें दिए गए सभी कंप्यूटर इंस्टीच्यूट और साइबर कैफे पर मिजिट करो । मैने अपने व्यवसाय की आअंतरिक सच्चाईयाँ और नए टिप्स दिए । उसने मेरे बातचीत के स्टाईल को झा सर का ट्रू कॉपी कहा । उसने कहा आपसे बातचीत के बाद मुझे नई दिशा मिली है और मैं अगले सप्ताह से अपने कर्य हेतू सक्रिय हो जाऊँगा । उसके साथ मैने एक रेस्टोरेंट में कॉफी के साथ बातचीत किया क्योंकि उसके c/o वाले पते पर काफी असहजता मैं महसूस कर रहा था ।पुनः ऑटो से मै चक्‍की बैंक के लिए प्रस्थान कर गया । मैने मोबईल से झा सर को संपूर्ण स्थिति की जानकारी देते हुए अगले कार्यक्रम के बारे में पूछा उन्होंने वहीं से चंडीगढ जाने को कहा । मैने चंडीगढ की टिकट ली । ट्रेन मिला वाराणसी एक्सप्रेस । ट्रेन का नाम जेहन पर आते ही दिल किया कि चंडीगढ की यात्रा छोड़कर अपने साली साहिबा से मिलने वाराणासी इसी ट्रेन से चला जाऊँ । पुनः अपने कर्तव्यबोध का अहसास हुआ और अंदर प्रेरणा मिली कि मुझे चंडीगढ ही जा चाहिए। ऐसा लगा कि मेरा कर्तव्य मेरे दिल पर हावी हो चुका है । ट्रेन पैसेंजर था । भीड नही थी मैं निश्‍चित भाव से सो गया । नींद टूटी तो मैं अपने आप को कालका स्टेशन पर पाया । सारे यात्री उत्तर चुके थे । चंडीगढ को मैं काफी पहले छोड़ चुका था । मैं बीच मझधार मे था जहाँ से चंडीगढ और शिमला समान दूरी पर था । मै वेटिंग रूम मे प्रतीक्षा कर रहा था क्योंकि टिकट काउंटर बंद था । ढाई बजे रात्रि को काउंटर खुला । पता चला कि जिस ट्रेन से मुझे शिमला जाना था वह ११ बजे रात्रि से ही फुल हो चुकी थी । मैने शिमला के लिए टिकट ली । ट्रेन ठसाठस भड़ी थी । मैंने अटैजी को ही सीट बना लिया । (प्रस्तुत आलेख पिछली कंपनी के कार्यकाल का है)

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