Thursday, July 16, 2009

कई भागों में विभाजित है हमारा देश

हमारा देश कई भागों में विभाजित हो चुका है । हर जगह क्षेत्रवाद, भाषावाद, उग्रवाद, हिलारें मार रही है । किसी को यह समझने की फुरसत नहीं है कि भविष्य में इसका क्या असर होगा? आज अलगांववादी तथा विदेशी ताकतों ने देश के अंदर असंख्य गद्दारों एवं जयचंदों को पैदा कर दिया है । अल्पसंख्यक युवा वर्ग इनके निशाने पर हैं । इन्हें बगलाकर देश के खिलाफ इस्तेमाल करने की साजिश की जा रही है । अल्पसंख्यक एवं धर्मनिरपेक्षता पर काफी बहस हो चुकी है। देश के कई हिस्सों में अल्पसंख्यक अब बहुसंख्यक की श्रेणी में आ चुके हैं । धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता की जंग चल रही है । आतंकवाद से एक नया शब्द हिंदू आतंकवाद की उत्पत्ति हुई है । जो दल चुनाव में क्षेत्रीयता के खिलाफ भाषण देने का कार्य करती है उसी दल की सरकार द्वारा अखिल भारतीय भर्ती बोर्ड क्षेत्रीयता पर आधारित हो चुकी है । क्या किसी भी विभाग का अखिल भारतीय भर्ती बोर्ड जब क्षेत्रीयता पर आधारित होगी तो उसका अखिल भारतीय स्वरूप तथा देश के किसी भी नागरिक को कहीं भी रहने एवं नौकरी करने की आजादी का क्या होगा? महाराष्ट्र एवं असम में बिहारी लोगों की हत्या एवं दुर्व्यवहार इसी क्रम की एक कड़ी है । जनता की गाढी कमाई बेफिजूल एवं गैरविकास के मद में खर्च की जा रही है । उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती द्वारा करोड़ों अरबों की राशि मूत्तियों के अनावश्यक मद में खर्च किया जाता है । यूपी सरकार द्वारा २५ करोड़ भी राशि तो चाय-पानी के खर्च मद में किया गया तथा पीएम के बोकारो दौरे पर एक घंटे का खर्च लगभग दो करोड़ बन जाता है । सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करनेवाले सुरेन्द्र साव ने झारखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर सूचना का अधिकार कानून के रूप में विदेशों में जमा है तथा उसको वापस लाने के मुद्‌दे पर मात्र राजनीति ही हो रही है । आँकड़ों के बलबूते झूठी वाहवाही एवं चर्चा बटोरने वाले लाल यादव के रेल मंत्रित्व काल पर अब श्वेत पत्र लाने की ममता बनर्जी की बात पर सवालिया निशान क्यों खड़ा किया जा रहा है? साँच को आँच क्या, निष्पक्ष जाँ होने दीजिए दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा । वास्तव में चारा घोटाले जैसे कितने घोटालों की फाइलों पर धूल जम रही है । लिब्रहान आयोग के फैसले की देख लीजिए । त्वरित न्याय यदि जनता को नहीं मिल पाए तो न्याय का क्या मतलब रह जाता है? विस्थापित कश्मीरियों की वापसी पर मात्र ०.५% खर्च किया जाता है । दूसरी ओर कैग ने संसद में मार्च २००८ को समाप्त होने वाले वर्ष के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के वित्तीय अनियमितताएँ पकड़ी है । आखिर हम किस पर विश्‍वास करें? किसको दोषी तथा किसको निर्दोष मानें? गहराई से देखे तो सतापक्ष ही नहींविपक्ष भी कम नहीं है । उसके सांसद घूस लेकर प्रश्न पूछ रहे है? अब आडवाणी जी इसे कॉरपोरेट जंग का परिणाम मानते हैं । कारण जो भी हो आखिर ऐसे हालात के लिए जिम्मेदारी कौन लेगा? कौन इन समस्याओं का समाधान हल कर पाएगा / कौन इन समाधानों को अमली जामा पहनाएगा ? विदेशी पाश्‍चात्य संस्कृति ने हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की चूलें हिला दी है । टीवी एवं इंटरनेट की संस्कृति ने हमें पाशविक जीवन की ओर जाने का संकेत दे रही है । समलैंगिकता की आजादी एवं उसे अपराध के दायरे से बाहर रखने की माँग हो रही है । यदि लड़का-लड़का या लड़की-लड़की के जिंदगी भर साथ रहने अर्थात पति-पत्‍नी के तरह रहने की मान्यता मिल गया तो वह दिन दूर नहीं जब कुछ विक्षिप्त लोग पशुओ के साथ ठीक इसी तरह रहने की माँग कर बैठें । क्या वैसी स्थिति समाज या कानून को मान्य होगी? क्या हमारा सामाजिक ताना-बाना छिन्‍न-भिन्‍न नहीं हो जाएगा ? अफसरों एवं नेताओं की अंग्रेजी मानसिकता ने राष्ट्रभाषा हिंदी की महत्व को समझने के बजाय उसे उपेक्षित कर दिया है । शिक्षा में नैतिक शिक्षा को कोई मान्यता ही नहीं दी गई है । हम आज तक पाक समस्या का समाधान नहीं निकाल पाए हैं । हमारे राजनीतिक आकाओं में दृढ़ ईच्छाशक्‍ति का जबरदस्त अभाव है । वे नई स्थितियों के अनुकूल तथा नई तकनीकी अपनाने के बजाय पुराने परंपरा को ही ढो रहे हैं । क्या वाकई इसी से हम सर्वश्रेष्ठ बनने का मंसूबा पूरा कर पाऐंगे ? वास्तव में हमारे देश को आज एक हिटलर की जरूरत है जो सारी समस्याओं की जड़ों में समाधान रूपी भट्ठा डालकर जड़ मूल से विषमताओं एवं भ्रष्टाचार के स्त्रोतों पर अंकुश लगा सके । वाकई यह कठिन है परन्तु असंभव नहीं । व्यवस्था में सड़क इतनी हो चुकी है कि उसका ऑपरेशन ही मात्र विकल्प है । अभी तक छोटे-मोटे अलगांववादी गुट भारत के शासन पर आरोप लगाते रहे हैं तब भी भारत एक वैधानिक राष्ट्र के रूप में बरकरार रहा परन्तु अब तो हर राजनीतिक दल शासन और व्यवस्था पर प्रश्न उठा रहा है । अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यकवाद पर नुक्‍ताचीनी हर जगह होनी शुरू हो गई है । प्रश्न यह उठता है कि राजनीतिक दलों को ही यह व्यवस्था नाजायज लग रही है तो अलगांववादी कश्मीरी संगठनों नक्सलियोंजैसे अन्य संगठनों काक्या होगा ? हमारी गौरवशाली अतीत एवं उदार लोकतंत्र तथा सार्वजनिक तर्क के शिष्टाचार से युक्‍त समाज क्या ऐसी स्थिति में कायम रह सकता है? विभिन्‍न जाँव एजेंसियाँ अपने तमाम अनुभवों एवं सूचनाओं को सही और समय पर प्रस्तुत नहीं कर पाती है । जिससे असली, अपराधी मुक्‍त होकर पुनः नए अपराध की ओर उन्मुख हो जाता है । जिससे हम न्याय की उम्मीदें रखते हैं उससे विवाद हो जाने की स्थिति में आपसी दूरी बढ़ती जा रही है । वास्तव में हमलोग ऐसे खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं जहाँ भेदभाव तथा अलगाववाद ने एक तरफ खाई और दूसरी तरफ कुंआ जैसी स्थिति बना दी है । समाज विभक्‍त हो चुका है । हम हमारा समाज, बनाम तुम्हारा समाज के झगड़े में अपनी ऊर्जा को खत्म कर रहे हैं । इस स्थिति से हमें उबरना होगा । इन स्थितियों को कैसे नियंत्रित की जाय? कुछ लोगोंका मत है कि कानून को अपना काम करने देना चाहिये ऐसे संस्थान बनाए जाएँ जो किसी धार्मिक भेदभाव के बिना काम कर सके, राजनीतिक दलों को चुप रहना चाहिए इत्यादि । मुश्किल यह है कि उपरोक्‍त बातें अपना अर्थ खो बैठी है । पुरानी गलतियों के दुष्परिणाम हमें आज भोगने पड़ रहे हैं । पूर्वाग्रह से ग्रस्त हमारी मानसिकता को आशा तो दिखाई ही नहीं पड़ती । समस्याओं पर चर्चा तथा समाधान प्रस्तुत करना आसान है परन्तु उसे लागू करने का साहस आज कितने लोग दिखा रहे है? संक्कट के शीर्ष में आ जाने जैसी विकट परिस्थिति का सामना केवल मानसिकता में परिवर्त्तन एवं वैचारिक क्रांति के द्वारा ही संभव हो सकेगा ।

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