Thursday, July 9, 2009

मनुस्मृति में वर्णित ब्राह्यण और शूद्र : वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी प्रासंगिकता

धर्म वस्तुतः व्यक्‍तिगत आस्था की चीज है । उसे सामाजिक बनाना, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता दोनों के लिए खतरनाक है । प्रस्तुत आलेख विश्‍व की प्राचीनतम न्यायिक और सामाजिक व्यवस्था के मूलस्त्रोत “मनुस्मृति” से संदर्भित है । भारतीय संविधान और हमारी सामाजिक व्यवस्था आज भी इसी पर आधारित है । कहा जाता है कि इसका निर्माण ब्रह्म ने किया । मनु को पढ़ाया और तब मनु ने इसका ज्ञान भृगु को दिया । महर्षि भृगु ने इसे अन्यान्य ऋषियों को बतलाया । इस प्रकार संस्कृत साहित्य की यह कृति सामने आयी । मनुस्मृति की प्रासंगिकता और आज के सामाजिक न्यायिक संदर्भो में दिए गए मत-निर्णय को प्रस्तुत की गई है । मनुस्मृति में ब्राह्यणों को सर्वश्रेष्ठ बनाने की साजिश जिस तरह इतिहासकारों एवं धर्मग्रंथों के रचनाकारों ने की वह कलई अब पूरी तरह खुल चुकी है । वर्तमान में इस पैमाने के अनुसार उस तरह के ब्राह्यण ढूँढने से भी नहीं मिलेंगे । अब सवाल यह उठता है कि जब वैसे ब्राह्यण ही नहीं तब उनके प्रति वैसा व्यवहार क्यों ? आज की परिभाषा के अनुसार जो ज्ञानी हो, कुशाग्र हो, बुद्धिमान हो तथा दूसरों का हितैषी हो वही सर्वश्रेष्ठ है, वही ब्रह्यण है । जाति से ब्राह्यण और आचरण से नीच को नीच तथा दुरात्मा ही कहा जाएगा । अतः अच्छे कर्म व उत्तम आचरण और सद्‌व्यवहार को प्रशंसा मिलनी चाहिए तथा इसके पालकों को ऊँची कुर्सी मिलनी चाहिए । घोर प्रतिस्पर्धा के इस युग में हमें अच्छी व उच्च शिक्षा और सद्‌आचरण की शक्‍ति हासिल करनी होगी । हमें अपनी उपयोगिता और महत्ता साबित करनी होगी । फिर कोई ब्राह्यण भी हमें नहीं पछाड़ सकता । हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों की ओर तथाकथित हिंदू नेताओं का ध्यान नहीं जाता । उसे दूर करने के प्रयास नहीं होते, जिसके कारण नीच और शूद्र कहे जानेवाले वर्ग अगर धर्मान्तरण करते हैं तो इसमें क्या बुराई है ? हिंदुओं की घटती संख्या और इस्लाम धर्मावलंबियों, इसाईयों और बौद्धों की बढ़ती तादाद हमें आत्मचिंतन के लिए मजबूर करती है कि हम भी अल्पसंख्यक न हो जायं । जब तक उपेक्षितों को सम्मान व बराबरी का दर्जा नहीं मिलेगा तब तक धर्मान्तरण नहीं रुक सकता । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्‍व हिन्दू परिषद या उन सभी हिंदू संगठनों व धर्मगुरूओं को आज आत्ममंथन कर अपने नीतियों में समय की माँग के अनुसार वास्तविक बदलाव लाने की जरूरत है । इसके बिना समरस समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है । वास्तव में मनु द्वारा बनाई गई जाति व्यवस्था में गुण तो गौण हैं परन्तु उनमें दोष ही नजर आता है । जिसका परिणाम आज छूआछूत, सामंतवादी विचारधारा और ब्राह्यणों के वर्चस्व जमाने हेतु एकाधिकार कायम करने के रूप में सामने आ रहा है । उनकी परिभाषा के अनुसार शूद्र (जिनमें खटीक, चमार, दुसाध, मुसहर, डोम, मेहतर, पासी आदि भी आते हैं) भारत देश के वासी हैं और इन्हें भी अपना समवेत स्वर उठाने का लोकतंत्र में समान अधिकार है । आजाद देश के नागरिक की हैसियत से अपने अधिकार की चेतना जगाए रखने की चेष्टा उन ईसाई मिशनारियों ने ही की है, जिन्होंने इन्हें इसाईधर्मी बनाने के सिलसिले में इन्हें सभ्य और सुसंस्कृत भी बनाया । इन्हें सफलतापूर्वक जीने का पाठ पढ़ाया जिनलोगों की यह शिकायत है कि इसाई धर्म में इन्हें अंगीभूत करने की प्रक्रिया भारत की धरती में विदेशी बीजारोपण की साजिश का अंग है, उनसे पूछा जा सकता है कि इनके लिए “अनार्य” शब्द का प्रयोग कर इन्हें अपने से दूर रखने की मूर्खता किसने की ? अपनों को जाइयों में बाँटकर ये हिन्दू धर्माधीश इन्हें किस जाति के अन्तर्गत रखेंगे ? आपने इन्हें अंगीभूत करने के क्या प्रयास किए, जब भी यह सामने आयी इनका शोषण सामन्ती रूप ही आड़े आया । इस धर्मनिरपेक्ष देश में आस्था के बिंदु पर बौखलाहट वस्तुतः हमारी मानसिकता को ही बेपर्द करती है । फिर भी पूर्वी सीमाप्रान्तों में हो रही गतिविधियों का अध्ययन इसकी ओर संकेत जरूर करता है कि विदेशों से सहायता प्राप्त करनेवाली इन ईसाई मिशनरियों से कई असंतोष की आग जला विदेशी एजेन्ट होने के परिचय देती है । इधर कई हिन्दू धर्माधीशों के क्रियाकलापों का भंडाफोड़ यह कहाँ सिद्ध करता है कि हिन्दू होने के कारण देशद्रोह से ये विरत रहे हैं । जड़ की बात यह है कि इन बकवासों को छोड़ बहुधर्मी और बहुसंस्कृति वाले देश में हर नागरिक को समान अधिकार, स्तर और विकास के लिए समान अवसर पाने का हक है । जो पिछले दिनों से संयोजित रूप से सामाजिक और आर्थिक अन्याय के शिकार रहे हैं, इन्हें आजाद देश में शेष क्षेत्रों के समकक्ष स्थान पाए जाने का हक है । यदि इन बातों की अनदेखी करने की चेष्टा की गई तो विद्रोह की ज्वाला अवश्य धधकेगी । यह कार्य पूरे उत्तरदायित्व बोध के साथ सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को करना चाहिए । किन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ और असंतोष विभिन्‍न रूपों में मुखरित होने लगा । मनुस्मृति के अनुसार लोकवृद्धि के लिए महातेजस्वी ब्रह्म ने मुखबाहु, उरू और पैर से क्रमशः ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र की सृष्टि की । सतयुग, ब्राह्मण, त्रेता क्षत्रिय, द्वापर वैश्य और कलि को शूद्र कहा गया । वेद पढ़ाना, पढ़ना, यज्ञ कराना, करना, दान देना और लेना यह कर्म ब्राह्यणों के लिए बनाया गया है । प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, विषय में आसक्‍ति रखना इन कर्मों को क्षत्रियों के लिए बनाया गया है । पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना, खेती करने के लिए वैश्यों को बनाया गया है । ब्रह्म ने इन वर्णों की सेवा करना शूद्रों का प्रधान कर्म बताया है । ब्रह्म के मुख से उत्पन्‍न होने , ज्येष्ठ होने और वेद के धारण करने के कारण ब्रह्मण ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है । उस स्वयंभू ब्रह्म ने हव्य (देव भाग) तपस्या कर सर्वप्रथम ब्राह्मण को अपने मुख से उत्पन्‍न किया । जिस ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को, पितर कव्य को ग्रहण करते हैं, उस ब्राह्मण से अधिक श्रेष्ठ भला कौन प्राणी होगा ? भूतों में प्राणी श्रेष्ठ है, प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ है, बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण । ब्राह्मणों से भी विद्वान श्रेष्ठ है , विद्वानों में कृतबुद्धि (शास्त्रोक्‍त कर्तव्य में बुद्धि रखनेवाले) श्रेष्ठ है । कृतबुद्धियों मे ब्रह्मज्ञानी श्रेष्ठतम हैं । तीनों लोकों में कोई भी ब्रह्मज्ञानियों का पूज्य नहीं है । तपोविद्या विशेष से आपस में ही पूजते हैं । ब्रह्मज्ञानियों से बड़ा इस संसार में कुछ भी नहीं है । केवल ब्राह्मण की उत्पत्ति ही धर्म की नित्य देह है । धर्म के लिए उत्पन्‍न ब्राह्मण पृथ्वी पर श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि वह धर्म की रक्षा में समर्थ होता है । पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह सब कुछ ब्राह्मणों का है । ब्रह्मा के मुख से उत्पन्‍न तथा कुलीन होने के कारण यह सब ग्रहण करने का अधिकारी होता है । ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है, अपना ही दान करता है तथा दूसरे व्यक्‍ति ब्राह्मण की दया से सब भोग करते हैं । सर्वशास्त्रज्ञाता स्वयंभूपुत्र मनु ने उस ब्राह्मण तथा शेष वर्ण के कर्मज्ञान के लिए इस शास्त्र को बनाया है । विद्वान ब्राह्मण को यह धर्मशास्त्र यत्‍नपूर्वक तथा अधिकारी शिष्यों को यथायोग्य पढ़ाना चाहिए, अन्य कोई (क्षत्रियादि तीनों वर्ण) इस शास्त्र को न पढ़ाएँ । इस शास्त्र को पढ़ता हुआ, इसके अनुसार नित्य व्रतानुष्ठान करने वाला ब्राह्मण मानसिक, वाचिक और कायिक कर्मदोषों से लिप्त नहीं होता है । तीनों वेदों के अध्ययन के समान इस धर्मशास्त्र का अध्ययन है । ब्राह्यण को अवश्य ही इसका अध्ययन करना चाहिए । अभीष्टार्थ के अविनाश का स्थान प्राप्त करने वाला यह धर्मशास्त्र बुद्धिवर्धक, आयुवर्धक और मोक्ष का साधक है । इस धर्मशास्त्र में सम्पूर्ण धर्म, कर्मों के गुण तथा दोष और चारों वर्णों के सनातन आचार बतलाए गए हैं । वेदों तथा स्मृतियों में कहा गया है कि आचार ही श्रेष्ठ धर्म है । आत्महिताभिलाषी द्विज का इसके पालन में प्रत्यत्‍नशील होना चाहिए । आचार भ्रष्ट ब्राह्मण वेद के फल को नहीं पाता । आचारवान ब्राह्मण सम्पूर्ण फल का भागी होता है । इस प्रकार आचार से धर्मलाभ देखकर महर्षियों ने तपस्या से भी श्रेष्ठ आचार को ग्रहण किया है । ब्राह्मणादि और अम्बष्ठ रथकार आदि वर्णसंकर जातियों का कुल परम्परागत जो आचार है, वही सदाचार कहा जाता है । ब्राह्मणों से पृथ्वी पर सब मनुष्य अपने-अपने चरित्र सीखें । ब्राह्मण का मंगल-सूचक शब्द से युक्‍त और शूद्र का निन्दित शब्द से युक्‍त नामकरण करना चाहिए । ब्राह्मण का ‘शर्मा’ शब्द से युक्‍त, क्षत्रिय का रक्षा शब्द से युक्‍त, वैश्य का पृष्टि शब्द से युक्‍त और शूद्र का प्रेष्यशब्द से युक्‍त उपनाम रखना चाहिए । ब्राह्मण हृदय तक, क्षत्रिय कण्ठ तक, वैश्य मुख तक, पहुँचे हुए तथा शूद्र ओष्ठ को स्पर्श किए हुए जल से शुद्ध होता है । केवल सावित्री मात्र का ज्ञाता शास्त्रानुसार आचरण करनेवाला ब्राह्मण मान्य है, किन्तु निषिद्ध अन्‍नादि खानेवाला, सबकुछ बेचनेवाला तीनों वेदों का ज्ञाता भी ब्राह्मण मान्य नहीं है । जो ब्राह्मण अभिवादन के बाद प्रत्याभिवादन (शास्त्रसम्मत अभिवादन का आशीर्वाद रूप प्रत्युत्तर) भी नहीं जानता हो, विद्वान ब्राह्मण उसका अभिवादन भी न करे, क्योंकि जैसा शूद्र है , वैसा ही वह (शास्त्रसम्मत प्रत्याभिवादन विधि का अनभिज्ञ ब्राह्मण) भी है । मिलनेवाले ब्राह्मण से कुशल, क्षत्रिय से अनामय, वैश्य से क्षेम तथा शूद्र से आरोग्य पूछें । दस वर्ष के ब्राह्मण और सौ वर्ष के क्षत्रिय को पिता-पुत्र समझना चाहिए, उनमें ब्राह्मण क्षत्रिय का पिता होता है । पैदा करनेवाले पिता और ब्रह्मज्ञानोपदेशक (आचार्य) इन दोनों में से ब्रह्मज्ञान देनेवाला श्रेष्ठ है क्योंकि ब्रह्मजन्म (यज्ञोपवीत संस्कार) ही ब्राह्यण के लिए इस लोक तथा परलोक में कल्याणप्रद है । अज्ञानी ही बालक होता है (केवल थोड़ी आयुवाला ही नहीं) और वेदमंत्रों को पढ़नेवाला ही ‘पिता’ होताहै क्योंकि प्राचीन मुनियों ने भी अज्ञानी को बालक तथा वेदमंत्रोपदेशक को पिता कहा है । ब्रह्मणों की विद्या से, क्षत्रियों की बल (शक्‍ति) से, वैश्यों की धन से और शूद्रों की जन्म से श्रेष्ठता होती है । ब्राह्मणादि बिना यज्ञोपवीत संस्कार हुए श्राद्धकर्म के अतिरिक्‍त कर्म में वेदमंत्र का उच्चारण न करें क्योंकि वह जब तक वेद में अधिकारी (यज्ञोपवीत संस्कार युक्‍त) नहीं होता, तब तक वह (द्विज) शूद्र के समान है । गुरू की सवर्ण स्त्रियाँ गुरू के समान पूजनीय हैं और असवर्ण स्त्रियाँ प्रत्युथान तथा नमस्कार मात्र से ही पूज्य हैं । स्त्री या शूद्र भी जिस किसी अच्छे काम को करते हों उसे तथा शास्त्रानुकूल कर्मों में से जो कर्म रूचिकर हों उन्हें भी सावधान होकर करें । आपत्तिकाल में अब्राह्मण (ब्राह्यण के अभाव में क्षत्रिय और क्षत्रिय के अभाव में वैश्य) से भी ब्रह्मचारी वेदाध्ययन करे तथा अध्ययन काल तक ही उक्‍त उस अब्राह्मण गुरू का अनुगमन और शुश्रूषा करें । शूद्र पुरूष का शद्रा (शूद्रवर्णीत्पन्‍ना) वैश्य पुरूष को वैश्य तथा शूद्रवर्णों में उत्पन्‍न क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा ब्रह्मण वर्णों में उतप्न्‍न स्त्री हो सकती है । सवर्णा स्त्री के नहीं मिलने से आपत्ति में पड़े हुए भी ब्राह्माण और क्षत्रिय के लिए किसी इतिहास आख्यानादि में शूद्रा भार्या का विधान नहीं है । (सवर्णा के साथ विवाह कर) शूद्रा के साथ विवाह करने वाले द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) सन्तान सहित (उसमें उत्पन्‍न पुत्र-पौत्रादि सहित) कुलों को शूद्रत्व प्राप्त करा देते हैं (शूद्र बना डालते हैं।) अतः द्विज मात्र को ही हीनवर्णोत्पन्‍ना स्त्री के साथ विवाह कदापि भी नहीं करना चाहिए । जिस (द्विज) के यहाँ देवकार्य (अग्निहोत्र, यज्ञादि) पितृकार्य (श्राद्ध) और अतिथि भोजनादि शूद्रा स्त्री के द्वारा सम्पादित होते हैं, उसके हव्य तथा कव्य को (क्रमशः) देवता तथा पितर भोजन नहीं करते हैं और उस अतिथि-भोजन से उत्पन्‍न स्वर्गादि को भी वह नहीं प्राप्त करता है । ब्राह्यण के लिए छः प्रकार के विवाह (ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर और गान्धर्व, पैशाच और राक्षस) और वैश्य तथा शूद्र के लिए ‘राक्षस रहित तीन प्रकार के विवाह (आसुर, गान्धर्व और पैशाच) का विधान है । अज्ञानी मनुष्य के द्वारा वेद तथा वेदार्थ ज्ञान से हीन ब्राह्मण के लिए देवों तथा पितरों के उद्देश्य से दिये गए हव्य तथा कव्य नष्ट हो जाते हैं (वे देवों तथा पितरों को नहीं मिलते हैं । ) विद्या तथा तप से समृद्ध (बैठे हुए) ब्राह्मण के मुखरूपी अग्नि में हवन किया हुआ (उक्‍त रूप श्रेष्ठ ब्राह्यण को खिलाया गया) अन्‍न आदि दुस्तर (कठिनता से पार करने योग्य) रोग, राजभय, शत्रुभय आदि से तथा बड़े पाप से भी छुड़ा देता है । ब्राह्मण भोजन प्राप्ति के लिए अपने कुल तथा गोत्र को न कहे (मैं ब्राह्मण हूँ, मुझे भोजन करा दीजिए, इत्यादि वचन न कहे) क्योंकि भोजन प्राप्त करने के लिए अपने कुल तथा गोत्र को कहनेवाला विप्र वमन किए पदार्थ को खानेवाला कहा जाता है । ब्राह्मण के (घर आए हुए) क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, मित्र, बान्धव और गुरू अतिथि नहीं कहे जाते हैं । इस श्राद्ध में दस लाख बिना पढ़े हुए ब्राह्यण भोजन करते हैं वहाँ यदि वेद पढ़नेवाला एक ही ब्राह्मण भोजन कर संतुष्ट हो तो उन दस लाख भोजन करनेवाले ब्राह्मणों के योग्य होता (उनके बराबर फल को देता) है । शूद्र को यज्ञ करानेवाला (ब्राह्मण) अंगों से जितने ब्राह्मणों का स्पर्श करता है , उतने ब्राह्मणों के हव्य-कव्य दान करने का फल दानकर्त्ता को नहीं मिलता है । वेदशाता ब्राह्मण भी लोग से शूद्र याचक का प्रतिग्र्ह (दान) लेकर (पानी में कच्चे घड़े के समान शरीरादि) शीघ्र नष्ट हो जाता है तब मूर्ख ब्राह्मण के विषय में कहना ही क्या है ? अर्थात वह तो प्रतिग्रह लेकर अत्यंत शीघ्र नष्ट हो ही जाएगा । ब्राह्मणों को जो-जो (वस्तु) रूचे (अच्छी लगे) उन-उन (वस्तुओं) को मत्सर से रहित परोसे, परमात्मा-निरूपण संबंधी कथाओं (बातचीत, चर्चाओं) को कहें क्योंकि यह पित्तरों का अभीप्सित है । सूअर के भोजन पदार्थ सूँघने से, मुर्गे के पंख की हवा से, कुत्ते के देखने से अथवा भोजनकर्ता ब्राह्मणों द्वारा कुत्ते के देखने से और शूद्र के स्पर्श करने से भोज्य पदार्थ अखाद्य हो जाता है । अक्षत्रिय राजा, पशु मारकर माँस बेचनेवाले (बधिक, कसाई आदि) तेली, कलवार (मद्य बेचनेवाले), वेश्या की नौकरी से जीनेवाले या वेष बदलकर अपनी जीविका यापन करनेवालों से दान न लेवें । दस कसाई के बराबर तेली है, दस तेली के बराबर कलवार है, दस कलवार के बराबर वेशजीवी है और दस वेशजीवी के बराबर राजा है । (कसाई, तेली, कलवार, वेशजीवी और राजा की उत्तरोत्तर नीव श्रेणियों में गणना है) ।

1 comment:

  1. Mausmriti jis youg ke liye thee vah yug aaj nahee hai..
    Fir bhee vyakti kee ucchata ke liye tyag kee avashykata upar spast hai..vais karnewala Brahman jarur shreshtha hoga,
    Antim upanakh me raja ko sabse neecha kaha gaya hai yanee bhautik sukhon ko chhod Brahman brahmjnan kee khoj me lage,,
    Samajke doosre vargon ke prati yadi Brahman ka ghina ka ravaiya hota to alpsankhyavale Brahman kat diye gaye hte aaur abhee tak unke vanshjon ko samman chahe jis roopme ho nahee milta,
    Brahmna ko aaj in jhuthe samman se uth shoiksha adhunik prapt karnee chahiye- aaur apane brhmjnan kee jijnasha banaye rakhnee chahiye..
    Arya matab shreshth hai bus etana hee- ko bhee kisee bhee jati ke patnee apne pati ko Aryaputra kah apne sasur ka samman karte thee..
    Arya bahar se aai koi jati nahee hai..
    RSS, VHP, Na Hindu patito bhavati yanee sabhee Hindu ko barabar mante hain.

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