भटकाव और अपाधापी के दौर में तनावग्रस्त वर्त्तमान समाज में नैतिक शिक्षा के साथ जैनत्व का परिज्ञान कराने में जैन संस्थाएँ सक्रिय भूमिका का निर्वहन कर रही है । इन संस्थाओं में “दिगंबर जैन नैतिक शिक्षा समिति” “अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन परिषद” और जैन मिलन समिति का अहम योगदान है । केन्द्र सरकार ने तो नहीं बल्कि कुछ राज्य सरकारों ने जैन समाज को अल्पसंख्यक श्रेणी में डाल दिया है । इस श्रेणी में आने के कारण जैन समाज के बच्चों को पुस्तकें एवं स्टेशनरी के मद में नकद भुगतान की व्यवस्था है । परन्तु संस्थाओं के अनुसार जितना रकम सरकार जैन समाज के बच्चों को छात्रवृत्ति मद में देती है उसका दस गुना रकम तो हमलोग दान दे देते है, अर्थात उन्हें इसका कोई फायदा नहीं दिखता । वे तो केवल ये चाहते हैं कि सरकार जैन समाज द्वारा संचालित विद्यालयों/महाविद्यालयों पर अंकुश ना लगाए । जैन समाज के बच्चे अपने विद्यालयों में पढ़कर अपनी प्रतिभा को निखार सके । नैतिक शिक्षा के प्रति उदासीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल एक देश एक शैक्षिक बोर्ड की वकालत कर रहे हैं और मार्किंग की जगह ग्रेड सिस्टम लागू करने जा रहे हैं, वहीं जैन समाज के बुद्धिजीवियोँ का कहना है कि इससे शैक्षिक विकृति ही बढेगी । विद्यार्थियों में पढ़ाई के प्रति चिंता कम हो जाएगी । उन्हें फेल होने का डर ही नहीं होगा । कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करती हैं- शकरपुर, दिल्ली की कुसुमलता जैन जो “दिगंबर जैन नैतिक शिक्षा समिति द्वारा आयोजित नैतिक शिक्षा शिविर की सह संयोजिका भी हैं । श्रीमती जैन उ० प्र० के बागवत जिले की पूर्व भाजपा पार्षद एवं प्रधानाध्यापिका रह चुकी है । नैतिक शिक्षा, संस्कार और पर्यावरण आदि उनके प्रिय विषय होने के कारण वे बच्चों में इस गुण को काफी लगन से समाहित करने के अभियान में जुटी हैं । वे मानती हैं कि नैतिक शिक्षा को सरकारी पाठ्यक्रम में प्रमुख स्थान मिले एवं शिक्षकगण इस विषय को केवल टाइमपास नहीं बल्कि प्रमुख उत्तरदायित्व के रूप में लें क्योंकि नैतिक शिक्षा ही तो जीवन की प्रमुख आधारशिला है । अपने अनुभव पर प्रकाश डालते हुए वे कहती हैं कि आज बच्चों में अभिभावक एवं शिक्षकों की मानसिकता के अलग होने के कारण द्वन्द चल रहा है । बच्चा यह नहीं समझ पा रहा है कि वह शिक्षक का आदेश माने या आभिभावक का । शिक्षक नैतिक शिक्षा के विषय को पढाने के बजाय मार्कशीट में ग्रेड प्रणाली को अपनाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं वहीं कुछ अभिभावक खुद तो टीवी देखते हैं और बच्चों को टीवी से दूर रहने की सलाह देते है । कुछ अभिभावक गण खुद असत्य बोलते है और बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे सत्य का आचरण अपनाएँ । यह कैसे संभव होगा? नैतिक शिक्षा को आत्मसात् करने एवं संपूर्ण समाज में प्रवाहित करने की जिम्मेदारी सबों की है । हम बदलेंगे तभी तो, युग बदलेगा । जिस प्रकार किसान बीच को जमीन के अंदर बोकर सिंचाई करने के साथ-साथ समय की प्रतीक्षा करता है । आज आवश्यकता है कि बच्चों के कोमल मन को कोई नीचे से भी चोट करे और उपर से भी तथा बीच में उसे आकार देने का कार्य किया जाय बच्चों में मन में राष्ट्रीयता और स्वाभिमान का बीज बोकर हम सब संस्कारित करने का पुण्य कार्य कर सकते हैं । आज ग्लोबल वार्मिंग के असर से दुनियाँ कराह रही है । बच्चों को इस संबंध में ज्ञान चक्षु खोलने की आवश्यकता है क्योंकि बच्चे और युवा वर्ग ग्लोबल वार्मिग कम करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं । पाश्चात्य देश की सभ्यता और टीवी संस्कृति पर सेंसरशिप बच्चों के साथ-साथ राष्ट्रहित में भी होगा वर्त्तमान में जो स्वतंत्रता सेनानी बचे हैं उनमे जिनका निधन होता है उनसे संबंधित कार्यक्रम नहीं होता । आज उनसे संबंधित कार्यक्रम का आयोजन कर बच्चों को स्वतंत्रता के प्रति योगदान विषय की जानकारी दी जानी चाहिए जिससे उनका देशप्रेम बढेगा । अंधविश्वास एवं वृद्धाश्रम में बच्चों के हाथ से उपहार बँटवाए जाँय जिससे ममता और प्यार के साथ-साथ सेवाभाव बढे़गा । हमें स्वयं भी समझना पड़ेगा कि हमारे जीवन का मूल आधार तो नैतिकता ही है, संस्कार तो उसकी शाखा है । आज संस्थाओं में भी ज्यादातर के उदेश्य अच्छे हैं पर कभी-कभी उनके कार्य उद्देश्य से हट जाते हैं । हमें इस पर पूरा ध्या रखना पड़ेगा । विज्ञान ने विकास किया जो सीमित दायरे में लाभकारी है परंतु जब यह जन-जन के लिए सुलभ होगा तो परेशानी बढेगी । इन्हीं कारणों से देशों में आत्मरक्षा एवं प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ गई है । देश को आजादी दिलाने एवं सत्य अहिंसा का संदेश देनेवाले गांधी आज अप्रासंगिक हो गए हैं । गाँधी संग्रहालय में भीड़ नहीं है परन्तु मॉल भरा हुआ । हमें बच्चों को अपने गुरूओं, धरोहरों, संपदाओं से परिचित कराना चाहिए । पहले यूपी में उ०प्र० में नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम में थी आज की स्थिति स्पष्ट नही, परन्तु मेरा मत है कि नैतिक शिक्षा को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में अनिवार्य विषय बनाया जाय । ‘जागृत वीर समाज’ के संपादक प्रताप जैन कहते हैं- “भारतीय संस्कृति में धर्म का स्वरूप अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से बताया गया है । धर्म ने जो तथ्य प्रतिपादित किए हैं, आज का विज्ञान उनकी पुष्टि करके धर्म की वैज्ञानिक सिद्ध कर रहता है । पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन नहीं करना, तनाव मुक्त रहना अहिंसा का पालन करना, विवाद और आपाधापी से दूर रहना, विज्ञान इन सब बातों को जीवन के लिए आवश्यक बता रहा है जबकि धर्म में तो पहले ही इन बातों पर विशेष बल दिया गया है । धर्म नैतिक मूल्यों को आधार प्रदान करता है और दर्शन उसे युक्तिसंगत बनाता है । भोगी प्रधान पाश्चात्य संस्कृति में नैतिक मूल्यों का रूप और आधार बदलता रहता है, परंतु भारतीय संस्कृति में नैतिक मूल्य धर्म और दर्शन से जुड़े रहे जैन दर्शन तथा नैतिकता को मानवीय गुणों से जोड़कर उसे संवैधानिक और सार्वभौमिक बनाए रखा । नैतिक मूल्यों और जीवन के विकास में कौन सा कार्य साधक और उपयोगी तथा कौन से बाधक, अनुपयोगी है, इनका ज्ञान धर्म ग्रंथों से मिलता है । उस ज्ञान को आचरण में लाना ही वास्तविक नैतिकता है । नैतिकता कोई उपदेश नहीं है और न दूसरों से की जानेवाली कामना अथवा अभिलाषा । यह तो शुद्ध मन का अनुकरणीय आचरण है । हमारा मन हमारी नैतिकता की उर्जास्थली है । नैतिकता किसी धर्म, जाति अथवा व्यक्ति विशेष के लिए नहीं अपितु जीवन के हर क्षेत्र में हर किसी से अपेक्षित है परंतु प्रश्न यह है कि विसंगतियों से भरे इस वर्त्तमान जीवन में इसे प्राप्त कैसे करें? जन्म लेते ही कोई अधर्मात्मा या अनैतिक नहीं हो जाता अपितु वर्त्तमान वातावरण में अनैतिकता उनमें धीरे-धीरे प्रवेश कर बढती और विकसित होती रहती है । इसको बोने और सींचने की आवश्यकता नहीं होती , यह तो स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है । चूँकि बच्चे हमारो भविष्य है और हमारा वर्त्तमान बच्चों का भविष्य है । अतः हमे यह सोचना होगा कि हम अपने वर्त्तमान जीवन से बच्चों को कैसा जीवन जीने के लिए प्रेरित कर रहे हैं । बौद्धिक विकास की ऊँचाईयों तक पहुँच रही इस पीढ़ी में उच्च आदर्शो को स्थापित करने के लिए धार्मिक, सामाजिक नेताओं और परिवारजनों को स्वयं धार्मिक, नैतिक संयमित और मर्यादित जीवन जीना होगा । कथनी और करनी का भेद मिटाकर जीवन में एकरूपता लानी होगी । बिना ऐसे किए हम अपने उत्तराधिकारियों को सुसंस्कारों से सुशोभित कर पाऐंगे, इसमे संदेह है । दिगंबर जैन नैतिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष धनपाल सिंह जैन के अनुसार - “स्वाध्याय के प्रति उदासीनता, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, भोगों में आसक्ति, भौतिकता की चकाचौंध आदि के कारण वैयक्तित्व, पारिवारिक, सामाजिक, एवं राष्ट्रीय जीवन में नैतिकता का हास हुआ है । परिणामस्वरूप हिंसक प्रवृत्ति, लूट-खसोट, आतंकवाद आदि प्रवृत्तियाँ सामाजिक वातावरण को दूषित कर रही हैं । धर्म, संस्कृति, देश-प्रेम की भावना, सुसंस्कारों का बीजारोपण, जैन आगम के संरक्षण/संवर्द्धन और नैतिक मूल्यों के प्रति जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से दिगंबर जैन नैतिक शिक्षा समिति द्वारा अंशकालिक पाठशालाओं, ग्रीष्मकालीन शिविरों, सायंकलीन शास्त्र सभाओं के माध्यम से समाज निर्माण और प्राणी मात्र का कल्याण करनेवाली जिनवाणी के प्रचार का प्रयास किया जा रहा है । हमारे गुरूकुल के बालकों ने बड़े मनोयोग पूर्वक शिक्षा ग्रहण की । पढाई के अतिरिक्त सांस्कृतिक कार्यक्रम, लघु नाटिका, कविता पाठ, भाषण आदि का भी अभ्यास कराया गया । शिविर संबंधी नियमों का विद्यार्थियों ने निष्ठापूर्वक पालन किया । बच्चों की प्रतिभा विलक्षण स्मरण शक्ति, नियमों के प्रति प्रतिबद्धता, णमोकार-मंत्र, मंगलपाठ से लेकर देवदर्शन विधि, पूजन विधि, पाप, कषाय, भक्ष, अभक्ष्य, जीव-अजीव, इन्द्रियाँ, ६ द्रव्य, ७ तत्व, अनुयोग, श्रावक के १२ व्रत, गुणस्थान, मार्गणा, ध्यान, कर्म सिद्धान्त, स्याद्वाद और अनेकान्त आदि विषयों पर बच्चों के उद्अगार सुनकर ह्दय गदगद हो जाता था और मन करता था कि तन-मन-धन आदि प्राप्त समस्त साधन इस महान कार्य के प्रति न्यौछावर कर दिया जाए । अनेक विद्यार्थियों ने विभिन्न नियम लेकर जीवन को सार्थक करने का मार्ग प्रशस्त किया । बच्चों की उत्सुकता समाज का सहयोग और समर्पण देखते ही बनता था । दिगंबर जैन नैतिक शिक्षा समिति के महामंत्री विमल प्रसाद जैन उद्गार व्यक्त करते हैं- “जिस प्रकार शरीर का विकास भोजन पर आधारित है, उसी प्रकार मानव मस्तिष्क का विकास शिक्षा पर आधारित है तथा शिक्षा का विकास चरित्र पर आधारित है । इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों एवं मार्गदर्शक बुजुर्गों ने सदैव ही शिक्षा की ओर पूर्ण रूप से ध्यान दिया है । यही कारण है कि सारे भारत में जैन धर्माबलंबियों द्वारा शिक्षण संस्थाओं का जाल सा बिछा दिया गया है । इसका मुख्य उद्देश्य बच्चों को धार्मिक संस्कार देना एवं जैन धर्म के प्रचार-प्रसार ही रहा होगा । हालाँकि शिक्षा देना सरकार का उत्तरदायित्व है । स्वतंत्रता से पूर्व विभिन्न धार्मिक संगठनों द्वारा शिक्षण-संस्थाएँ संचालित थी । धार्मिक व्यक्ति चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, ईसाई हो अथवा किसी भी धर्म का मानने वाला हो अनाचार की ओर अग्रसर नहीं होता और वह यह भी नहीं चाहेगा कि उनके बच्चों को ऐसी शिक्षा मिले जिससे उनके चरित्र पर विपरीत प्रभाव पड़े । स्वतंत्रता के पश्चात् ऐसी सभी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा बंद कर दी गई । धर्मनिरपेक्षता का नारा लगाकर इस कार्य को भी सांप्रदायिकता का रूप दे दिया गया । इसके परिणामस्वरूप देश में चारों ओर आपाधायी, लूटपाट, हिंसा, अलगाववाद, सांप्रदायिक तनाव, अपहरण, नशीले पदार्थों का सेवन, बलात्कार एवं भ्रूणहत्या जैसे जहान्य अपराधों में बहुत बढोतरी हुई है । हमें जो संस्कार हमारी संस्थाओं के माध्यम से एवं माता-पिताजी से से प्राप्त हुए वे हम अपनी संतानों को नहीं दे सके । अतः समाज के कर्णधारों को बहुत चिन्ता हुई । जैन धर्म के सभी सिद्धान्त नैतिकता से ओतप्रोत है । अतः २५-३० वर्ष पूर्व दिगंबर जैन नैतिक शिक्षा समिति के नाम से एक संगठन किया गया । समाज द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा देने का प्रयत्न किया गया । रात्रि पाठशालाएँ भी आरंभ की गई । वर्त्तमान में लगभग १२ पाठशालाएँ समिति की ओर से चलाई जा रही है । इसके अतिरिक्त साप्ताहिक पाठशालाएँ भी चल रही है । इन सभी पाठशालाओं में भारतवर्षीय दिगंबर जैन परिषद का पाठ्यक्रम चालू है । आजकल अधिकतर बच्चे पब्लिक स्कूलों में प्रवेश लेते हैं जहाँ धार्मिक शिक्षा को कोई प्रबंध नहीं होता । इस कार्य को और आगे बढाने के लिए निश्चय किया गया कि गर्मी की दो माहों की छुट्टियों में ७दिन, १० दिन या १५ दिन के अल्पावधि शिविर लगाए जाँय । परिणामस्वरूप समिति के पास लगभग ७०-८० अध्यापक हर समय उपलब्ध रहते है । सर्वप्रथम १९९१ में अल्पावधि शिविर लगाए गए । उसके पश्चात् समाज ने इन शिविरों की आवश्यकता पर जोर दिया और तब से प्रतिवर्ष ऐसे शिविरों की संख्या बढती गई । इस वर्ष ऐसे शिविरों की संख्या बढकर ६७ से भी अधिक हो गई है जिसमे दस हजार से अधिक बच्चों ने नैतिक शिक्षा ग्रहण की । सभी शिविरों का सामूहिक समापन समारोह शाह ऑडिटोरियम, दिल्ली में अगस्त, २००९ को होगा । कई वर्षों से बाहर से भी विद्वान आमंत्रित किए गए हैं जो शिविरों के शिक्षण देने के अतिरिक्त सायंकालीन शास्त्र सभाओं का भी आयोजन करते है । ऐसे शिविर गुडगाँव, बादशाहपुर, पानीपत और मेरठ में भी लगाए गए । एक शिविर पानीपत में माँ कौशलजी की देखी में लगाया गया । अंग्रेजी सीखबा बुरी बात नहीं है परन्तु हमें इस बात का भी ध्यान रखना है कि हम पर किसी अन्य संस्कृति का प्रभान न पड़े और हम पाश्चात्य सभ्यता से बच सकें । नैतिक शिक्षा ही एक ऐसा कार्य है जो पशुता से मनुष्यता की ओर ले जाती है और व्यक्ति संस्कारमय हो जाता है । एक बार दिल्ली में अल्पाव्धि के सामूहिक समापन समारोह के अवसर पर दिल्ली के पुलिस आयुक्त ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि अपराधों की बढ़ोत्तरी का मुख्य कारण नैतिकता में आई गिरावट है । भौतिकता की चकाचौंध में बाप के हाथों बेटी, भाई के हाथों बहन का वासना का शिकार बनाने की घटनाएँ सुनने को मिल रही है । उन्होंने कहा था कि आज देशभक्ति से अधिक बच्चों को नैतिक मूल्यों तथा अपने से बच्चे के प्रति विनीत और सम्मानपूर्वक व्यवहार कराना सिखाना है । नैतिक शिक्षा कार्यक्रम की सफलता केवल स्कूली बच्चों को शिक्षा देकर ही नहीं मानी जा सकती । सही लक्ष्य की प्राप्ति तो तब होगी जब समाज का प्रत्येक भाई-बहन इस प्रचार-प्रसार में लगेगा । यदि मानव समाज में बढती हुई हिंसा, अनैतिकता और मांसाहार को रोकना हो तो सबों को इस कार्य में जुटकर अपने बच्चों को संस्कारमय बनाने के लिए कदम से कदम मिलाकर इस दिशा में पहल करनी चाहिए क्योंकि यह ज्ञान का कार्य है और ज्ञान का कोई अंत नहीं है ।
gopal.eshakti @ gmail.com
Friday, July 10, 2009
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uttam aalekh !
ReplyDeletewaah waah
badhaai !
बहुत बढ़िया , जैन धर्म के बारे मे जानकारी
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