Wednesday, July 1, 2009

.........शेष रह जाएँगे वादे और जनसरोकार के मुद्‌दे

इस बार आपको चुनाव के नतीजे और रूझान जानने के लिए अधिक इंतजार नहीं करना पडेगा । जैसे-जैसे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से उम्मीदवारों के भाग्य का पिटारा खुलता जाएगा तत्काल उसकी जानकारी आपको टेलीविजन या इंटरनेट पर मिलती रहेगी । चुनाव आयोग मतगणना के रोमांच की पल पल की जानकारी देने को एक नया सॉफ्टवेयर तैयार कर रहा है । इसे बनाने की जिम्मेदारी टाटा समूह की एक कंपनी को सौंपी गई है । टाटा समूह की कंपनी सीएमसी लिमिटेड इसके साथ ही चुनाव के दौरान संचार प्रणली भी संभालेगी । वह पोलिंग बूथ से लेकर आयोग के मुख्यालय तक संचार और सूचना प्रौद्योगिकी का काम देखेगी । आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक चुनाव आयोग ने इस काम के लिए भारी भरकम राशि में कंपनी से करार किया है । सीएमसी लिमिटेड मतदाताओं और उम्मीदवारों संबंधी जानकारी का डाटाबेस भी आयोग के लिए तैयार करने में जुटी है । चुनाव आयोग के एक अधिकारी का कहना है मतगणना की सूचनाओं के आदान-प्रदान करने के लिए जेनेसिस नामक सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल होता है लेकिन इस बार इसे और उन्‍नत बनाया जा रहा है । चुनाव आयोग के अनुसार सरकारी इमारतों और उनके परिसरों में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और दूसरे नेताओं के फोटो नहीं लगाए जाने चाहिए । दिवंगत राष्ट्रीय नेताओं, प्रबुद्ध साहित्यकारों, इतिहासकारों, राष्ट्रपति और गवर्नरों के चित्र लगाए जा सकते हैं । जिन मतदाताओं के फोटो पहचान पत्र अभी तक नहीं बने हैं उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है । यदि उनका मतदाता सूची में नाम है तो चुनाव के दिन वह अपना वोट जरूर डाल पाएंगे । इसके लिए उन्हें अपनी पहचान का प्रमाण देना होगा । इसमें ड्राइविंग लाइसेंस, बिजली बिल या सम्पत्ति के दस्तावेज दिखाए जा सकते हैं । चुनाव आयोग ने बताया कि १६ को पहले चरण का चुनाव होना है इसलिए जहाँ तक हो सकेगा पहचान पत्र बनाए जाएंगे । फिर भी यदि कुछ लोग रह जाते हैं तो उन्हें वैकल्पिक पहचान प्रमाणों के आधार पर वोट डालने दिया जायेगा । इसके लिए बूथ लेवल एजेंटों की मदद ली जाएगी । आयोग के अनुसार बूथ लेवल एजेंट अधिकारियों के साथ योग्य वोटरों को पहले ही पंजीकृत कर चुके हैं । वोटर पंजीकरण की प्रक्रिया फरवरी में पूरी हो गई थी । हमारे छह संकल्प* लोकतंत्र के दुश्मन हैं दागी उम्मीदवार* अनीति है जाति मजहब की राजनीति* प्रत्याशी चयन में हो हमारी भी भागीदारी* गठबंधन बनें तो चुनाव से पहले* नहीं चाहिए नाकारा उम्मीदवार* सब करें समझदारी से वोट का इस्तेमाल
बेमतलब क्यों चुने जाएं दोबारा ?कुछ लोग चुनाव लड़ते हैं, जीत जाते हैं , लेकिन जनप्रतिनिधि होने के उत्तरदायित्व से कोसों दूर रहते हैं । कुछ करते भी हैं तो लगता है आधे-अधूरे मन से किया गया हो । भारतीय क्रिकेट टीम का हिस्सा रहे और अमृतसर से पूर्व बीजेपी सांसद नवजोत सिंह सिद्धू एक बार फिर अमृतसर सीट से चुनाव लड़ने की कोशिश कर रहे हैं ? चौदहवीं लोकसभा का रिकॉर्ड बताता है कि संसद में उनकी मौजूदगी तो रही , लेकिन वे चुप रहने में ही भरोसा करते है । लोकसभा में पूछे गए सवालों में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ और सिर्फ ०.३८ फीसदी की रही और लोकसभा में उनकी उपस्थिति सिर्फ छह फीसदी की रही । इसी तरह गुरदासपुर से बीजेपी सांसद और फिल्म अभिनेता विनोद खन्ना एक बार फिर उसी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं । इन्होंने लोकसभा में सरकार से सिर्फ चार सवाल पूछे थे और वहां बहस में सिर्फ दो बार अपनी जुबान खोली थी । उनकी उपस्थिति का प्रतिशत सिर्फ ५.५ फीसदी का रहा । मौजूदा आम चुनावों में जो एक सबसे बड़ा बदलाव आया है वह है कि विज्ञापन एजेंसियों पर राजनीतिक दलों की बढ़ती निर्भरता । ऐसा नहीं है कि इससे पहले के चुनावों में विज्ञापन या क्रियेटिव एजेंसियों की मदद न ली गई हो, लेकिन पार्टी इन्हें बताती थी कि उन्हें क्या चाहिए ? कैसे विज्ञापन तैयार करने हैं और किन-किन मुद्दों को विज्ञापन में जगह देनी है । अब हालात उलट चुकें है । आज क्रियेटिव एजेंसियां शीर्ष नेताओं को बता रही हैं कि वे कैसे कपड़े गहने, कैसे चलें और चुनाव में किन मुद्दों को उठाया जाए । कुछ मामलों में तो बाहरी कंपनी ने पार्टी को यह सलाह भी दी है कि वह किस व्यक्‍ति को अपना उम्मीदवार बनाए । चुनाव की तैयारी एक बड़ा उद्योग उभरा है । दर‍असल ये घटनाएं राजनीतिक दलों में कमजोर होते कैडर की ओर संकेत करती हैं । अजीब बात है कि आज राजनीतिक दल अपने लिए नारे नहीं सोच सकते हैं । सच पूछिए तो जनता का राजनीतिक दलों पर ये भरोसा उठा चुका है और इसमें भाजपा तथा कांग्रेस सहित कोई भी दल अपवाद नहीं हैं । वामपंथी दल नहीं । जब जनता इन पर भरोसा ही नहीं करती है तो पर्टियों में निष्ठावान कार्यकर्ता आएंगे कहां से । इसलिए राजनीतिक दलों को सब कुछ किराए पर जुटाना पड़ रहा है । आज भाड़े के कार्यकर्त्ताओं के भरोसे पर टिका है अपना लोकतंत्र । लेकिन राजनीतिक दलों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वे जिन क्रिएटिव एजेंसियों के भरोसे चुनाव जीतने के सपने देख रहे हैं, उनके कर्ताधर्ता अपने बूते पर एक पार्षद का चुनाव नहीं जीत सकते हैं । आप चुनाव प्रचार में दो रूपये प्रति किलो चावल ही नहीं बल्कि एक हजार रूपये तोला सोना देने का भी ऐलान कर सकते हैं । आप मुफ्त में टीवी देने का वायदा भी कर सकते हैं और चाहें तो जानबूझ कर ऐसा वादा कर सकते हैं जिसे निभाना संभव नहीं हो । चुनाव आयोग मैनिफेस्टो में किए गए वादों को निभाने के लिए राजनीतिक दलों पर जोर नहीं डाल सकता । हालांकि चुनाव आचार संहिता में आजकल कई नेताओं पर दोषारोपण हो रहे हैं, लेकिन चुनाव आयोग ने माना है कि मैनिफेस्टो में क्या-क्या वादे किए जाते हैं, उससे आयोग को कुछ लेना-देना नहीं है । दर‍असल, इस सच्चाई का पता उस समय चला जब आरटीआई एक्टिविस्ट देवाशीष भट्टाचार्य ने आयोग से कुछ सवाल पूछ लिए । पहला यह था कि राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र आयोग के पास जमा कराते हैं या उसकी कोई स्वीकृति लेते हैं । यह भी पूछा गया है कि क्या राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद मैनिफेस्टो में किए गए वादों को पूरा करने के लिए बाध्य हैं । अगर राजनीतिक दल इन वादों को पूरा नहीं करते तो आयोग उनके खिलाफ क्या कार्रवाई कर सकता है । इन सवालों के जवाब में आयोग के अंडर सेक्रेट्री नरेंद्र बुटोलिया ने कहा है कि चुनाव के नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि राजनीतिक दल मैनिफेस्टो जारी करने से पहले आयोग की मंजूरी लें । उन्हें मैनिफेस्टो आयोग के पास जमा कराना जरूरी भी है । यह भी कहा गया कि राजनीतिक दल मैनिफेस्टो में क्या वादा करते हैं, आयोग को इससे कोई सरोकार नहीं है । अब भट्टाचार्य ने इस जवाब से संतुष्ट न होते हुए फिर से सवाल पूछे हैं कि जब आचार संहिता लागू होती है और आयोग राजनीतिक दलों पर निगाह रखता है तो फिर मैनिफेस्टो में किए गए वादों को कैसे नजर‍अंदाज किया जाता है । अगर ऐसे वादे पूरे ही नहीं हो सकते तो इसे भी आचार संहिता का उल्लंघन माना जाए । मैनिफेस्टो में शहरों को तवज्जो नहीं भारत के तेज शहरीकरण ने आखिरकार पॉलिटिक्स में अपना हिस्सा हासिल कर लिया है । परिसीमन के बाद शहरी लोकसभा सीटों की तादाद सौ से ज्यादा हो गयी है । ऐसी सीटें तो अब करीब एक चौथाई हैं, जिन्हें शहरों के असर में माना जा सकता है । यह भारतीय जिंदगी का बदलता चेहरा है, जिसके हिसाब से पॉलिटिक्स में भी बदलाव आना चाहिए । शहरी भारत की तकलीफें और जरूरतें कुछ मामलों में अलग हैं, लिहाजा इसे इंडियन डेमोक्रेसी में एक अलग वर्ग की तरह ट्रीट करना होगा जैसे गांवो को किया जाता है । मसलन ट्रैफिक, क्राइम और हाउसिंग ऐसे मसले हैं जिन पर शहरों को अपने राजनीतिक आकाओं से जवाब की खास दरकार है । क्या इस जरूरत को समझा गया है ? क्या एक चौथाई सीटों वाले शहरी वोटर को हमारे नेताओं ने अलग से देखना शुरू कर दिया है ? क्या उनके अजेंडे में इस खास वोटर के लिए कुछ खास है ? इन सवालों के जबाव पाने का एक तरीका है पार्टियों के इलेक्शन मैनिफेस्टो की पड़ताल । आप कह सकते हैं कि मैनिफेस्टो का असल सियासत से कोई वास्ता नहीं होता जैसे कि ईमानदारी का नेतागिरी से नहीं है । यह बात सच है, लेकिन अगर मैनिफेस्टो में किसी मुद्दे का जिक्र हो तो माना जा सकता है कि कम से कम उसका अहसास पार्टी को है । तब आप जवाबदेही भी तय कर सकते हैं और भविष्य में पार्टी को कठघरे में भी खड़ा कर सकते हैं । तो शहरी भारत को लेकर हमारी पार्टियों का स्टैंड क्या है ? हमारी स्टडी बताती है कि बड़ी पार्टियों को शहरी वर्ग की जरूरतों का अहसास तो है , लेकिन उनके पास कोई ठोस वर्क प्लान नहीं है । उनका फोकस अब भी गांवो पर है , जिनके लिए घोषणाओं की बरसात की गई है । बड़ी पार्टियों ने अब शहरों का जिक्र अलग से करना शुरू कर दिया है, लेकिन उस सेक्शन का कंटेंट कामचलाऊ किस्म का है । कांग्रेस की बंद मुट्ठी कांग्रेस ने माना है कि तेज अर्बनाइजेशन के सामने इंफ्रास्ट्रक्चर पिछड़ गया है , किफायती हाउसिंग और सैनिटेशन के लिए प्लान लागू करने होंगे । लेकिन ये आम बातें हैं किसी ठोस प्रपोजल के जरिए अपनी संजीदगी जाहिर नहीं की गई है ।मैनिफेस्टो में कहा गया है कि अर्बन एडमिनिस्ट्रेशन का नया मॉडल लागू किया जाएगा, जिसके केंद्र में वित्तीय तौर पर आत्मनिर्भर संस्थाएं होंगी । पार्टी ने इस आइडिए का खुलासा नहीं किया है । साल के बरसों में यह डिमांड उठी है कि बड़े शहरों को अपने राज्यों की बंदिशों से आजाद कर ज्यादा ऑटोनमी दी जाए, लेकिन इसके किसी एक मॉडल पर रजामंदी नहीं है । कांग्रेस ने भी अस्पष्ट छोड़ दिया है, और आप जानते हैं ऐसी बातों को उनकी किस्मत पर छोड़ दिया जाता है । बीजेपी की तिकड़ी बीजेपी ने तीन ऐसे वादे किए हैं, जिन्हें अहम माना जा सकता है ः १५ नए शहर, गरीबों के लिए १० लाख मकान और शहरी प्रॉपटी की जीआईएस मैंपिंग । लेकिन शहरों को नए अधिकार और उन्हें वर्ल्ड क्लास बनाने का कमिटमेंट नदारद है । सीपीएम की बेरूखीसीपीएम ने शहरों के विकास की फिक्र तो दिखाई है, लेकिन सभी के लिए नहीं, सिर्फ गरीबों के लिए । पार्टी ने संपन्‍न वर्ग के लिए रीयल एस्टेट के बेरोकटोक विकास पर रोक लगाने की बात कही है । इससे लगता है कि शहरीकरण को पार्टी ज्यादा पसंद नहीं करती । बाकी के लिए शहर गायबआज जब दर्जन भर रीजनल लीडर पीएम बनने का ख्वाब देख रहे हैं, उनकी पार्टियाँ शहरों को जैसे देश का हिस्सा मानती ही नहीं । दूसरी पार्टियों को छोड़िए, सबसे बड़े मेट्रो मुंबई की एमसीपी के मैनिफेस्टो में शहरों को कोई तवज्जो नहीं दी गई है ।

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