Thursday, July 9, 2009

पत्रकारिता का बदलता स्वरूप

इंटरनेट, सर्च इंजनों, ब्लॉग्स एवं बेवसाइटों के इस वर्त्तमान युग में मीडीया का स्वरूप बदल चुका है । इस क्षेत्र में तेज बनने की चाहत एवं तेज नहीं बनने पर पीछे छूटने का भय सबको सता रहा है । हिंदुस्तान की शीर्षस्थ मीडिया का जिक्र करें तो हिंदुस्तान टाईम्स ने अपना नेट संस्करण हिंदुस्तान टाईम्स डॉट कॉम एवं हिंदुस्तान हिंदी दैनिक से दैनिक डॉट कॉम और टाईम्स ऑफ इंडिया ने टाईम्स ऑफ इंडिया डॉट कॉम तथा नवभारत टाईम्स ने नवभारत टाईम्स डॉट इंडिया टाईम्स डॉट कॉम पर निकाला है । दैनिक जागरण ने अपने नेट संस्करण के लिये याहू के साथ गठबंधन किया है । याहू के हिन्दी लिंक पर जाने पर दैनिक जागरण का नेट संस्करण आप पढ़ सकते हैं । इसके अतिरिक्‍त भी कई अखबार एवं पत्रिकाओं ने नेट संस्करण की शुरूआत कर दी है । आज नहीं तो कल हिंदी बाहुल्य क्षेत्र के पाठक भी इंटरनेट पर अखबार पढ सकेंगे । एक अनुमान के अनुसार इंटरनेट पर मौजूद 85 प्रतिशत समाचारों का स्त्रोत प्रिंट मीडीया ही है । किसी भी सर्च इंजन या वेबसाईट ने अब तक संवाददाताओं का संरचनात्मक ढाँचा तैयार नहीं किया है क्योंकि वे खर्च करना ही नहीं चाहते हैं । उनकी दृष्टि केवल अपने आमदनी का स्त्रोत बढाने की है । भविष्य में इस ओर किसी ने कदम बढाया तो अलग बात है । जनसरोकार और लोकतंत्र की रक्षा हेतु केवल बड़े प्रकाशन समूहों ने नहीं बल्कि लद्यु एवं मध्यम स्तरीय मीडीया वर्ग ने भी अपनी बेबाक राय को सरकार तक पहुँचाने का कार्य किया है । जहाँ बड़े प्रकाशन समूहों की वास्तविक मंशा सरकार की ब्लैकमेलिंग तथा राज्यसभा के मार्फत प्रवेश पाने की होती है वहीं मध्यम एवं लद्यु समाचार एवं पत्रिका समूह अपने अस्तित्व के साथ-साथ वैचारिक सिद्धान्तों की बुनियाद पर टिकी होती है । हिंदी का कबाड़ा तो ज्यादातर बड़े प्रकाशन समूह के पत्रकारों द्वारा ही किया जाता है । उनके पत्रकार एवं संवाददाता हिंदी में उपलब्धता के बावजूद अंग्रेजी शब्दों/वाक्यों का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे है। उस ओर उनकी दृष्टि कभी नही जाती है । बड़े प्रकाशन समूहों की कृपा से ही अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारों के मध्य एक बड़ी खाई बन गई है । इनकी कलम तो व्यावसायिक मजबूरियों से वंशीभूत होते हैं । सवाल यह उठता है कि विशुद्ध व्यावसायिक मुनाफा हेतु फ्रेंडशिप क्लब, सेक्सी बातें, मसाज पार्लर और फ्रॉड कंपनियों के विज्ञापन प्रकाशित करने वालों से आप सही और संतुलित खबर पाने की आशा रखते हैं? इसी दिशा में “दिल्ली प्रेस प्रकाशन समूह” ने उक्‍त प्रकार के विज्ञापनों को निषिद्ध कर एक मिशाल कायम की है जो पत्रकारिता हेतु अनुकरणीय है। इंतजार करें उस समय का जब इंटरनेट उपभोक्‍ताओं का प्रतिशत बढने की योजना पर कार्य शुरू हो जायेगा । निःसंदेह इस ओर भी कोई न कोई कंपनी इस उद्देश्य को चुनौती के रूप में लेते हुए आगे आएगी । वैसे गूगल, माइकोसॉफ्ट, याहू, बी०बी०सी ने हिंदी की महत्ता को समझते हुए जिस तरह से विभिन्‍न सॉफ्टवेयर का विकास करके हिंदी सेवाओंको विस्तार दिया है, उससे ऐसा लगता है कि आने वाले समय में हिंदी भाषी उपभोक्‍ता उनके मुख्य केंद्र बिंदु में होंगे । अब तो अन्य भारतीय भाषाओं में भी समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं के ई संस्करण की भी शुरूआत हो चुकी है । अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा द्वारा भारतीय भाषाओं को सम्मान देकर की गई विभिन्‍न नियुक्‍तियों के बाद अन्य भारतीय भाषाओं का भी आकर्षण बढा है । वैसे देखा जाय तो राष्ट्रभाषा हिंदी और मातृभाषाओं का संबंध गाय और बछड़े के समान है । बड़े प्रकाशन समूह द्वारा प्रत्योजित चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण टॉय-टॉय फिस्स हो चुकी है क्योंकि वे जनता के वास्तविक भावनाओं के अंतरतम तक नहीं पहुँच पाते है । वहीं अपने भावनाओं का सजीव और संतुलित चित्रण होता है, महिमामंडन नहीं होता । क्या पत्रकारिता की ठेकेदारी बड़े प्रकाशन समूहों ने ही ले रखी है? चर्चा में आने के लिए उलजुलूल और तथ्यहीन खबरों को हवा देने वाले कहाँ नहीं होते ? एक सजग एवं गंभीर पाठक इस सच्चाई से वांकिफ है और वे इस अंतर को बखूबी समझते हैं । हर माध्यम का सकारात्मक और नकारात्मक पहलू होता है । हमें सकारात्मक पहलुओं को विस्तार देने की आवश्यकता है न कि औरों पर व्यंग्य बाण तथा कीचड़ उछालकर पत्रकारिता की दुनियाँ में तो इतनी प्रतिस्पर्धा हैं कि खबर किसी और की और खरीददार मुँह माँगे दाम पर खरीदने को उतावले हैं । “हर बड़ी मछली छोटी मछ्ली को निगल लेती है” का सिद्धान्त यहाँ हर जगह लागू होता है । पत्रकारिता जगत के छोटी मछलियों को भी जीने का अधिकार है । इस लिए जियो और जीने दो । वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने मुंबई पर आतंकी हमलों में इलेक्टॉनिक मीडीया की भूमिका की आलोचना करते हुए तत्वहीन और अपरिपक्‍ब करार देते हुए कहा कि चैनलों ने ऐसी संवेदनशील घटना की रिर्पोटिंग रियलिटी-शो की तरह किया । उन्होंने कहा था कि रिपोटरों को पता तक नहीं था कि वहाँ क्या हो रहा है, समय की माँग क्या है और उनकी कथनी का क्या अर्थ सामने आ सकता है । चैनलों के रिपोटरों को ऐसी घटनाओं को पेश करने का प्रशिक्षण नहीं है । खबरों की प्रस्तुति में केवल खानापूत्ति हो रही है । टीआरपी रेटिंग की दौड़ में चैनलों के पास विषय सामग्री का अभाव हो गया है । वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने कहा कि चैनलों ने ६० घंटों तक मुंबई आतंकी हमलों को रियलिटी शों में तब्दील कर दिया । सनसनीखेज तरीके से “भारत पर हमला हुआ” को पेश किया गया । उन्होंने कहा कि सेना व पुलिस उस वक्‍त क्या कर रही थी? उसका प्रसारण करने का मतलब क्या है? मुंबई ही नहीं पूरा देश दहशत में था और कमांडो कारवाई का प्रसारण किया जा रहा था । जबकि 9/11 के दौरान अमेरिकी टेलीविजन पर केवल लिखा आता था वार ऑन अमेरिका वास्तव में मीडीया का संपन्‍न वर्ग पूरी तरह नियंत्रण विहीन हो चुका है उसे नियमों, कर्त्तव्यों की कोई परवाह नहीं है । नियमों की धज्जियाँ तो बड़े समूहों द्वारा ही उड़ाई जाती है जबकि छोटे समूह के लिए हमेशा तैयार रहता है नियमों का डंडा संपन्‍न और प्रभावशाली का यह अर्थ कतई नहीं है कि आप स्वयं को महिमामंडित ही करते रहें और दूसरों की अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगाएँ मीडीया क्षेत्र में परिपक्ब भूमिका निभाने की आवश्यकता सबों की है । अपने ब्लॉग पर जाने माने निर्माता-निर्देशक रामगोपाल वर्मा तो मीडीया के संबंध में अपनी अलग ही राय व्यक्‍त करते हैं । वे मानते हैं कि मीडीया आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि आतंकवादी जहाँ व्यक्‍ति की हत्या कर डालते हैं वही मीडीया अपनी व्याख्या और आक्षेप के जरिए व्यक्‍ति की सोच पर हमला कर उसकी अंतरात्मा को खत्म कर देता है । अगर निहत्थे लोगों पर हमला करनेवालों को आतंकवादी कहा जाता है तो विभिन्‍न स्तरों पर मीडीया अपने दबाब डालनेवाले तरीके और आक्षेप के जरिए यही काम करता है । उन्होंने लिखा है कि आतंकवादी व्यक्‍ति की सोच पर हमला करता है और उसकी हत्या कर उसके शरीर को खत्म कर देता है परंतु मीडीया अपनी व्याख्या के जरिए लोगों के दिमाग पर हमला बोलता है और अपने आक्षेपों के माध्यम से लोगों की आत्मा को खत्मकर डालता है । वर्मा ने कहा कि मैं एक तरह से यह कहना चाहूंगा कि मीडीया आतंकवादियों से कही अधिक खतरनाक है क्योंकि वे यह काम मूल्यों की रक्षा के बहाने से करते हैं । उन्होंने मीडीया पर यह नाराजगी टीवी पर दिखाए गए उन फुटेज तथा उसके बाद शुरू हुई आलोचना के संदर्भ में जाहिर की थी जिनमें वर्मा महाराष्ट्र के निवर्त्तमान मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख तथा उनके पुत्र एवं अभिनेता रितेश देशमुख के साथ आतंकवादी हमले का शिकार हुए ताज महल होटल में नजर आ रहे थे । आजकल इलैक्ट्रोनिक मीडीया अपनी टी. आर. पी. बढ़ाने के चक्‍कर में क्या-क्या नहीं करता, तथ्यों को कैसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है इसका ताजा उदाहरण आरूषि हत्याकांड जिसमें पुलिस ने आरूषि की हत्या के जुर्म में उसके पिता डा. राजेश तलवार को ही गिरफ्तार कर लिया गया और हर न्यूज चैनल ने इसे ब्रेकिंग न्यूज बनाकर इस तरह पेश किया कि उसका हत्यारा उसका निर्दयी पिता ही है, मायावती ने इसकी जांच देश की सबसे बड़ी एजेंसी सी.बी.आई. को दी और उसने उसे निर्दोष साबित कर दिया गया और वह 50 दिन बाद जेल से छूटा । अब ऐसा ही उदाहरण अहमदाबाद के संत आसाराम बापू का है जिनके गुरूकुल अहमदाबाद और छिंदवाडा में मरे बच्चों की खबरों को मीडीया ने इतना उछाला कि जैसे आसाराम बापू ही इसके दोषी हैं । मीडीया ने बापू की बातों को ऐसे तोड़-मरोड़ के पेश किया गया जैसे बापू को इन बच्चों की मुत्यु पर दुख ही न हो । दिल्ली के रजोकरी आश्रम में साधकों से बात की, तो पता चला कैसे इंडिया टी.वी. ने अपने लाईव कवरेज दिखाने के बाद छिंदवाडा में मेरे बच्चे राम कृष्ण यादव और वेदान्त के माता-पिता का कवरेज दिखाया ही नहीं, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे अपनी मर्जी से बापू के आश्रम में रह रहे हैं । ज्ञात रहे कि इंडिया टी.वी ने अपने स्टिंग आपरेशन में कहा था कि छिंदवाडा में मरे बच्चे के मां बाप को बापू ने बंधक बनाकर अपने आश्रम में रखा गया है, जबकि सभी दूसरे चैनल कह रहे थे कि छिंदवाडा में मरे बच्चों में माँ आप अपनी मर्जी से आश्रम में रह रहे हैं । क्या टी. आर. पी बढ़ाने के चक्‍कर में इंडिया टी.वी जैसे न्यूज चैनल किसी पर कोई भी मनगढ़ंत आरोप लगा सकता है? ऐसा करने से उस चैनल पर लोगों का विश्‍वास कम होता है बढ़ता नही है, और चैनल से लोगों का बिल्कुल ही विश्‍वास खत्म हो जाता है ।

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