Thursday, July 16, 2009
कैसे हो आम आदमी का सशक्तिकरण
यह युग है शक्ति का, विज्ञान का, भौतिकता का, प्रगति का, प्रतिस्पर्धा का, अणु और परमाणु का, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति शीघ्र शक्तिमान बनना चाहता है । इस होड़ में प्रत्येक राष्ट्र सम्मिलित है । व्यक्ति सफलताओं की सीढ़ीयाँ चढ़ते जाना चाहता है परन्तु जब वह किसी सीढ़ी पर ठहर जाता है और उसकी अपनी शक्ति जवाब दे जाती है तब वह किसी अदृश्य शक्ति से पुनः शक्ति संचित करना चाहता है । वह शक्ति उसे मिलती है उस महाशक्ति से जो समस्त सृष्टि को अपनी शक्ति से संचालित करती रहती है और वह शक्ति है मातृशक्ति । हमें मातृशक्ति को सुरक्षा और सम्मान के साथ-साथ शिक्षा एवं रोजगार में प्राथमिकता देनी होगी । बिना इसके भारत के आम आदमी के सशक्तिकरण का सपना बेकार की बात है । इसके साथ ही हमें आध्यात्मिकता की राह पर चलना पड़ेगा क्योंकि यही वही वह रास्ता है जिसके बलबूते हम शांति, स्वास्थ्य और सौहार्द्र वातावरण की कल्पना को साकार कर सकते हैं । हमें अपने प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर यथा आयुर्वेद और योग को प्राथमिकता देना होगा । देखिए तो सही, बदलाव होता है या नही ? हर बदलाव की शुरूआत विचार से ही शुरू होती है । बीते समय को जाँचकर भविष्य की योज्ना बनाने में हमें संतुलन पूरा ध्यान रखना होगा । हम लोगों की जिज्ञासाएँ दीर्घकालीन हो गई है । आज चिंतकों ने कई एक साल आगे की योजनाओं पर आज से सोचना शुरू कर दिया है । कहावत है कि “भविष्य के बारे में सोचो और अतीत को अवश्य ध्यान रखो” मगर परेशानी शुरू तब होती है जब तक अतीत से सीख तो लेना चाहते हैं परन्तु उससे बँधना नहीं चाहते । कुछ हद तक यह ठीक भी है । वैश्विक परिवर्त्तन के इस युग में हमें यह सोचना ही चाहिए कि ऐसा क्या करें जो संपूर्ण विश्व को बदल दे । इतिहास गवाह है कि अगर विचार प्रबल हो तो उसको वास्तविकता के धरातल पर मूर्त्त रूप लेने में समय नही लगता । कभी-कभी हम सोचने से डरते हैं क्योंकि हमें यह तो पता हैं कि क्या नहीं हो सकता है अर्थात नकारात्मकता की शुरूआत ही हमारेविचार दृष्टि को शिथिल कर देती है । मगर यदि मान लें कि सब कुछ हो सकता है और फिर सोचे तो देखेंगे कि हम अपने उद्देश्यपूर्ति में सफल हो गए । हमें यह सोंचने की आदत डालनी होगी कि “एवरी थिंग इज पॉसिबल” अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के जीतने का मूलमंत्र था- “यस आई कैन डू” अर्थात मैं कर सकता हूँ । आज हमें सकारात्मकता को अपने विचार शैली का अंग बनाना ही पड़ेगा तभी हम संपूर्ण हो सकेंगे । जीवन में कई चीजें बदलाव चाहती है परंतु हमारी दकियानुसी सोच यह सोचने को बाध्य करती है कि यही चला आ रहा है और यह पद्धति हमें एक ही ढ़र्रे की जिंदगी जीने को मजबूर करती है जबकि बदलाव के लिए चाहिए हिम्मत सोंचने के साथ ही उस पर अमल करने की अगर हम वास्तव में बदलाव चाहते हैं तो हमें कुछ नए ढंग से सोचने का साहस करना पड़ेगा । “कौन कहता है आसमाँ में सुराग नहीं हो सकता , एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों । ” हमारा देश बदलावों से गुजर रहा है और अर्थव्यवस्था के विकास में अहम भूमिका निभाने के लिए तैयार है । स्पर्धा में आगे रहने और भावी चुनौतियों का सामना करने के लिए शिक्षण संस्थानों को सुधार एवं अभिनव्प्रयोग करने चाहिए । उत्कृष्टता का नमूना अपनाकर कुशलता में बेहतरी और प्रभावशीलता बढ़ती है । दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल एवं वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को प्राथमिक शिक्षा पर बजट आवंटन बढाने एवं नैतिक शिक्षा को अनिवार्य पाठयक्रम के रूप में मान्यता देने का औचित्य ही समझ में नहीं आता । हमारे नीति निर्माण मैकाले की शिक्षा पद्धति एवं विदेशी सभ्यता-संस्कृति के रंग में पूर्णतः रंग चुके हैं । समलैंगिकता की मान्यता देने की चुनौती वास्तव में पाश्चात्य शैली की देन है । समाज एवं राष्ट्र को विघटित प्रदूषण करने की सुनियोजित षडयंत्र चल रहा है जिसका नमूना भर है यह उदाहरण । भारतीय संस्कृति में ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त सर्वोपरि माना गया है । नर की सेवा ही नारायण की सेवा है । मानव सेवा ही माधव सेवा है । उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री जनता के रकम का उपयोग मूत्तियाँ लगाने में कर रही है, क्या यह न्यायोचित है? मैग्सेसे पुरस्कार विजेता एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि “वक्त की जरूरत यही है कि आम आदमी के हाथ में ताकत दी जाय । टैक्स के रूप में लिए जाने वाले आम आदमी के पैसे के खर्च का अधिकार उसी के पास होने चाहिए । जब हम केंद्रीय स्तर पर नियमन यानी रेग्युलेशन्की बात करते हैं, तो दो बातें मुझे सबसे महत्वपूर्ण लगती हैं एक आज उन्हीं क्षेत्रों में नियमन हो रहा है, जहां से सरकार अपनी भूमिका को या अपने नियंत्रण को समेट रही है यानी जिन-जिन क्षेत्रों में निजीकरण हो रहा है, वहां नियामक प्राधिकरण बनाए जा रहे हैं, मसलन, टेलीकॉम क्षेत्र है या बिजली क्षेत्र है, लेकिन इसमें हमें एक बात का ध्यान रखना होगा कि उन्हीं क्षेत्रों में इस तरह के कदम उठाए जहां गरीबों पर सीधा असर नहीं पड़ता है जैसे एक गरीब आदमी के लिए टेलीफोन मूलभूत जरूरत है, लिहाजा यहां अगर निजीकरण के बाद नियमन कर दिया जाता है, तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन सरकार अगर कहे कि शिक्षा क्षेत्र का निजीकरण कर एक नियामक प्राधिकरण बना दिया जाए तो उससे मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं जिन क्षेत्रों से हमारी गरीब जनता सीधे तौर पर प्रभावित होती है, वहां तो सरकार का नियंत्रण ही जरूरी है । वहां हम नियामक प्राधिकरणों पर भी पूरा भरोसा नहीं कर सकते । अब यहां भी हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि जहां प्रतियोगिता है, वहां तो कीमतें और गुणवत्ता का निर्धारण कंपनियां प्रतियोगिता के आधार पर ही कर सकती हैं । जैसे दूरसंचार का क्षेत्र है । वहां कंपनियो के बीच प्रतियोगिता ज्यादा है, इसलिए कीमतें अपने आप कम रहती हैं और ग्राहकों को अच्छा सेवाएं उपलब्ध करवाना निजी कंपनियों की मजबूरी हो जाती है । लेकिन ध्यान देने की जरूरत वहां है, जहां इस तरह की प्रतियोगिता का अभाव है, जैसे बिजली का क्षेत्र है । इसमें चूंकि बहुत ज्यादा प्रतियोगिता नहीं है, इसलिए यहां नियमन की सबसे अधिक जरूरत है । इस तरह पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नियमन वहां हो, जहां गरीब लोगों पर इसका सीधा असर न पड़े और प्रतियोगिता की संभावना कम हो, ताकि आम आदमी के हितों की न्यायसंगत रक्षा हो सके । दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मैं इन नियामक प्राधिकरणों के बारे में महसूस करता हूं कि ये प्राधिकरण सिर्फ सेवानिवृत नौकशाहों की आरामगाह बनकर रह गए हैं । ये लोग मुख्यमंत्रियों या केंद्रीय मंत्रियों की समितियों द्वारा नियुक्त कर दिए जाते हैं, यानी राजनीतिक दल अपने खास लोगों को अच्छे पद के नाम पर इनका इस्तेमाल करते हैं । इसलिए इन लोगों में न तो जरूरी तकनीकी दक्षता होती है और न ही सही दृष्टिकोण, दरअसल सारी उम्र लालफीताशाही में काम करने के बाद इनकी सोच उसी दायरे में सिमट जाती है और उसका असर नियमन में भी नजर आता है । इस तरह इन नियामक प्राधिकरणों का भी नौकशाही के ढर्रे पर चलने वाली सरकारी संस्थाओं जैसा हाल होने का खतरा बना ही रहता है । नतीजतन वह मूल भावना ही खत्म हो जाती है, जिससे इन्हें बनाया जाना है । नियमन में एक बड़ी कमी मुझे महसूस होती है कि इसमें आम आदमी की भलाई का मकसद तो है, लेकिन उस आम आदमी की भागीदारी कहीं नहीं है । इसे मैं एक उदाहरण से समझता हूं । मैं दिल्ली से सटे गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) के कौशांबी में रहता हूं । वहां हम लोग ९२ लाख रूपये का आवास कर सरकार को देते हैं और सरकार का कहना है कि वह इस पैसे को हमारे क्षेत्र की भलाई के लिए खर्च करती है । लेकि हैरत की बात यह है कि यह पैसा कहां खर्च होना है, किस लिए खर्च होना है और हमारी जरूरतें क्या हैं, ये बातें हमसे पूछी ही नहीं जाती । हम एक दिन सुबह उठते हैं और देखते हैं कि हमारे इलाके में सड़क बन रही है, जबकि हो सकता हैं कि हमारी ज्यादा बड़ी जरूरत पीने का पानी हो । और जब हम अपनी असली जरूरतों के लिए सरकारी दफ्तरों में जाते हैं तो कहा जाता है कि पैसा नहीं है तो यहां नियमन क्यों नहीं हो सकता? ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि मेरे इलाके में क्या काम होना है, इसका फैसला मैं ही करूं? अगर एक प्राधिकरण बनाया जाए जिसमें स्थानीय क्षेत्र का उचित प्रतिनिधित्व हो तो काम बेहतर होगा और नियमन का असली मकसद यानी लोगों की परेशानियों का हल भी पूरा होगा । मेरा मानना है कि असली प्रशासक आम आदमी ही होना चाहिए । यही जरिया है उसके चेहरे पर मुस्कुराहट लाने का ।
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