Thursday, July 16, 2009
समलैंगिता के खिलाफ ज्योतिषी ने खोला मोर्चा
समलैंगिता को अपराध के दायरे से बाहर रखने के उच्च न्यायालय के फैसले पर उच्चतम न्यायालय ने अपनी हथौड़ा चला दिया है । सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को जाँच के दायरे में ला दिया है जिसके तहत उसने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था । मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालकृष्णन एवं न्यायाधीश पी. साथशिवम की एक पीठ ने केन्द्र और नाज फाउंडेशन नामक गैर सरकारी संस्था की उस याचिका पर नोटिस जारी किया है जिसके मुताबिक देश में समलैंगिकता का वैध बनाने की माँग की जा रही थी । हालांकि सर्विच्च न्यायालय ने उस याचिका को खारिज कर दिया जो दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगान की माँग कर रही थी । उसका कहना है कि केन्द्र और दूसरे पक्षं के विचार जाने बगैर इस पर फैसला लेना मुमकिन नहीं है । इस मामले की अगली सुनवाई २० जुलाई को होगी । सर्वविदित है कि उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ ज्योतिषी एस. के. कौशल ने याचिका दायर की थी । कौशल की तरफ से एडवोकेट प्रवीण अग्रवाल ने कहा कि उच्च न्यायालय आदेश का समाज पर बुरा असर पड़ेगा । उन्होंने देश में हुए सात गे शादियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है । न्यायालय ने कहा कि फैसले में शादियों के बारे में कोई बात नहीं थी । सिर्फ समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखा था । न्यायालय ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय का फैसला सिर्फ भारतीय पीनल कोड की धारा ३७७ को लेकर है । यह कानून १८६० से है और कुछ गिने-चुने मामलों में ही इसका इस्तेमाल किया गया है । न्यायालय ने कहा कि पुलिस इस तरह के मामले मेंकोई शिकायत दर्ज नहीं करती है । बीते १३० से भी ज्यादा वर्षों में बच्चों के साथ दुष्कर्म को छोड़कर कुछ ही मामलों में इसका इस्तेमाल किया गया है । न्यायाधीश बालाकृष्णन के अनुसार मेरी जानकारी के मुताबिक गे मामलों में किसी को सजा नहीं हुई है । एड्वोकेट अग्रवाल ने अपनी याचिका में कहा था कि इस तरह की शादियों पर रोक लगनी चाहिए, जिस पर पीठ ने कहा ‘हमलोगों में शादी की परिभाषा नहें बदली है । परस्पर सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंधों को दंडनीय अपराध के दायरे से बाहर करने के दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से इस अत्यधिक संवेदनशील और विचारोत्तेजक विषय पर एक नई बहस को जन्म दे दिया था । समलैंगिक संबंधों के बारे में हाईकोर्ट की इस क्रांतिकारी व्यवस्था ने स्त्री-पुरूष के संबंधों से इतर उधर रहे वर्ग के लिए सामाजिक मान्यताओं को नए सिरे से लिखने का प्रयास किया है । हाईकोर्ट का यह फैसला अंतिम न्यायिक व्यवस्था नहीं है । यह मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट पहुँच चुका है । वैसे तो भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ में अपेक्षित संशोधन होने तक दिल्ली में हाईकोर्ट के इस फैसले को एक नजीर रूप में पेश कर सकेंगा क्योंकि इतने अधिक संवेदनशील विषय पर यह पहली न्यायिक व्यवस्था है । समलैंगिकता पर दी गई इस न्यायिक व्यवस्था की विभिन्न धार्मिक नेताओं ने तीखी आलोचना की है । धार्मिक नेताओं का मानना है कि इस व्यवस्था से यौन स्वच्छंदता कायम होगी । कुछ धार्मिक नेता समलैंगिकता को एक तरह की मानसिक बीमारी मानकर इसके उपचार के लिए योग और ध्यान जैसे उपाय करने की हिमायत भी करते हैं । ऐसी स्थिति मेंइस विवादास्पद विषय पर अब सुप्रीम कोर्ट की सुविचारिता व्यवस्था की आवश्यकता है । हाईकोर्ट की इस व्यवस्था को लेकर नैतिकता और सामाजिक मूल्यों की दुहाई देने का सिलसिला भी शुरू हो गया है । परस्पर सहमति से समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता देने की न्यायिक व्यवस्था के बाद अब सवाल खड़ा हो गया है कि आने वाले समय में भारतवर्ष में समलैंगिक विवाह को भी क्या मान्यता मिल जाएगी? यदि ऐसाहोता है तो अनेक कानूनी समस्याएं और चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं और सरकार्तथा विधायिकाको कानूनी प्रावधानों पर नए सिरे से गौर करना पड़ सकता है । समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने वाले संगठनों का तर्क है कि वे धारा ३७७ को समाप्त करने के पक्षधर नहीं रहे हैं । उनका यही मानना है कि विचारों में हो रहे बदलावों के मद्देनजर १५० साल्पुराने इस कानूनी प्रावधान में भी सुधार किया जाए लेकिन जबरन अप्राकृतिक यौनाचार करनेया बल यौनाचार को इस धारा के तहत दंडनीय अपराध बनाए रखना चाहिए । दूसरी ओर, समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिए जाने से असहमति रखने वाले वर्ग का मानना है कि चंद पश्चिमी देशों की तरह भारत में इसका अनुसरण करना उचित नहीं है। एक अनुमान के अनुसार भारत में इस समय समलैगिक संबंध रखने वालों की संख्या करीब २५ लाख है । कानून के जानकार महसूस करते हैं कि समाज के इस प्रवृत्ति वाले लोगों के हितों की रक्षा करना परम आवश्यक है । हाईकोर्ट ने इस वर्ग के समता के अधिकारों की ही रक्षा की है जिसकी वजह से अब पुलिस अनावश्यक रूप से उन्हें हैरान और परेशान नहीं कर सकेगी । बहरहाल, इस मुद्दे पर अच्छी-खासी बहस छिड़ चुकी हैं । कई पहलुओं पर विचार जरूरीसमलैंगिक होना एक मनोवैज्ञानिक विकृति है या सहज जैविक स्थिति, इस बहस ने पश्चिमी समाजों मेंपिछले कुछ दशकों में जोर पकड़ा है । संसार का कोई भी समाज समलैंगिक प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं है, लेकिन संतानोत्पनि से कोई संबंध न होने के कारण इसे प्राकृतिक मानने के बजाय हर जगह एक तरह की विकृति के तौर पर ही देखा जाता रहा है । भारत में अंग्रेजी कानून से पहले इसे आपराधिक कृत्य भले न माना जाता रहा हो लेकिन अनैतिक जो इसे समझा ही जाता था । दरअसल, समलैंगिक यौन व्यवहार काफी बड़े दायरे की चीज है, जिसमें यह तय करना कठिन है कि कौन लोग इसमें अपनी जैविक मजबूरियों के कारण शामिल है और कौन शौकिया तौर पर या किसी मजबूरी में इसमें शामिल हो गए हैं । ज्यादातर समलैंगिकों के अतीत में झांकने पर पता चलता है कि बचपन में वे किसी यौन दुष्कर्म के शिकार हुए थे और फिर उनके लिए सामान्य यौन व्यवहार के दायरे में आना कठिन होता चला गया । इसी तरह समलैंगिक व्यवहार से जुड़े कई लोगों का दखल विपरीत लिंगी यौन व्यवहार में भी बराबर का ही होता है । इससे एक खतरनाक स्थिति बनती है, जहां समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करते ही अपराधों का एक बड़ा दायरा खुल जाता है । दो वयस्क लोग यदि परस्पर सुविचारित सहमति से आपस में यौन संबंध बनाते हैं तो इसके लिए उन्हें अपराधी करार देना एक नजर में न्याय शास्त्र की कसौटी पर खरा उतरता नहीं मालूम पड़ता । लेकिन अगर सहमति को ही एकमात्र आधार माना जाए तो दुनिया के सारे आपराधिक कानूनों के दायरे से सबसे पहले परस्त्रीगमन या एडल्टरी को बाहर किया जाना चाहिए । ऐसा नहीं किया जाता तो इसका कारण यही है कि समाज का एक न्यूनतम ढआंचा बनाए रखने के लिए यौन संबंधों के मामले में केवल दो व्यक्तियों की आपसी सहमति ही काफी नहीं है । आपराधिक कानून में समलैंगिकता के लिए जगह तय करते वक्त सिर्फ डाई हार्ड समलैंगिकों को मजबूतियों का ही नहीं, समाज पर पड़ने वाले इसके असर का भी आकलन किया जाना चाहिए ताकि यह समाज में यौन विकृतियां बढ़ाने का बहाना न बन जाए । राजनीतिक दलों के लिए विकट स्थितिसमलैंगिकता कोअपराध बताए जाने वाली आईपीसी की धारा ३७७ को खत्म करने का फैसला लेना केंद्र सरकार के लिए आसान नहीं है । उदार विचारों के माने जाने वाले केंद्रीय कानऊन मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा है कि सरकार जल्दबाजी में नही है । स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने कहा कि इस मामले पर में चर्चा होना चाहिए । अदालत में इस धारा के अंतर्गत गिरफ्तार लोगों ने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देते हुए याचिकाएं दाखिल कर रखी है । पिछली बार इस मामले में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल और स्वास्थ्य मंत्री ए. रामदास के विचार अलग-अलग थे । पुआने खयालात के पाटिल ३७७ हटाए जाने के विरोधी थे, जबकि रामोदास इस धारा को आउटडेटेड मानते थे । अब प्रधानमंत्री ने संबंधित मंत्रालयों से कहा है कि वे इस मामले में आमराय बनाकर अदालत को मांगी हुई जानकारी उपलब्ध करवाएं । राजनीतिक दल इस विवादास्पद मुद्दे पर बहुत सावधानी बरत रहे हैं । सत्ताधारी कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल बीजेपी के नेता समलैंगिकता के सवाल पर अपनी राय जाहिर करने से बचना चाह रहे हैं । कांग्रेस के प्रवक्ता डॉ. शकील अहमद ने कहा कि इस मामले में पार्टी की कोई राय नहीं है । उन्होंने गेंद सरकार के पाले में डालते हुए कहा कि फैसला सरकार को ही करना है । डॉ. शकील ने कहा कि सरकार की तरफ से कहा जा चुका वह समाज के विभिन्न वर्गो और धार्मिक नेताओं से बात करके इस मामले में कोई फैसला लेंगे । एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने कहा कि हमें वोट तो दोनों के चाहिए । मगर समाज का बड़ा हिस्सा और भारत के सभी प्रमुख धर्मों के नेता इसे अनैतिक बताते हुए ३७७ को बनाए रखने के पक्ष में माहौल बनाने में लग गए हैं । जो भी नेता इस मुंह खोलेगा उसे मुश्किल हालात का सामना करना पड़ेगा । इस विषय पर बात करते हुए हर नेता ने कहा कि प्लीज उसकी पहचान छिपाई जाए । हाल ही मेंलोकसभा जीतकर आए एक सांसद ने कहा कि अगर हम समलैंगिकता को कानूनी दर्जा देने की बात कहते हैं तो देहांत में लोग हमें मारेंगे । गांवों में जबर्दस्त सेंस ऑफ ह्यमर (हास्य बोध) होताहै । वहां हम पर ऐसे-ऐसे कटाक्ष किए जाएंगे कि आप सोच नहीं सकते । गां के लोग हंसकर कहेंगे कि भाई साहब आप भी? और अगर हम ३७७ को बनाए को बनाए रखने की बात कहते हैं तो यहां शहरों में लोग हमे दकियानूसी कहेंगे । केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने कहा कि धारा ३७७ को खत्म करने का मुद्दा सिर्फ कानून या स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ ही है, बल्कि हमारी संस्कृति से भी जुड़ा हुआ है । ऐसे में इस पर सड़क से लेकर संसद तक बहस होनी चाहिए । इसके सभी सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा के बाद ही कोई फैसला लिया जा सकता है । कॉन्फ्रेंस के दौरान उस समय पूरा हॉल हंसी से गूंज उठा जब आजाद से यह पूछा गया कि समलैंगिकता पर उनकी अपनी क्या राय है, उन्होंने हल्के फुल्के अंदाज में कहा कि मैं समलैंगिक नहीं हूं । मोइली अपने बयान से पलटेकानून मंत्री वीरप्पा मोइले ने आईपीसी की धारा ३७७ पर अपने पिछले बयान से पलट गए हैं । पहले उन्होंने कहा था कि सरकार समलैंगिकता को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों में सुधार लाने के बारे में सोच रही है । अब उनका कहना है कि मेरे बयान का गलत मतलब निकाला गया । यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने जल्दबाजी में बयान दे दिया, मोइली का कहना था, मैंने आईपीसी की कुछ धाराओं में सुधार की बात कही थी । देवबंद भी समलैंगिकता के खिलाफइस्लामिक शिक्षण संस्था दारूलुलूम देवबंद ने केंद्र द्वारा धारा ३७७ के तहत समलैंगिकता पर लगी रोक को हटाने के प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया है । दारूल उलूम का कहना है कि अप्राकृतिक सेक्स इस्लाम सिद्धांत के खिलाफ है । दारूल उलूम देवबंद के डिप्टी वाइस चांसलर मौलाना अब्दुल खालिक मद्रासी ने कहा, समलैंगिकता शरीयत कानून के तहत अपराध है और इस्लाम में इसे हराम माना जाता है । मद्रासी ने केंद्र से आईपीसी की धारा ३७७ न हटाने कोकहा है । इसके तहत समलैंगिकता को आपराधिक दर्जा दिया गया है । दारूल उलूम का यह ऐतराज केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के उस बयान के बाद आया है जिसमें उन्होंने कहा था आईपीसी की धारा ३०७ को खत्म करने का फैसला समाज के सभी वर्गों के विचार जानने के बाद लिया जाएगा । इनमें चर्च जैसे धार्मिक ग्रुप भी शामिल होंगे । ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सालिम कासमी ने भी समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देते, हुए कहा, समलैंगिकता इस्लामिक कानून और आईपीसी की धारा ३७७ के तहत दंडनीय है । इसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी । बोर्ड के एक और सदस्य मौलाना मोहम्मद सूफियान कासमी और उत्तर प्रदेश इमाम संगठन के प्रेजिडेंट मुफ्ती जुल्फिकार ने भी इसी तरह की बातें कही । कासमी का कहना था कि समलैंगिकता को कानूनी घोषित करने से समाज को नुकसान हो सकता है ।
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