Thursday, July 16, 2009

आध्यात्मिकता को जीवनशैली में शामिल करने की आवश्यकता

धर्म ईश्‍वर के प्रति आस्था रखनेवाले लाखों लोगों के धार्मिक संगठनों एवं पूजा स्थलों के प्रति आकर्षण क्या वाकई फायदेमंद है? दस वर्षों से धर्म और स्वास्थ्य के आपसी संबंध पर शोध कर रहे मियामी विश्‍वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्राध्यापक एवं अनुसंधानकर्त्ता माइकेल मैक्‍कलो के अनुसार धर्म को अपेक्षाकृत कम आँकना काफी मुश्किल है । उनके निष्कर्षों के उपरान्त मनुष्य के स्वास्थ्य पर धर्म के असर को लेकर अच्छी सारी बहस छिड़ चुकी है । प्रोफेसर मैक्‍कलो ने प्रयोगिक तौर पर अपने विश्‍वविद्यालय कोरल गैंबल्स कैंपस में अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले सैकड़ों लोगों की क्षमताशीलता और अहसास मानने की प्रवृत्ति को विशेष रूप से दर्ज किया और इसे उनके सामान्य स्वास्थ्य, अवसाद की स्थितियों और नशे की आदतों से जोड़कर देखा । इस परिप्रेक्ष्य में वे सबसे एक ही सवाल करते रहे “क्या आप ईश्‍वर में विश्‍वास रखते है, और हाँ तो कितना? मैक्‍कलो के शोध से पता चला है कि चाहे वे किसी भी धर्म के हो, आस्तिक लोग नास्तिक के बजाय पढ़ने-लिखने में आगे रहने, दीर्घायु एवं सफल वैवाहिक जीवन के स्वामी होते है । उक्‍त विषय पर मैक्‍कलो एक दर्जन से भी अधिक ‘स्टडी रिपोर्ट’ तैयार कर चुके हैं । इनमें साइकोलॉजिकल बुलेटिन में प्रकाशित ताजा रिपोर्ट भी शामिल है जिसमें कहा गया है कि अगर आप धूमपान छोड़ना चाहते हैं तो आपको धार्मिकता की शरण में आना चाहिये । इसी तरह ‘जर्नल ऑफ ड्रग इश्यूज’ में उन्होंने लिखा है कि शराबखोरी के शिकार मोहल्ले में चर्च खोल देने का चमत्कारिक असर देखने को मिला । ऐसा इसलिए कि धार्मिक आस्था रहने वाले लोगों में आत्मनियंत्रण की क्षमता दूसरों के मुकाबले ज्यादा होता है । यही कारण है कि धार्मिक लोग शरीर और मन से फिट रहने के अलावा ज्यादा संपन्‍न भी होते हैं । अमेरिकन ह्‍यूमैनिस्ट एसोसिएशन वॉशिंगटन डीसी के अध्यक्ष डेविड नियोस मानव कल्याण के वास्ते नैतिक जीवन जीने की वकालत करते है । प्रोफेसर मानसिक स्वास्थ्य के लिए कर्मकांड ःप्रोफेसर मैक्‍कलो धर्म का इस तस्वीर का एक पहलू मानते हैं । इसके साथ ही व्यक्‍ति की नस्ल, उम्र और वर्ग का भी उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर काफी असर पड़ता है । उनके जीवन की विशेषताओं पर इनका अच्छा प्रभाव पड़ता है । वे यह भी कहते है कि धर्म के मामले में कुछ खामियाँ भी है । जैसे कि आस्तिक व्यक्‍ति में खुद पर काबू रखने की जो विशेष कूवत नशे की लत तक छुड़ा देती है वहीं दूसरी ओर फिदायीन आतंकवादी भी बना सकती है । मैक्‍कलो कहते हैं कि होली कम्युनियन, संडे प्रेयर्स, भजन संध्या, सत्संग, रात्रि जागरण, भंडारा आदि का भी जबरदस्त सकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है । यह अलग बात है कि उनके द्वारा किए गए अध्ययन मेंज्यादातर पात्र इसाई थे मगर उनका कहना है कि यह निष्कर्ष हर धर्म के अनुयायियों पर लागू होता है । वास्तव में अपने धर्म में निर्धारित दायरों को समझते हुए नैतिकता, अहंकार और जिम्मेदारी की हदों का ध्यान रखकर स्वयं का ही बल्कि पूरे समाज को शारिक और भावनात्मक तौर पर उत्कृष्ट बनाया जा सकता है । पूजा एवं प्रार्थना का महत्व ःप्रो० मैक्‍कलो कहते हैं कि प्रार्थना और पूजा में गजब की ताकत होती है । जब वैज्ञानिकों ने पूजा के दौरान इंसानी दिमाग की तस्वीरों का मिलान अपने प्रियपात्र से मिलकर बहुत खुश और स्वस्थ महसूस कर रहे लोगों की तस्वीरों से किया तो उन्होंने पाया कि उनमें काफी समानताएं है । इसका तात्पर्य है कि अगर हमारी आस्था सच्ची और गहरी है तो हमारी स्वास्थ्य पर भी इसका अवश्य प्रभाव पडेगा । बेशक आप इसलिए धार्मिक होते हैं । कि अपने परिवार को निराश नहीं करना चाहते अथवा फिर किसी वजह से स्वयं को दोषी महसूस कर रहे हों । उनका मानना है कि जीवन में काफी देर से धार्मिक बनने या धर्म बदलने वाले लोग इसका सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं । नास्तिक या धर्म विमुख लोगों का धर्म के जुड़ाव के बाद इस भावना का संचार होता है कि वे स्वयं के लिए नहीं बल्कि ईश्‍वरीय सत्ता के लिए जी रहे हैं । अपने से विराट किसी शक्‍ति में आस्था रखने से आत्मनियंत्रण और ज्यादा मजबूत हो जाता है । अपने प्रयोगों के माध्यम से मैक्‍कलों ने इसे सिद्ध किया है । उदाहरण स्वरूप कुछ लोगों ने पूछा कि अधिक राशि? इसके उत्तर में अधिकतर आस्थावान लोगों ने बड़ी राशि पाने हेतु एक महीने की प्रतीक्षा का संतोष दिखाया । उनका मानना है कि धार्मिक प्रवृत्ति के लोग कानून की आवहेलना कम करते है, अवैध संबंधों से परहेज तथा नशे की आदत के भी वे कम शिकार होते हैं । सवा लाख लोगों पर किए सर्वेक्षण के परिणाम के अनुसार धार्मिक लोगों का जीवनकाल अन्य के बनिस्पत २९ प्रतिशत अधिक होती है । सहनशक्‍ति का स्त्रोत ः“जर्नल ऑफ क्लिनिकल एंड सोशल साइक्लोजी” में प्रकाशित मैक्‍कलो के अध्ययन में ६४ केस स्टडीज को शामिल किया गया था, जिसमें धर्म के साथ हाइपर-टेंशन और हार्ट‍अटैक जैसे स्वास्थ्य के मुद्‌दों का रिश्ता को केंद्रविंदु में रखा गया था । इससे पता चला कि अन्य लोगों के बनिस्पत प्रतिदिन पूजा-पाठ और सत्संग करनेवाले ज्यादातर लोगों को ऐसी कोई समस्या नहीं थी । इतना ही नहीं धार्मिक लोगों में मानसिक और शारीरिक कष्ट सहने की क्षमता भी अपेक्षाकृत ज्यादा पाई गई । यूरोलोजिस्ट डॉ० मैन्युअन पैड्रन का कहना था कि ईश्‍वर में आस्था रखनेवाले उनके ज्यादातर मरीज किसी भी तकलीफ को झेलने में ज्यादा परेशान नहीं आए बल्कि हर परिस्थिति में दृढ़ रहे और वे डगमगाए नहीं । इसी प्रकार अहसान मानने का माद्‌दा भी आस्तिकों में ही ज्यादा देखने को मिलता है । मैक्‍कलो का मानना है कि इससे उनके जीवन में अन्य लोगों की तुलना में २५ प्रतिशत खुशियों की बढ़ोत्तरी हो जाती है । मंत्रोच्चारण से लहलहाएंगी फसलें ःकृषि विश्‍वविद्यालय पालमपुर के वैज्ञानिक इन दिनों वैदिक मंत्रोच्चारण से खेती करने के अनूठे शोध में जुटे हुए है । इनका मानना है कि वह दिन दूर नहीं जब खेतों में लहलहाने वाली फसलें वैदिक मंत्रों से शुद्ध होंगी और उनमें कई बीमारियों को ठीक करने की खासियत भी होगी । हरि क्रांति के नाम पर रासयनिक खेती के दुष्परिणामों से किसानों को निजात दिलाने के लिए कृषि विश्‍वविद्यालय पालमपुर के मॉडल ऑर्गेनिक फोम और एग्रो फॉरेस्ट्री विभाग के वैज्ञानिकों ने पुरातन पद्धति पर शोध कर इसमें कामयाबी हासिल की है । सूर्योदय से शुरूआत ः फसल की पैदावार के समय रोज सुबह सूर्योदय के साथ मंत्रोचारण होता है ताकि फसलों को नया जीवन और शुद्धि मिले, इसके बाद हवन कुंड में औषधीय जड़ी-बूटियों की आहूति दी जाती है । ब्राजील में पहला प्रयोग ःब्राजील के जंगलों में केले की फसल तबाह होने के बाद वैज्ञानिकों ने सर्वप्रथम इस विधि का सफल प्रयोग किया था । कृषि वैज्ञानिक डॉ० वाईएस पाल के मुताबिक इससे जहां पर्यावरण शुद्ध होता है वहीं प्राकृतिक आपदाओं से भी निजात मिलती है । विश्‍वविद्यालय के २० वैज्ञानिक और चार छात्र आजकल इस विधि पर रिसर्च कर रहे है । यहां विभिन्‍न प्रकार के मंत्रों से वातावरण, मिट्‌टी, कीट, जानवरों और हवन कुंड की राख पर असर को डाटा के रूप में जमा किया जा रहा है । सुबह-सुबह कृषि विभाग के हॉल में मंत्रोचारण होता है । इसी शोध में भाग ले रही छात्रा रूचि शर्मा का कहना है कि यह किसी खास फसल के लिए लाभदायक है । फसले भी मानव की तरह सजीव है । वातावरण में लगातार हो रहे बदलाव का उन पर व्यापक असर होता है । कुल मिलाकर देखा जाय तो आध्यात्मिकता को आत्मसात्‌ कर हम अपने जीवन को खुशियों से लबरेज कर तरो-ताज कर सकते हैं । तनाव और पदूषण भरे इस माहौल में आज इसी की आवश्यकता है । आध्यात्मिकता को जीवनशैली का अंग हमें बनाना ही पड़ेगा ।

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