Saturday, October 31, 2009

भारतीय लोकतंत्र और पत्रकारिता को बचाने का मूलमंत्र दिया गोविंदाचार्य ने


कंचना स्मृति न्यास की ओर से गाँधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित कंचना स्मृति व्याख्यानमाला एवं पुरस्कार समारोह में आरा (बिहार) निवासी विख्यात गाँधीवादी विजय भाई को के. एन. गोविंदाचार्यजी ने पुरस्कृत किया । विजय भाई अखिल भारतीय शांति सेना लोक चेतना के अध्यक्ष भी हैं । जातीय दंगों को शांति कराने में डेढ़ दर्जन शिविर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । ग्राम स्वराज की चेतना एवं प्रशिक्षित लोगों के द्वारा शिक्षा तंत्र में सुधार से अकल्पनीय परिवर्त्तन हुए । ६८ युवा शांति कैप, भूदान अन्य भूमि सुधार आंदोलन, प्राथमिक शिक्षा पर अनुसंधान में इनकी विशेष क्रियाशीलता रही ।
सर्वविदित है कि क्रांतिकारी पत्रकार अवधेश की पत्‍नी कंचना ने अपने पत्रकारिता के एक दशक में ही सामाजिक सरोकार को लक्ष्य मानकर ६०० से भी अधिक साक्षात्कार लिए । उनके असामायिक निधन के बाद अवधेश जी ने अपनी पत्‍नी की पुण्यस्मृति में कंचना स्मृति के माध्यम से प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला एवं पुरस्कार समारोह का आयोजन करती है । सही बात पर सही लोगों के साथ खड़े होना, समाज एवं देश को बचाने के लिए कुछ करने की प्रवृत्ति ने अवधेशजी को न्यास के माध्यम से कुछ ठोस करने की प्रेरणा दी, जिसमें वे सफल रहे हैं ।
कंचना स्मृति न्यास द्वारा “वर्त्तमान राजनैतिक संदर्भों में पत्रकारिता की भूमिका, जनता की नजर में पत्रकारिता, पत्रकारिता में नेतृत्व का संकट, मीडिया का राष्ट्रीय दायित्व पर विचार गोष्ठी आयोजित की जा चुकी है जिसमें अनेक गणमान्य पत्रकारों एवं राजनीतिज्ञों, चिंतकों की उपस्थिति रही है ।
इस वर्ष चर्चा का विषय था “भारतीय लोकतंत्र और पत्रकारिता को कैसे बचाया जाय? चर्चा के इस सत्र में प्रख्यात चिंतक एवं भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री के. एन. गोविंदाचार्य, पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री एवं प्रसिद्ध पत्रकार राहुल देव मंचासीन थे ।
रामजन्मभूमि आंदोलन एवं आडवाणी की रथयात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने, सभी को समान अवसर दिलाने हेतु सोशल इंजीनियरिंग, सक्रिय राजनीति से सन्यास एवं बौद्धिक मोर्चो में काफी दिनों बाद गोविंदाचार्य की उपस्थिति चर्चा का विषय था । गोविंदाचार्य ने अपने चिंतन की धारा को कार्यान्वित करने हेतु तीन नए संस्था का गठन किया है । विकास हेतु भारत विकास संगम, सभ्यता हेतु कौटिल्य शोध संस्थान एवं प्रकृति हेतु राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के माध्यम से संपूर्ण राष्ट्र में अलख जगाने का महत्वपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाया है । उनके आंदोलन के खासकर युवाओं, क्रांतिकारियों, स्वदेशी और स्वाभिमान प्रेमियों तथा दलितों का अप्रत्याशित समर्थन मिल रहा है ।
प्रख्यात पत्रकार राहुल देव ने कहा कि चौथा स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता लोकतंत्र के पोषण के लिए है । उन्होंने प्रश्न उठाया कि उसको किससे बचाना है ? बढ्चती व्यावसायिकता, वैश्वीकरण, बाजारीकरण, बाजार, बाजारू, मूल्य में हास, सत्तापेक्षी होने, मौलिकता में कमी अतिस्थानीयता, भाषाई संस्कार में गिरावट, विसंस्कृतिकरण, मनोरंजनमुक्‍तता या पत्रकारों की नई पौध से । उन्होंने कहा कि शत-प्रतिशत कुछ नहीं होता । राष्ट्रीय आंदोलन में सारा भारत शामिल नहीं था । १०% से ज्यादा शामिल नहीं हुए थे । क्या बाजार के बाहर पत्रकारिता या हम-आप जीवित रह सकते है? बाजार समाज को संचालित करने की शक्‍ति है । आज पति-पत्‍नी के रिश्ते भी बदल रहे हैं । वैचारिक स्वतंत्रता को भी माध्यम की जरूरत है । बढ़ती भीड़ एवं होड़ से भी संकट उत्पन्‍न हो रहे हैं और नियम कानून व मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा है । वैचारिक आजादी एवं दृष्टि की आजादी थी पत्रकारिता । पत्रकारिता का आजादी के संग्राम में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा । आज उतने दर्शक या उतने पाठक नहीं हैं जितने चैनल या समाचारपत्र हैं । इसी कारण लीक से भटकाव हो रहा है । जहां से संकट है दुर्भाग्य से मंच से उसकी चर्चा ही नहीं होती । मीडिया के प्रबंधक वर्ग के बिना समस्या का निदान संभव नहीं जबकि प्रबंधकों को मानना है कि यह चिंता उनकी नहीं । वास्तव में हमारी सरोकार, हमारी चिंताए एक हैं । हमलोगों में तो कोई मतभेद है ही नहीं । विमर्श में उस पक्ष को भी शामिल करना चाहिए । जो मस्त है वों नहीं आएँगे, जिन्हें चिंता है वो मौजूद हैं । दूसरों की गलतियों की चर्चा जब हम करते हैं तो अपनी गलतियों की चर्चा का मंच होना चाहिए या नही? कितने अखबार ईमानदारी से आलोचना/समीक्षा को देने के लिए तैयार हैं? बाहुबली, राजनैतिक दबाब या जो तय करता है कि क्या होगा, क्यों और कैसे किया जाएगा वो ही असली ताकत है । इसलिए उसके दिमाग को भी समझा हाय । ९०% प्रतिशत युवा पत्रकार इलेक्ट्‍ऑनिक मीडिया में निर्णय से हो सकते हैं । मीडिया गंभीर सवाल व गंभीर समाधान का मंच बने । संपादक तय करें कि क्या नहीं करेंगे, जो तय किया जा सकता है । इसके लिए एक मंच बनाकर मीडिया के शक्‍तिशाली लोगों को मनाकर, फुसलाकर समस्याओं से रूबरू कराया जाय और नैतिक दबाब बनाया जाय । दुर्भाग्य की बात यह है कि “जिनको आना चाहिए वे बाहर है । ” मीडिया जो समाज का मन बनाता है वह खुद आज भाषा की भयानक भ्रष्टता का शिकार है । भाषा, संवेदना, संवेदनशीलता का मीडिया में बलात्कार हो रहा है । मीडिया के कारण आज की पीढ़ी की बोलने-सुनने की शक्‍ति क्षीण हो गई है तथा उससे मानसिक पंगु हो रही है । इससे बचाने की जरूरत है । आज युवा पीढ़ी को जो मनोरंजक एवं रोचक नहीं है उसे पढ़ने में दिक्‍कत हो रही है । इसके अतिरिक्‍त वैश्‍वीकरण की समस्या, मनोरंजनमुक्‍ता से भी काफी प्रभाव पड़ा है । आज यदि आम नागरिकों/दर्शकों/पाठकों का समूह मीडिया प्रबंधकों से यह कहने की हिम्‍मत जुटा ले कि हमें आपके यह कार्यक्रम और यह भाषा मंजूर नहीं है तो असर होगा । प्रायोजित विज्ञापन का विरोध हो । सामूहिक क्रियान्वयन के मर्म को समझें । यही वह शक्‍ति है जो चीजों को बदल सकती है । दर्शकों और पाठकों के समूह में है वह ताकत जो उपभोक्‍ता भी हैं क्योंकि उनके हित उससे जुड़े है । इसलिए उनके दबाब से हल निकलेगा । अमीरों के चीज अमीरों के लिए होगी तो पत्रकारिता कैसी होगी? भाषायी मीडिया छोटा होगा, हासिए पर होगा और तब भारत की भारतीयता कहाँ पर होगी यह प्रश्न मैं छोड़ता हूँ । जातीयता, जातीय हिंसा, विषमता, वैमनस्यता काफी हद तक सही मायने में पत्रकारिता द्वारा ही की जा सकती है । आज “स्व” पर बड़ा संकट आ गया है । पत्रकारिता से जो भी अपेक्षाएँ हैं उसके लिए अलग हटकर कुछ नहीं देखें क्योंकि प्रतिबद्धता एवं मूल्य के दीप रहे हैं अभी ।
प्रख्यात चिंतक गोंविदाचार्य ने जाति और संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा, सत्ताबल का हावी होना, सत्ताप्राप्ति, दलबदल बेमल गठबंधन, आपातकाल, कम्युनिस्टों की टूट के साथ-साथ कांग्रेस के कांग्रेस आई के रूप में सामने आने, सत्ताबल की परत, बाहुबल का प्रभाव आदि का जिक्र करते हुए कहा कि बूझ कैटचारिंग करने वाले ही नुमाइंदे बन गए । आज १२५ से ज्यादा करोड़पति संसद में हैं । फरीदाबाद एवं गुड़गाँव की लोकसभा सीट के टिकट के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी में २५ करोड़ की बोली लगी थी । भैंस और किसान नामक कहानी का प्रसंग सुनाते हुए भारतीय राजनीति के विद्रूप एहरे से उन्होंने अवगत कराया । उन्होंने कहा कि आज विदेशी मुल्क और बिलायती बोल प्रभावी हो गए हैं । राजनीति और लोकतंत्र के संबंध की यह विओडंबना है कि नेता का स्थान मैनेजरों ने, कार्यकर्त्ता का स्थान कर्मचारियों ने तथा पार्टी भी कंपनियों का शक्ल आख्तियार कर ली है । अतः मूलभूत समस्याओं के आधार पर समाजोन्मुखी प्रयास की शुरूआत होनी चाहिए । रावण की लंका में सब ५२ गज के ही दिखते हैं । भारतीय राजनीति के आज के चित्रण में पार्टियों की स्थिति फ्रैंचाइजी सरीखी एवं अनेक प्रकार के अंतविरोधी की शिकार है । चुनाव में बूथ के अधिकारी, स्टिर्निंग अफसर खरीदे जा सकते हैं । एक लाख में एक बूथ के वोट इवीएम के माध्यम चोली-दामन का है । जब कुएँ में ही माँग मिली हो तो स्थिति कैसी होगी? अखबारों में प्रायोजित विज्ञापन एक ही उम्मीदवार, एक ही पार्टी के प्रति समर्पण आदि आसानी से देखे जा सकते हैं । इस दिशा में रामनाथ गोयनका ने उल्लेखनीय परिवर्त्तन किया । आज बड़े-बड़े ठेकेदार, उद्योगपति अपने संरक्षण के लिए अखबार/चैनल ऐसी परिस्थिति में मीडिया चौकीदार कैसे बनेगा? उन्होंने अपने जनादेश यात्रा का जिक्र करते हुए कहा कि एक चैनल ने उनके संवाददाता की रिपोर्टिंग को प्रसारित करने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि उक्‍त जनाएश यात्रा में बदसूरत चेहरों की तादाद थी । जबकि चैनल प्रबंधकों की राय में बससूरत चेहरे उनके चैनल में नहीं दिखाए जा सकते । आज इलेक्टॉनिक चैनल टीआरपी के आगे बलिदान हो गए है । एक चैनल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि लोकनायक जयप्रकाशनारायण के समानान्तर महानायक अमिताभ बच्चन का वित्र एक साथ जारी कर एक चैनल ने आंतरिक बात में स्वीकार किया कि उनकी रणनीति दर्शकों को भुलावे में रखने की है । ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर आज क्या हो रहा है? थैलीशाह का अंकुश पूर्ण रुप से नौकरशाह राजनीतिक नेताओं एवं मीडिया के त्रिगुट पर है । आज संपूर्ण व्यवस्था केवल कुछ के ही काम आएगी क्योंकि मूल्य बदल गए हैं । अतः भारत की जनता को अब तय करना होगा एक आर्थक राजनैतिक विकल्प नहीं तो देश अराजकता के लपेट में झुलसेगा । अमीर परस्त, विदेश परस्त सरकार की माँग एवं संसद के बजाय सड़क पर उठेगी आवाज । यही नया तकाजा एवं नई चुनौती है । सत्ता पक्ष एवं विपक्ष जनता के खिलाफ हो गए हैं । वहाँ कुटबाल सदृश खेल चल रहा है । जनप्रतिनिधि बहस से महरूम हो जाते हैं । नए ढाँचे, नए औजार, नए लड़ाके, नए तरीके से ही बदलाव आ सकते हैं । उन्होंने पटना में सर्चलाइट/ प्रदीप के जलाए जाने वाली घटना का जिक्र करते हुए कहा कि उन दिनों “छात्र संघर्ष” नामक अखबार इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि २ पेजी अखबार को लोग फाड़कर पढा करते थे क्योंकि वह सच्चाई बयान करता था । पत्रकारिता और राजनीति में साख की महत्ता है । इसलिए परिवर्त्तनकामी, परिवर्त्तन में हिस्सेदार और विकेंदीकृत तौर पर होगी अब लड़ाई । नेतृत्व, नीयत, नीति मुद्‌दों और मूल्यों की वापसी पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है । उन्होंने कानपुर में मायावती के खिलाफ छापने वाले अखबार पर जनविद्रोह के असर से अभी तक सहमे रहने की बात बताई । अब संघर्ष ही बचता है जनता के पक्ष में । नए तरह की राजनीति नए तरह की मीडिया और नए तरह के आंदोलन द्वारा नेतृत्व पैदा होगा । व्यक्‍ति से बड़ा संगठन, और संगठन से बड़ा समाज होता है । मूल्यों और मुद्‌दों की राजनीति जनांदोलनों के मार्फत से ही संभव है । टीआरपी रेटिंग के खिलाफ समानांतर मीडिया पैदा होंगे । वर्त्तमान व्यवस्था से अमीरों को लाभ, गरीबों में लोभ बढ़ रही हैं, जिसे परिवर्त्तनकामी बनानी होगा। भारत परस्त और गरीब परस्त को नकारने होंगे । एक साथ बौद्धिक, रचनात्मक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक आंदोलन का सूत्रपात करना होगाअ । जनसमस्याओं के प्रति संदेवदना और नेतृत्व पर अंकुश के साथ-साथ सामाजिक बदलाव हेतु यथार्थ के आधार को भी भी समझना पड़ेगा । इसके लिए जमीन के मुद्‌दे, जमीन पर, जमीनी कार्यकर्त्ताओं द्वारा जमीनी लड़ेंगे । उपभोक्‍ता का संकल्प निर्णायक होता है । इसी को विंदु बनाकर अआंदोलन की रूपरेखा तय होगी । लोकतंत्र, न्यायपालिका और पत्रकारिता तीनों चाहती है कि अवैधानिकता रहे ताकि हमारा जेब गर्म होता रहे ।

- गोपाल प्रसाद

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