Saturday, October 31, 2009

बदलते मूल्य

आज हिंदुस्तान संक्रमणकाल में गुजर रहा है । पुराने मूल्य बदल रहे हैं और नये मूल्य स्थिर नहीं हुए हैं । इसलिए वह अनेक नई कठिनाइयों का सामना करने को विवश है । पुराने लोग धर्म को सर्वाधिक मूल्य देते थे । आज के मनुष्य की दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं है । धर्म को सर्वाधिक मूल्य इसलिए दिया जाता था कि उससे मोक्ष मिलता है, मनुष्य सारे बंधनों से मुक्‍त होता है । स्वतंत्रता का मूल्य आज भी सर्वोपरि है । किंतु उसका संबंध केवल राष्ट्र से है- भौगोलिक सीमा से है । मनुष्य की इन्द्रियों, मन और चेतना की स्वतंत्रता से उसका कोई संबंध नहीं है । धर्म का सिद्धान्त परालौकिक होते हुए भी इहलौकिक था । उसमें वर्तमान जीवन भी पूर्णरूपेण अनुशासित होता था । आत्मानुशासन और संयम का अविरल प्रवाह जहां होता, वहां दायित्वों, कर्तव्यों और मर्यादाओं के प्रति जागरुकता सहज ही हो जाती है । राष्ट्रीय स्वतंत्रता का सिद्धान्त सर्वथा इहलौकिक है । वर्तमान जीवन को अनुशासित करने के लिए इसे सर्वोपरि माध्यम माना गया है । किंतु भारतीय लोगों में जितनी धर्म-चेतना विलुप्त हुई है, उतनी राष्ट्रीय चेतना जागृत नहीं हुई है । इसलिए उसमें आत्मानुशासन और संयम का अपेक्षाकृत अभाव है और दायित्वों, कर्तव्यों और मर्यादाओं के प्रति कम जागरूक है । भारत का प्राचीन साहित्य विनय की गुण-गाथा से भरा पड़ा है । अविनीत विद्यार्थी विद्या का अपात्र समझा जाता है । अविनीत पुत्र पिता का उत्तराधिकार नहीं पा सकता था । अविनीत आदमी समाज में अनादृत होता था, इसलिए विनय को बहुत मूल्य दिया जाता था । वह व्यक्‍ति और समाज दोनों को एक श्रृंखला में पिरोए हुए था । आज अध्यापक विद्यार्थी को विनय के आधार पर विद्या नहीं देता । वह यह नहीं देखता कि उसका विद्यार्थी पात्र है या अपात्र वह उसे पढ़ता है, जो पहले वर्ष की परीक्षा में उतीर्ण हो जाता है । उत्तराधिकार का प्रश्न आज मिट चुका है । समाज में वह अधिक समादृत होता है, जो मनोवृत्ति का सूत्र माना जा रहा है । इसलिए आज व्यक्‍ति और समाज दोनों एक सुदृढ़ श्रृंखला से आबद्ध नहीं हैं ।

- आचार्य महाप्रज्ञ

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