Monday, October 26, 2009
पद्मभूषण डॉ. दिनेशनंदिनी डालमिया पर लोकसभाध्यक्ष द्वारा डाक टिकट जारी
हिंदी साहित्य को पद्मभूषण डॉ. श्रीमती दिनेशनंदिनी डालमिया के उल्लेखनीय योगदान को मान्यता देने के लिए आज एक डाक टिकट जारी किया गया । पांच रूपये का यह डाक टिकट लोकसभा अध्यक्ष माननीया श्रीमती मीरा कुमार ने जारी किया । इस मौके पर संचार एवं सूचना राज्यमंत्री सचिन पायलट, लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष डॉ बलराम जाखड़ और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव श्री जनार्दन द्विवेदी मौजूद थे । जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा चीफ पोस्टमास्टर जनरल पी.के. गोपीनाथ तथा पद्मभूषण डॉ. श्रीमती दिनेशनंदिनी डालमिया की सुपुत्री अर्चना डालमिया पद्मभूषण डॉ. श्रीमती दिनेशनंदिनी डालमिया की उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए महिला सशक्तिकरण की प्रतीक लोकसभाध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार ने कहा, “डॉ. डालमिया के योगदान के बराबरी की और मिसाल नहीं मिलती । उनका काव्य प्रेरणादायी मोहक और मन को भीतरी शक्ति प्रदान करने वाला है । मैं उनके लेखन की बहुत अनन्य प्रशंसक रही हूँ । उन्होंने कहा इस कार्यक्रम में उनका आना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक मौका है साहित्य से जुड़ने का, इसकी मुझे खुशी है । हिंदी की एक सेविका की स्मृति में शामिल होना, जिन्होंने साहित्य पक्ष को जागृत रखने के लिए अपना ऐशो-आराम त्याग दिया । जब देश अग्निपरीक्षा से गुजर रहा था । हमारा स्वतंत्रता आंदोलन बहुत सारे झंझावतों से गुजर रहा था । वे कम उम्र में ही गाँधी-नेहरू से पत्राचार करती थी जो परिपक्वता को परिलक्षित करता है । हिंदी की अग्निपरीक्षा अभी समाप्त नहीं हुई है । उसके लिए वे लगी हुई थीं । विशेष रूप से उनमें कवियित्रियों द्वारा मर्म को उजागर करने का विद्रोह था । उनकी रचना पढ़ने के दौरान महादेवी वर्मा की “मैं नीर भरी दुख की बदली" की याद आ जाती थी । उनके क्रांतिकारी भाव से हमें सीखना चाहिए । नारी आंदोलन से बहुत कुछ सीखना चाहिए । बेबाकी के साथ सशक्त स्वर, निर्भीकता, शौर्य, माधुर्य और लालित्य इनके कविता में था । इनके नाम पर डाक टिकट जारी करके भारत सरकार ने साहित्य जगत को प्रतीक दिया है, जो समय-समय पर बहुआयामी प्रेरणा देता रहेगा ।
डॉ. बलराम जाखड़ ने कहा “ मैं आना चाहती हूँ बार-बार धरा पर जिंदगी और मौत को सौतन नहीं सहेली मानती आई हूँ” जैसी पंक्तियाँ हमारे अंतर्मन को हमेशा झकझोरती रहती हैं । इस कार्यक्रम का जब हमें बुलावा आया तो हम इतने खुश हुए कि नींद में चलने लगे । दिनेशनंदिनी जी यथा नामा ततः गुणाः अर्थात दिनेश (सूर्य) की नंदिनी (बेटी) थी । उनके रचनाओं में जागृति, भावना, आध्यात्मिक लगाव और अथाह प्रवाह था । उनकी हर कृतियाँ अपने आप में एक धरोहर हैं । प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू कहते थे कि- “जब मैं दिनेशनंदिनी की किताब को पढ़ना शुरू करता था तो बिना खत्म किए नहीं छोड़ता था । ” उनकी रचनाओं को पढ़ने से नया जीवन तथा दृष्टिकोण मिलता है । उनकी कृति और जिंदगी पदचिन्ह है, सबों के लिए ।
पद्मभूषण डॉ. श्रीमती दिनेशनंदिनी डालमिया की पुत्री अर्चना डालमिया के लिए यह विशेष गौरवशाली क्षण था । उन्होंने इस मौके पर कहा, “मेरी मां मेरे लिए नायिका रही हैं । वह कालीतात और शाश्वत थीं, बढ़ती उम्र और जड़ता को उन्होंने दृढ़ता से परे रखा । कठिन समय में भी वह सुख एवं स्नेह बांटती थीं और इसके लिए मैं उनकी कायल हूं । उनके लेखन की ताजगी ने हरिवंश राय बच्चन जैसे दिग्गज को अपनी आत्मकथा में उनके लिए प्रशंसा के शब्द लिखने को विवश किया तथा पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी उनकी कृतियों की प्रशंसा करते हुए पत्र लिखे । ”
पद्मभूषण डॉ. श्रीमती दिनेशनंदिनी डालमिया के बारे में
पद्मभूषण डॉ. श्रीमती दिनेशनंदिनी डालमिया की निजी और साहित्य यात्रा उनके समकालीन चलन से लीक छोड़कर चलती हैं । उनकी जीवन कथा एवं कथात्मक आभामंडल लिए है जो उनकी साहित्यिक कृतियों में परिलक्षित हुआ है ।
उदयपुर में पैदा हुई दिनेशनंदिनी ने १३ वर्ष से ही लेखन शुरू कर दिया था और उस समय उन्होंने दिनेश नंदिनी चोर्ड़िया नाम अंगीकार किया था । उनका विवाह उस समय के औद्योगिक मुगल घराने में राम कृष्ण डालमिया से हुआ और उन्होंने इसके बाद दिनेशनंदिनी डालमिया नाम से लेखन का सफर जारी रखा । शुरुआती वर्षों में उनकी निराश आशा जब प्रकाशित हुई तो उस पर सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा तक की नजर गयी । उनकी पहली पुस्तक शबनम ने गहरा प्रभाव छोड़ा जिसके लिए उन्हें साक्षरिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया । अनेक काव्य संग्रहों लघु-कथाओं के कथादेश में प्रवेश किया और उपन्यास लेखन भी आरंभ किया । उन्हें २००६ में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया ।
भारतीय समाज में नारी मन की संवदेनाओं के बाहरी और भीतरी संसार की गहरी समझ ने उन्हें हिंदी साहित्य में असाधारण स्थान दिया । करीब ३५ उपन्यासों और इतने ही काव्य संग्रहों के माध्यम से उन्होंने एक के बाद एक कई पीढ़ियों को साहित्य में जीवंत किया और हिंदी साहित्य में उन्हें अपने मुहावरों में प्रकट किया ।
उन्हें राजस्थान की पहली स्नातकोत्तर महिला होने का भी गर्व प्राप्त है । उन्होंने पर्दा प्रथा के खिलाफ बगावत की और लैंगिक भेदभाव का भी जोरदार ढंग से मुकाबला किया । वह अपने लेखन में तीखे बाण चलाने के लिए ख्यात थीं और नारी मन के उद्वेलन को भी उन्होंने बेबाक ढंग से प्रकट किया । उनकी पुस्तकों में निजी सफर, रोमांचक दास्तानें और महिलाओं को परम्परागत लीक से हटकर नए रास्ते पर ले जाने की कवायद भी खूब देखने को मिलती है ।
आजीवन पर्यंत वह विविध गतिविधियों में संलग्न रहीं । वह इंस्टीट्यूट ऑफ कम्प्रेटिव रिलीजन एंड लिट्रेचर, इंडो चाइना फ्रेंडशिप सोसायटी, लेखिका संघ रिचा की संस्थापक सदस्य एवं अध्यक्ष रहीं । वह रिचा पत्रिका की मुख्य सम्पादक थीं । वह कई धारावाहिकों के लिए साहित्य सलाहकार बनीं और उनके उपन्यास ‘फूल का दर्द’ पर एक मशहूर टेलीफिल्म बनी ।
वह रहस्यवादी और छायावादी थीं और अपने तरह की समाज सुधारक थीं । उनकी कृतियां जीवन, मृत्यु, प्रेम, मनुष्य जो साकार होकर शाश्वत हो जाते थे । वह लिखती हैं :
“अब समय मेरे जीवन का तलपट देखने के लिए कर रहा है मुझे तलब !
क्यों? मैं क्यों देखने दूं उसे मेरे बहीखाते?
मैं तो नहीं जन्मी थी अपनी शर्तों पर
मुझे नहीं पता कौन और क्यों मुझे यहां ले आया !
तो फिर क्यों समय नहीं खोलता अपने बहीखाते और क्यों नहीं आता मेरे पास?
वह क्यों नहीं सौंप देता मुझे अपना तलपट
और क्यों नहीं देता मेरे सवालों के जवाब?
- गोपाल प्रसाद
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