Friday, October 2, 2009

आधुनिकता की होड़ में विलुप्त होते संस्कार

आज के भौतिकवादी परिवेश में हमारी महत्वाकांक्षाएँ भावनात्मक एवं प्राकृतिक कम आधुनिक एवं भौतिकवादी ज्यादा हो गयी है । ऐसा नहीं है कि हम आज भावुक नहीं है, पर ऐसा भी नहीं है कि हम अपने देश, धर्म, जाति और अपने सम्बन्धों से लगाव नहीं रखते, पर इन सबसे बढ़ करके हमारी प्राथमिकता भौतिक सफलता पर टिक गई है । इसका मुख्य कारण दो है -
(१) हमारे इर्द-गिर्द यह चमकती दुनियां और प्रत्यक्ष रूप से भौतिक आधार पर सफल दिखाई देने वाले लोग भौतिकता की चादर ओढ़े अपने को सफल व मजबूत साबित करते हुए हमें बार-बार अपनी तुलना में असफल और अयोग्य साबित करने का प्रयास करते हैं, जिसके कारण हमारे अन्दर जो वास्तविक भावनायें हैं वह दबी की दबी रह जाती हैं और इनके समक्ष हमारे अन्दर एक झूठी हीनता का जन्म होता है और इस हीनता की समाप्ति के लिए हम अनावश्यक एक झूठे चमक-दमक भरी भौतिकता की अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं और इसके पीछे छोड़ देते उन वास्तविक भावनाओं को जो हमारे सम्बन्धों हमारी और देश के लिए हैं । हम उससे अलग इसी दौड़ में शामिल होकर अपने को सबसे अलग साबित करने में लगे रहते हैं, पर हमारी अन्तरात्मा इस अंधी दौड़ से कैसे तृप्त हो सकती है । आखिर वह कौन सी सफलता पा लेगी, जिससे उसे तृप्ति मिलेगी, क्योंकि इस अंधी दौड़ में हम शायद पैसा, चकाचौंध तो इकट्‌ठा कर लेंगे । लेकिन वह सम्बन्धों की एकता व पड़ोसियों का आपस के सुख-दुःख में शामिल होना व देश के लिए जान न्यौछावर करना, तथा सब कुछ खो देने के बावजूद भी भावनात्मक सुख पाना यह सब इस अंधी दौड़ से कैसे पायेंगे ? क्योंकि एक बात तो शाश्‍वत सत्य है कि इस दुनिया में सारे जीवमात्र भावनात्मक मिट्टी से बनते है और सभी को भावनात्मक तृप्ति की आवश्यकता है । यह बात दीगर है कि हमारी आधुनिकता की होड़ हमारी महत्वकाक्षाएँ औए एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता हमारे सम्बन्धों के भावनात्मक बंधन को कमजोर करता है और आस-पास सभी रिश्तों में हमें प्रतिद्वंद्विता दिखाई देती है, क्योंकि हमारे मन मस्तिष्क में यह रहता है कि यदि हम भौतिक आधार पर सफल व सर्वोपरि, रहेंगे तो ही हमारी महत्ता रहेगी, अन्यथा हमारी उपेक्षा होने लगेगी ।
वास्तविकता में हम धैर्यहीन हो चुके हैं और त्याग की भावना खो चुके हैं इस भावना से हमें दूसरों की सफलता से खुशी नहीं मिलती क्योंकि अपने निकटस्थ सम्बन्धों की सफलता से ही पूर्णतः खुश नहीं होते हैं । ऐसा नहीं है कि हमारी महत्ता हमारी भौतिक सफलता में ही छिपी है । बल्कि हमारी महत्ता अपने सम्बन्धों में मधुर वाणी, प्यार के प्रदर्शन और अपने को दुख पहुँचाकर भी दूसरों को सुख देने में हैं, क्योंकि यह तो शा‍श्‍वत सत्य है कि प्यार के बदले प्यार ही मिलता है । यदि दुश्मन को भी प्रणाम करें तो वह आर्शीवाद नहीं देगा तो गाली भी नहीं देगी । यदि बार-बार प्रणाम करते रहोंगे तो धीरे-धीरे उसके मन की कटुता भी प्यार में तब्दील होने लगेगी लेकिन इसके लिए धैर्य रखते हुए प्रेम से ओत-प्रोत करना होगा ताकि कोई द्वेष अहम न रहे और तभी हम सच्ची तृप्ति व भावनात्मक सुख और इसके साथ ही ही मिलने वाली सफलताओं के सुखकामी एहसास कर पायेंगे नहीं तो इस आधुनिकता की होड़ में हम मशीन बनकर भावना रहित होकर एज-दूसरे से प्रतिद्वद्विता साबित करते रहेंगे और जब कभी थक जायेंगे तो अपने आपको अकेला और खाली जैसे जीवन को उद्देश्यहीन बिता देंगे ऐसा प्रतीत होगा, जैसे सब कुछ पा करके भी कुछ नहीं पाया और इस आधुनिकता की होड़ में अकेले तो हैं ही साथ ही साथ अपनी आने वाली नस्लों को भारतीय तहजीव व संस्कार भी नहीं दे पायेंगे जिसके आधार पर हमारे आजादी के स्वतंत्रता सेनानी अपने सुखों को भुलाकर त्याग की मिसाल कायम किये हैं वह तहजीब नहीं दे पायेगे जिसमें पूरा गांव एक-दूसरे के दुख-दुख में एक साथ खड़ा होता चला आयेगा । वह तहजीव नहीं दे पायेंगे जिसमें हिन्दू मुस्लिम एक साथ होली व ईद मनाया करते थे । आज जरूरत है हम सबको इस आधुनिकता की होड़ से निकलकर इन बातों पर सोचने की आज जरूरत है हम सबको उन तहजीबों को अपनी जिन्दगी में शामिल करने की, जिन्हें हम पीछे छोड़ते आए हैं । हमे जरूरत हैं महापुरूषों के जीवन में झाँकने की जिससे हमारी संस्कृतिक, सभ्यता भावनाएँ फिर से जिन्दा हो सकें ।
-कृष्णगोपाल मिश्रा

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