Saturday, October 31, 2009

नक्सलवाद :सरकार के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएच‍आरसी) के सोलहवें स्थापना दिवस समारोह में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और एनएस‍आरसी के पूर्व अध्यक्ष ए.एस. आनंद ने कहा कि मानवाधिकार के संरक्षकों ने समाज में अहम भूमिका अदा की है लेकिन उन्हें भी प्रशासन के हाथों बहुत कुछ झेलना पड़ता है । आरोपों से लेकर सजा तक मानवाधिकाअर संरक्षकों में झेली है । उन्होंने कहा था कि मानवाधिकार में सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकार भी शुमार हैं । आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष जस्टिस जी.वी. माथुर ने कहा कि सामाजिक विकास मानवाधिकारों के प्रति सम्मान के बगैर संभव नहीं है । देश के हर नागरिक को मानवाधिकार सुनिश्‍चित करने के मकसद से आगे आना चाहिए ।
वहीं दूसरे तरफ आलम यह है कि नक्सली अपने खूनी संघर्ष में बच्चों की हत्या करने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं । प्रश्‍न यह उठता है कि क्या नक्सली मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं कर रहे? इसके साथ ही प्रश्न यह भी उठता है कि नक्सली आखिर नक्सली क्यों बने? जब भूख, अन्याय, बेबसी और उत्पीड़न बढ़ेगा और उसके स्थायी समाधान योजनाबद्ध तरीके से नहीं चलाए जाएँगे तब-तब नक्सलवाद और पनपेगा । नक्सलवाद के दलदल में युवाओं और बच्चों के साथ-साथ महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न की बात अब-जगजाहिर हो चुकी है । मगर सरकार को इन मूलभूत नागरिक आवश्यकताओं की पूर्त्ति के हल ढूँढने एवं उपाय सुनिश्‍चित करने के बजाय नक्सलवाद को फौज और पुलिस के द्वारा कुचलना ज्यादा आसान लगता है । सरकार को इसके आगामी दृष्परिणाम की भयावह स्थिति का अवश्य आकलन कर लेना चाहिए । एक ओर कोई करोड़ों में मासिक वेतन उठाता है वहीं दूसरी ओर किसी को ३००० रू० मासिक वेतन या रोजगार के मद में प्राप्त नहीं हो पाता है । ऐसी विषम परिस्थिति में नक्सलवाद को खत्म कर देने की कल्पना कोरी बकवास ही होगी । यह भी एक अकाट्‌अय सत्य है कि कोई भी नक्सली शिक्षक या डॉक्टर का अपहरण नहीं किया अन्याय का प्रतिकार करने एवं पुलिस, नेता व न्यायपालिका से त्वरित न्याय न मिल पाने के कारण गी शोषितों ने बंदूक का दामन पकड़ा । यह अलग बात है कि उस दलदल में जाने के बाद वे चाहकर भी नहीं निकल सकते हैं । छत्तीसगढ़ में वनवासी सेवा आश्रम के माध्यम से आदिवासियों के पुनर्वास हेतु कार्य करने वाले हिमांशु कुमार कहते हैं कि “राशन और दवा के जगहपर सरकार गोली मारती है । आज भी हम आजाद नहीं है ।
देशभर में नक्सली तांडव से निपटने के लिए सरकार लगातार विकास की गति को तेज करने की बात कहती हैं परंतु उसपर अमल कितना हो रहा है? गरीब और आदिवासी समुदाय व्यवस्था की विसंगतियों के चलते बंदूक का सहारा ले रहे हैं । मध्यप्रदेश में संसाधन, आवास एवं पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया को टेलीफोन पर जान से मारने की धमकी देनेवाला अपनी बीमार बहन की जान बचाने के मकसद से नकली बना । दमोह देहांत थानान्तर्गत नरसिंहगढ़ गाँव का १६ वर्षीय युवक शैलेष ने अपनी बहन स्वाति की ब्रेन हेमरेज बीमारी के इलाज में सरकारी उपेक्षा से परेशान होकर मंत्री को नक्सली बनकर धमकी दे डाली । इस घटना से ऐसा प्रतीत होता है कि पीड़ित पक्ष द्वारा लगातार गुहार लगाए जाने पर जन्मा आक्रोश अब कुछ भी करने को आमदा है ।
खूनी संघर्ष में मासूमों की ‘बलि’
नक्सलियों के समर्थन में एकजुट हो रहे बुद्धिजीवियों का मुंह बंद करने के लिए गृह मंत्रालय ने इस तथ्य का सहारा लिया है । दिल्ली में आदिवासी बच्चों के साथ जुटी बुद्धिजीवियों की संस्था ने नक्सलियों के प्रति हमदर्दी जुटाने की की कोशिश की तो गृहमंत्रालय ने जबाब में माओवादियों को बच्चों का दुश्मन करार देते हुए उनका क्रूर चेहरा आगे कर दिया । दर‍असल, नक्सलियों के खिलाफ अभियान का विरोध करने के लिए तमाम ख्यातिनाम बुद्धिजीवियों की संस्था सिटीजंस इनीशिएटिव फार पीस ने दिल्ली में आदिवासी बच्चों को आगे किया । संगठन ने बेहद दयनीय अवस्था में रह रहे छतीसगढ़ व अन्य नक्सल प्रभावित राज्यों के आदिवासी बच्चों को मीडिया के सामने पेशकर तर्क दिया की बुनियादी सुविधाएं व लोकतांत्रिक हक न मिलने के विरोध में लोग हथियार उठा रहे है । केंद्र की निर्णायक जंग की नीति के विरोध में ओजपूर्ण भाषण भी दिए गए । जवाब में गृह मंत्रालय ने नक्सलियों को बच्चों का दुश्मन करार देने वाली रिपोर्ट का खुलासा किया । नक्सली जबरन बच्चों को किस तरह हथियार थमाकर उनकी जान खतरे में डाल रहे हैं, यह बताकर गृह मंत्रालय ने बुद्धिजीवियों पर ही सवाल उछाल दिया । खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट के मुताबिक नक्सली २००७ में एक गांव से पांच लड़के या लड़कियों को अपनी सशस्त्र सेना में शामिल करने का फरमान जारी कर चुके हैं । मंत्रालय के प्रवक्‍ता ने कहा कि नक्सली न सिर्फ बच्चों को मार रहे हैं, बल्कि उन्हें हथियार थमाकर उनकी जिंदगी खतरे में डाल रहे हैं । गृह मंत्रालय ने इस रिपोर्ट को आगे कर नक्सलियों को यह संदेश भी दे दिया है कि उनकी इस रणनीति का नक्सलियों के खिलाफ अभियान पर कोई असर नहीं पड़ेगा ।
सिटिजंस इनीशिएटिव फार पीस के बैनर तले वामपंथी बुद्धिजीवियों ने सरकार के समक्ष पांच मागें रखी है । इनमें नक्सलियों के खिलाफ अभियान रोक सीजफायर करने, सीपीआई (माओवादी) और अन्य नक्सली दलों को सीजफायर के दौरान मिलने वाली सभी सुविधाएं देने, केंद्र सरकार की ओर से उनसे संवाद शुरू किए जाने, मीडिया और स्वतंत्र नागरिक संगठनों को नक्सल इलाकों में जाने की अनुमति दिए जाने और नक्सल प्रभावित इलाकों में लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरा करने के लिए कदम उठाए जाने की मांग शामिल है ।
बुद्धिजीवियों के पाले में ही डाल दी गेंद:
नक्सलियों के सफाये के लिए संयुक्‍त अभियान के खिलाफ मानवाधिकार का परचम उठाकर लामबंद हुए बुद्धिजीवियों की मुहिम की काट के लिए गृहमंत्री पी. चिदंबरम खुद आगे आए है । हथियारबंद नक्सलियों को वार्ता की मेज पर लाने के लिए बुद्धुजीवियों से ही गुजारिश कए चिदंबरम ने गेंद उनके ही पाले में डाल दी है ।
साथ ही गृहमंत्री ने बुद्धिजीवियों से वादा किया है, ‘अगर नक्सली हिंसा का मार्ग छोड़कर बात करने आएं तो उनसे केंद्र राज्य स्तर पर हर मुद्दे पर बातचीत के लिए सरकार तैयार है ।’ नक्सलियों के खिलाफ सरकार ने आक्रामक अभियान का विरोध कर रहे बुद्धिजीवियों की लामबंदी की काट के लिए सिटिजंस इनीशिएटिव फार पीस के सदस्य व पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रवि राय और उनके तमाम साथियों को गृहमंत्री ने पत्र लिखा है । इसमें सीपीआई (माओवादी) को हथियार छोड़कर बातचीत के लिए आमंत्रित करने के सरकारी प्रयासों का ब्यौरा दिया गया है । साथ ही इन बुद्धिजीवियों से भी हिंसा का रास्ता अपना रहे नक्सलियों को वार्ता की मेज में लाने में उनसे मदद की गुजारिश की । पत्र में चिदंबरम ने कहा है कि वार्ता में बाधा सिर्फ हिंसा है । उन्होंने बुद्धिजीवियों का ध्यान माओवादी नेताओं एम. लक्ष्मण राव (गणपति) और मलोजुला कोटेश्‍वर राव (किशन जी) के हालिया बयानों की तरफ भी खींचा । दोनों नेताओं ने नक्सल हिंसा को न सिर्फ सही ठहराया, बल्कि सरकार को मुहंतोड़ जबाब देने की दलील भी दी । गृहमंत्री ने पत्र में नक्सलियों की हिंसक कार्रवाई का भी ब्यौरा दिया है । आज छत्तीसगढ़, झारखंड और पश्‍चिम बंगाक, आंध्रप्रदेश नक्सलवाद समस्या से सबसे अधिक पीड़ित राज्य हैं ।
पश्‍चिम बंगाल : यहाँ माओवादियों के साथ-साथ माकपा को विपक्षी एकजुटता भी खूब परेशान कर रही है । यही वजह है कि “माकपा सांसद सीताराम येचुरी जहाँ माओवादी हिंसा पर अंकुश को वक्‍त की जरूरत मान रहे रहे हैं वही इसके लिए वह तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता ममता को बनर्जी को जिम्मेदार ठहराते हैं । पश्‍चिम बंगाल में आतंक फैला रहे माओवादियों पर नकेल कसने के लिए केन्द्र से मदद की गुहार के साथ-साथ उन पर पाबंदी से परहेज माकपा का माओवाद पर दोतरफा रूख दर्शाता है । माकपा के अनुसार हिंसा पर आमदा माओवादीय़ॊं फार आंखूश जरूरी है । लोगों की हिफाजत कानून व्यवस्था का मामला है और मौजूदा स्थिति है । इसका दूसरा राजनीतिक पहलू है जिसके चलते उन्हें प्रोत्साहन भी मिलता है । इसे दुरूस्त करना चाहिए । दोनों तरीके एक साथ चलने चाहिए । माओवादियोंके खिलाफ मौजूदा पुलिस अभियान पर रोक लगाने की माँग के पीछे तृणमूल कांग्रेस का मकसद भी इस समस्या के राजनीतिक हल तलाशने का है । बुद्धिजीवी तृणमूल कांग्रेस के प्रोत्साहन की वजह से जुड़ रहे हैं । बंगाल में वामपंथियों के बराबर ही विरोधी विचारधारा का भी प्रभाव है । उसी विचारधारा के विरोध का यह रूप है । बाम विरोधी राजनीतिक जमावड़े से यह वर्ग चिपका हुआ है । बंगाल में माओवादियों के उत्पात पर शिकंजा कसने में सबसे बड़ी बाधा ऐसे तत्वों को तृणमूल का समर्थन है । प्रधानमंत्री के माओवादी हिंसा को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताए जाने के बावजूद उन्हीं के कैबिनेट मंत्री माओवादिओं को संरक्षण दे रहे हैं । माक्पा के इस आरोप पर प्रधानमंत्री भी चुप है । ममता की माँ है कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई में जुटे केंद्रीय बल वापस बुलाए जाए लेकिन उन्हें नहीं हटाया जा रहा उल्टे और बल भेजा गया है । यह ममता की माँग का जबाब है कि केन्द्र राज्य मिलकर अभियान चला रहे हैं । ” माओवादियों ने पश्‍चिम बंगाल सरकार के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया है । ऑरेशन लालगढ़ के जवाब में ऑपरेशन वीनस शुरू करते हुए नक्सलियों ने अपने गढ़ लालगढ़ क्षेत्र के सांकराइल में थाने पर हमला कर ११ असलहे भी ले गए । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के शीर्ष नेता कोटेश्‍वर राव उर्फ किशन ने कहा है कि सांकराइल थाने पर हमला पश्‍चिम बंगाल सरकार के खिलाफ युद्ध का ऐलान है । पुलिस संत्रास और सुरक्षा बलों के ऑपरेशन के खिलाफ माओवादियों की ओर से अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई ऑपरेशन वीनस की शुरूआत है । किशन ने धमकी दी है कि मेदिनीपुर आ रहे सुरक्षाबलों को रोका नहीं गया तो सांकराइल के अपहृत एसओ अतिन्द्रनाथ दत्त का भी वही हश्र होगा जो झारखंड के खुफिया विभाग के इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदवार का हुआ था ।
झारखंड :
झारखंड में नक्सलियों ने एक नृत्य कार्यक्रम के दौरान अंधाधुंध गोलीबारी कर तीन लोगों की हत्या कर दी । पुलिस के अनुसार राजधानी राँची से २०० कि.मी. दूर चतरा जिले के राजपुरा गाँव में हमला किया, जिससे तीन लोगों की मौत हो गई जबकि दो पुलिसकर्मियों सहित सात लोग घायल हो गर । माओवादियों ने लातेहार जिला के कुरूंड गाँव में झारखंड मुक्‍ति मोर्चा के स्थानीय नेता अमृत जोय कुजूर के घर पर रात में धावा बोलकर उनका ट्रैक्टर जला दिया । माओवादी उनकी जीप भी गुमला ले गए और वहाँ जाकर उसे जला दिया । झारखंड के आदिवासी नेता एवं मानवाधिकार कार्यकर्त्ता ग्लैडसन डुंगडंग समय दर्पण को दिए साक्षात्कार में कहा कि राज्य और केन्द्र सरकार आदिवासियों के जमीन हड़पने का अभियान जारी रखे हुए है । मानवाधिकार का कत्ल हो रहा है । झारखंड में अभी तक मानवाधिकार आयोग नहीं है । सरकार का नजरिया है कि माओवादी बढ़ गए है । नक्सली बढ़ गए हैं जबकि उनके अधिकार एवं मूलभूत सुविधाओं को देने से वे कतरा रहे है । ४०% मिनरल आदिवासियों के पास है । एमओयू पर ज्यादा काम नहीं हुआ है, जिसके कारण उद्योगपतियों का दबाब बढा है । ३५०५ लोगों पर हत्या, हथियार रखने आदि का एफ.आइ.आर विभिन्‍न थानों में दर्ज किए गए है । निर्दोष आदिवासियों पर हत्या, उत्पीड़न बढ़ गया है । आजादी के ६२ वर्ष बीतने पर भी जल, जंगल और जमीन से उन्हें वंचित किया जा रहा है । २० एकटु जमीन के ऐवज में २० हजार थमा दिया गया है । कलम उठाने पर आवाज उठाने पर विकास विरोधी एवं नक्सली होने का ठप्पा लगा दिया जाता है । वास्तव में माओवाद के लिए सत्ता की चंद विरोधी शक्‍तियां हैं । १५ लाख विस्थापित लोगों के पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी है । केवल सेज कानून बनाया गया । इन सारी स्थितियों की जिम्मेदार सत्ता है । पूँजीवाद का घिनौना खेल जारी है । २ रू० से ४०० रू० एकड़ दर पर टाटा को जमीन दिया जाता है । ६० करोड़ रूपया टैक्स फ्री कर दिया जाता है । आदिवासियों की आवाज है कि पहले धरती हमारी है । खेतों से होकर डैम बनाए जाने एवं नदी जोड़ों अभियान से काफी बूरा प्रभाव पड़ा है । आदिवासियों को पनबिजली का लाभ नहीं मिल रहा है । मानवाधिकार रिपोर्ट के अनुसार भारत १६ साल में भी १३४ वें स्थान पर ही है । कुपोषण के शिकार बच्चों को दो वक्‍त की रोटी नहीं मिल पा रही है । दलितों आदिवासियों के बच्चों को क्या विकास का मुख्यधारा से जुड़ने का अधिकार नही है? सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अन्याय रोकना होगा । अन्याय के प्रतिकार स्वरूप बंदूक उठाने से कौन रोकेगा । सरकार जब तक नक्सलवाद को बंदूक से कुचलने का स्वप्न देखेगी तब तक उसकी दो पीढ़ी फिर प्रतिकार हेतु तैयार हो जायेगी । इतिहास में भी आदिवासियों को जंगली, दानव, शैतान, सूअर, कभी विकास नहीं करनेवाला शख्स कहा गया है । पेशा, कानून का पालन नही हो रहा है । आदिवासिओं की अपनो धर्म को स्थान नहीं मिला । १० करोड़ से अधिक आबादी को सेंसेक्स ८ करोड़ ही बताती है । आदिवासी अगर अन्य राज्य में जाते हैं तो उसे सामान्य में गिना जाता है । राजनैतिक दल कहते हैं कि आदिवासी मुख्यमंत्री बर्दाश्त नहीं, यह अन्याय नहीं तो और क्या है? २२ लाख आदिवासी जमीन खो चुके हैं । विकास परियोजनाओं में उन्हें नौकरी नहीं दिया जाता है । ईमानदारी पूर्वक नियम, कानून का पालन नहीं हो रहा है । यहाँ तक की न्यायपालिका में भी सौदेबाजी हो रही है । समस्या का समादान यह है कि विकास के साथ-साथ, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक अधिकार मिले । वे कहते है :-
“ सदियों से अन्याय ढोते-ढोते कंधा झुक गया है ।
फिर भी अंधकार से लड़ने का निश्‍चय कर लिया है । ”

- गोपाल प्रसाद

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