Thursday, October 29, 2009

निजी जीवन में पुलिस की नई भूमिका

पिछले दिनों उड़ीसा के गंजम जिले के पाटापुर थाना प्रभारी एस.एल.के. प्रसाद ने कहा कि अपराध रोकने के अलावा भी पुलिस की कुछ जिम्मेदारी होती है । इस थाने में पिछले छह महीने में तीन शादियां कराई जा चुकी हैं । २२ साल के श्याम गौड़ २० साल की राजेश्‍वरी से हाल ही में थाने के अंदर ही परिणय सूत्र में बंधे । लड़के के घर वाले शादी के लिए राजी नहीं थे । झगड़े का बहाना बना कर श्याम के पिता लड़की वालों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने थाने गए थे, जिससे पुलिस को दोनों के बीच के प्रेम-प्रसंग का पता चला । थाना प्रभारी ने दोनों परिवारों को बुलाकर समझाया और बाद में उनकी उपस्थिति में थाने में ही शादी संप‍न हुई ।
गंजम पुलिस की यह कार्यवाही पुलिस की खास किस्म की छवि से आतंकित समाज के लिए आश्‍चर्यचकित कर सकती है । जिस तरह उड़ीसा के एस. एल. के. प्रसाद ने अपने स्तर पर लोगों में मेलमिलाप की प्रक्रिया शुरू की है, उसी तरह इधर दिल्ली हाई कोर्ट से खबर आई है कि उसने दंपतियों के बढ़ते तनाव के मद्‌देनजर एक मध्यस्थता सेल का गठन किया है । इसके लिए उसने कई जगह विज्ञापन लगवाए हैं । इसके अलावा लीगल ऐड कमिटी ने एक महीने के लिए १० एफएम चैनलों के १२ स्लॉट मध्यस्थता सेल के प्रचार के लिए बुक कराए हैं । इस तरह के मध्यस्थता केंद्र (मीडिएशन सेंटर) फिलहाल दिल्ली की विभिन्‍न अदालतों तथा नानकपुरा स्थित क्राइम अगेंस्ट वूमेन सेल से संचालित हो रहे हैं । बताया जा रहा है कि दिनोंदिन इन केंद्रों की लोकप्रियता बढ़ रही है । इन केंद्रों पर सबसे ज्यादा केस २५-३० साल के बीच के उम्र के आए हैं । नानकपुरा केंद्र में प्रतिदिन ४-६ केस रजिस्टर हो रहे हैं ।
इन मध्यस्थता केंद्रों को समाज में तलाक की बढ़ती हुई दर पर चिंताओं की प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जा सकता है । सरकारी स्तर पर इन उपायों का मकसद समाज में परिवार टूटने को लेकर बढ़ती बेचैनी को देखते हुए इस मसले का कोई हल खोजना है । ऐसी ही एक पहल दिल्ली महिला आयोग ने भी की । उसने विवाह पूर्व सलाह-मशवरा केंद्र के निर्माण के बारे में जोरशोर से प्रचार किया । इसके लिए विज्ञापन देकर कौंसिलरों के आवेदन मंगाए गए और चुने हुए कौंसिलरों को विशेषज्ञों से ट्रेनिंग दिलवाई । इन कौसिलरों को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे केंद्र में पहुंचने वाले ऐसे युवा-युवतियों की काउंसलिंग करेंगे जो विवाह करने जा रहे होंगे । हालांकि अभी इसका कोई अंदाजा नहीं मिला है कि गाजे-बाजे के साथ शुरू की गई इस योजना में फिलहाल क्या प्रगति है । पर इस कड़ी में उल्लेखनीय यह है कि केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने भी इस दिशा में एक कदम उठाते हुए देश भर में चल रहे महिला विकास केंद्र- जो बोर्ड के आर्थिक सहयोग से विभिन्‍न गैरसरकारी संगठन चलाते हैं- का नाम बदल कर फैमली काउंसलिंग सेंटर’ अर्थात परिवार परामर्श केंद्र कर दिया है । वैसे तो इस तरह के परिवार परामर्श केंद्र बनाने की यह प्रक्रिया एनडीए सरकार के शासनकाल में शुरू हुई थी, लेकिन उस दौरान तमाम विरोधों के चलते यह फैसला लागू नहीं हो सका था । बाद में इसे यूपीए सरकार ने लागू किया । बहरहाल, अच्छी बात यह है कि अब परिवार- उनके अंदर के विवाद, उनका टूटना आदि विषय सरकार, अदालत, थाना तथा गैरसरकारी संस्थाओं आदि सभी के सरोकार के विषय बन रहे हैं ।
अभी तक परिवारों के अंदर पैदा होने वाले विवादों की जानकारी समाज के भीतर से निकलकर इस तरह बाहर नहीं आ पाती थी कि सरकारी-गैरसरकारी संस्थाएं उनके समाधान का कोई हल खोज सकें । पुलिस की मध्यस्थता और संस्थाओं की मदद से इन समस्याओं के हल की कोई आसान राह अवश्य खुल सकती है, क्योंकि दंपतियों के परस्पर संबंधों और तालाक जैसे मामलों को सुलझाने को लेकर कायम रही झिझक अब टूट रही है । अब दंपति आपसी रिश्तों की शिकायत लेकर बाहरी इकाइयों के पास मदद के लिए निःसंकोच पहुँचने लगे हैं । ऐसा भी माना जा सकता है कि निजी दायरा अब खुल रहा है और बंद दरवाजों के पीछे मतभेद, तनाव तथा अन्याय अब भीतर ही दफन हो जाने के लिए बाध्य नहीं रह गए हैं । स्त्री आंदोलन ने भी तो पर्सनल इज पॉलिटिकल का नारा दिया था । लेकिन दूसरी तरफ यह भी सोचने की बात है कि दो बालिग या समझदार लोगों के बीच आपसी रिश्ता तय करने के लिए इतने बड़े पैमाने पर पुलिस की मध्यस्थता की जरूरत क्यों पड़ने लगी? लोग मसलों को स्वयं निपटा लेने के सक्षम क्यों नहीं बन रहे? साथ जीवन व्यतीत करने का फैसला लेने से पहले कैसे साथ-साथ रहना है-इसकी योजना ठीक से क्यों नही बनती या समस्या कहां है, इसे चिन्हित करने में वे असफल होते हैं? असल में मामला सिर्फ दो व्यक्‍तियों के अहम की टकराहट का नहीं होता है, बल्कि दायित्व बोध का अभाव और गैरवाजिब अपेक्षाओं का भी होता होगा । चूंकि पुराने हालात और वास्तविकताएं बदल रही हैं, इसलिए नई स्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप परिवारों का पुनर्गठन होना चाहिए ।
लेकिन इसके बावजूद अगर किसी अन्य हस्तक्षेप या प्रयास से दो लोग अपनी गलतफमी दूर कर पुनः शांति से जीवन जीने लगते हैं, तो इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । लेकिन यह भी समझना चाहिए कि हर तनाव सिर्फ गलतफहमी से पैदा नहीं होता है । लिहाजा सारे उपायों के बाद भी उन समस्याओं का निदान मुमकिन नहीं तो रहा हो, तो बेहतर होता है कि किसी का सुकून न छीन कर कोई नया ही रास्ता तलाशा जाए । इस काम में भी मध्यस्थ की भूमिका अपनाती पुलिस और सरकारी-गैरसरकारी संस्थाएं मददगार साबित हो सकती हैं ।
- अंजलि सिन्हा

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