साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह दर्पण समाज को उसके रूप का दर्शन कराती है। साहित्य में अखिल भारतीय दृष्टिकोण के विकास में साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका बडी महत्वपूर्ण है। दृष्टि के बगैर हम देख नही सकते । समाज में आ रहे नित्य नये बदलाव को साहित्य रूबरू दर्शाता है। सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता इस बात की है कि उसकी दशा और दिशा को सही मार्गदर्शन मिले ,क्योंकि यही सबसे बडी समस्या है। प्रख्यात अंतर्राष्ट्रीय प्रेरक शिव खेडा कहते हैं कि यदि समस्या है तो उसका समाधान भी है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि आज साहित्य सृजन में दृष्टिकोण का घोर अभाव है । साहित्य क्रान्ति का माध्यम नहीं बन पा रही है । राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर रचना नहीं की जा रही । हम स्थानीय मुद्दों और पुराने विषयों पर ही उलझे रहते हैं । मौलिक समस्याओं के साथ-साथ हमें समाधान की दृष्टि भी देनी पडेगी । भय, भूख, भ्रष्टाचार ,संस्कृति एवं नैतिकता को हम कहीं ना कहीं पूर स्थान नहीं दे पा रहे हैं और यहीं से शुरू होता है समाज में नई विकृतियों के पनपने का सिलसिला । मैकाले की शिक्षा पद्धति से क्या हमारी संस्कृति और नैतिकता कायम रह पायेगी? हमारी सांस्कृतिक धरोहर एवं मूल्य लुप्त हो रहें हैं । उसके संरक्षण हेतु लोककथा, लोकगीत, लोकनृत्य एवं लोकसंगीत को बचाना अत्यावश्यक है नहीं तो यह इतिहास बन जायेगा? यदि इसे जीवित रखना है तो हमें इसको अपने पत्रिकाओं में स्थान सुरक्षित रखना पडेगा। यह कितने आश्च्र्य का विषय है कि विदेशी हमारे संस्कृति पर नित्य नये शोध कर रहे हैं , अपना रहे हैं और हम अपने सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं । अगर भारत को बदलना है तो समाज को बदलें और यदि समाज को बदलना है तो ढुलमुल दृष्टिकोण बदलें। हलाँकि यह भी ध्रुवसत्य है कि साहित्य में आज अनेक वर्ग पैदा हो चुके हैं । प्रथम राष्ट्रवाद, दूसरा कम्युनिज्मवाद , तीसरा दलित्वाद , चौथा नारीवाद, पाँचवाँ कट्टरवाद और छठा फूहडवाद । हम इस सत्य को नकार नहीं सकते । मेरे विचार से दृष्टिकोण ही वह एकमात्र समाधान है जिसके आधार पर सशक्त समाज एवं राष्ट्र की परिकल्पना की जा सकती है । २०२० के सपनों का भारत क्य किसी चमत्कार से प्रमुख स्थान ले लेगा? भारत सशक्त एवं अग्रणी था है और होगा तो मात्र अपने विचार के बलबूते ही ।
रविन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार “साहित्य का विचार करते समय दो वस्तुओं को देखना होता है । विश्व पर साहित्यकार के हदय का अधिकार कितना है, दूसरा उसका कितना अंश स्थायी आकार में व्यक्त हुआ है । इसी दोनों में सब समय सामंजस्य नहीं रहता है । जहाँ रहता है वहाँ सोने पे सुहागा है । रचनाकार की कल्पना-सचेतन हदय जितना विश्वव्यापी होता है उतना ही उनकी गंभीरता से हम सबों की परितृप्ति बढ़ती है । मानव- विश्व की सीमा से परे असरकार हमारे चिंतन विहार क्षेत्र में उतनी ही विपुलता प्राप्त करती है, परन्तु रचना-शक्ति निपुणता साहित्य में नितांत मूल्यवान है । जिसका सहारा लेकर यह शक्ति प्रकाशित होती है और अपेक्षाकृत तुच्छ होने के बावजूद बिल्कुल नष्ट नहीं होती है । वह शक्ति भाषा में साहित्य में संचित होती रहती यह मनुष्य के अभिव्यक्ति की क्षमता को बढ़ा देती है । इस क्षमता को पाने के लिए मनुष्य सदा से व्याकुल है । जिसके माध्यम से मनुष्य की यह क्षमता परिपृष्ट होती है उनको यश देकर अपने ऋण चुकाने की चेष्टा करें तो यही सार्थकता होगी ।
इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक पत्रिकाओं को आपस में समन्वय और संवाद भी स्थापित करने होंगे । समय के बदलते परिवेश में सूचना क्रांति की नई तकनीक इंटरनेट को अपनाकर साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने साहित्य के ब्रह्यास्त्र से अखिल भारतीय दृष्टिकोण का विकास एवं सार्थकता प्राप्त कर सकती है । सूचना एवं ज्ञान को प्रवाहित करने से ही विकास की धारा बहेगी । शिक्षा, भाव और अवस्था परिवर्तन के बावजूद जो रचनाएँ अपने महिमा की रक्षा करती चली आ रही है उसकी अग्निपरीक्षा हो चुकी है । दृष्टिकोण के अभाव में चिंतन एवं सृजन का स्वरूप वास्तविक धरातल पर नहीं होता है बल्कि भटक जाता है । इसलिए मंजिल को पाने हेतु दृष्टिकोण की खास महत्ता है । साहित्यिक पत्रिका से जुड़ाव रखनेवाले उच्च कोटि के बौद्धिक स्तर वाले माने जाते हैं जिन्हें स्पष्ट दिशा निर्देश एवं दृष्टिकोण की ज्यादा जरूरत है क्योंकि यही वह शक्ति है जिसके द्वारा सम्पूर्ण समाज एवं राष्ट्र की दशा एवं दिशा निर्धारित होती है । साहित्य में दलित चिंतन, उपेक्षितों की सामूहिक आवाज एवं जहाँ अभी तक अँधेरा है पर केंद्रित सृजन किए जाने की परमावश्यकता है ।
(-गोपाल प्रसाद )
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सार्थक आलेख.
ReplyDeleteहिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य का एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरु करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये.
मैकाले की शिक्षा पद्धति से क्या हमारी संस्कृति और नैतिकता कायम रह पायेगी? हमारी सांस्कृतिक धरोहर एवं मूल्य लुप्त हो रहें हैं । उसके संरक्षण हेतु लोककथा, लोकगीत, लोकनृत्य एवं लोकसंगीत को बचाना अत्यावश्यक है नहीं तो यह इतिहास बन जायेगा?
ReplyDeleteआपकी चिंता स्वाभाविक है .. ब्लाग जगत में कल से ही हिन्दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्छा लग रहा है .. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
प्रिय मित्र
ReplyDeleteसादर अभिवादन
आज आपका ब्लाग देख हैं कल ही नागपुर जा रहा हूं। लौटने के पश्चात पत्रिका का अवलोकन कर अपने विचारों से अवश्य ही अवगत कराउंगा।
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथाचक्र
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Bahut achha lag aapka yah Blog.
ReplyDeleteप्रिय बन्धुबर!
ReplyDeleteबहुत ही सामयिक परिचर्चा का विषय है
बधाई!
aapkaa aalekh padha bahut hee achha lagaa.
ReplyDeleteaapkee soch aur drishtikon se man harshit ho uthaa, saahity premee hun aur kuch rachnaayen v kar letaa hun yahee kaaran hai ki aapke vichaar aur aap behad pasand aaye, aapke dwaara uthaya gaya ye kadam prasansneey hee nahee anukarneey bhee hai.
sadhuwaad