Monday, September 7, 2009

मैं और मेरा अतीत

“एकोअहम द्वितीयो नास्ति”- अर्थात सिर्फ मैं और कुछ भी नहीं, मुझसे ही शुरू होती है और जो मुझ पर चलती रहती है ।
“मैं जो एक सोच है, एक संस्कार है, और एक देश है, जिसने अतीत में कुछ भविष्य की इमारतों की बुनियाद रखी थी । क्या मै अपने आज में उन सपनों को पाता हूँ । जो हमने अतीत में संजोये थे । मैं जो दुनिया को प्रेम और सौहार्द से एक परिवार तथा उसके सदस्य होने का बीड़ा उठाया था ! क्या साकार कर सका । क्या हुए वो सपने, क्या हमने शांति और प्रेम के पुजारियों का बलिदान यूं ही व्यर्थ गंवा दिया ।
आज मैं इन सारे सवालों का उत्तर जब दूंढ़ता हूँ तो अपने आप को बहुत शर्मिंदा समझता हूँ, क्योंकि वो सारे अतीत नहीं हमारे भविष्य की नींव से इमारत बन सके नहीं, दुनिया में शांति स्थापित हो सकी । मिला तो सिर्फ, द्वेष, ईर्ष्या, कलह और सिर्फ अपना विकास करने की होड़, जिससे न तो अपना ही विकास हो सका ना ही समाज या देश का ।
बहुत महापुरूष कहते हैं कि आप अगर अपना विकास करे अपने आप को बदलें तो दुनिया बदल सकती है, मगर मे उनके अनुभवों से शत प्रतिशत सहमत नहीं हूँ । और न ही आपको भी होना चाहिये । जरूरत है मैं को बदलने की मैं में शांति स्थापित करने की, जो मैं एक व्यक्‍ति नहीं, एक समाज का नेता है जो नायक है उस देश का, उस संसार का जिसमें आधे से अधिक की आबादी अपने अस्तित्व तथा अपने होने और न होने की परिभाषा तक नहीं समझती । मैंने अपने अतीत में रावण से इस संसार को मुक्‍त कराकर शांति और प्रेम की स्थापना की तो कभी चन्द्रगुप्त बनकर सिकन्दर जैसे महत्वाकांक्षी महापुरूष के हृदय में शांति स्थापित किया । काफी नरसंहार के बाद अशोक के हृदय में शांति, प्रेम, शरणागत कराया ।
मगर आज मैं चाहते हुए भी इस संसार को प्रेम और शांति का पाठ नहीं पढ़ा सकता, क्योंकि यह प्रकृति की विलक्षणता ही तो है, कि बिना बलिदान के शांति और प्रेम स्थापित नहीं किया जा सकता । मैं बार-बार दूसरों के द्वारा सोमनाथ मंदिर के रूप में लूटा गया तो कभी अपने ही सपूतों के द्वारा बाँटा भी गया । मैं कभी भारत से हिन्दुस्तान, पाकिस्तान बना । मैं जो अतीत था, आज उसकी केवल परछाई रह गई है । आज के मैं में मेरा मानना है कि मैं के सपने बार-बार यूँ ही बनते और टूटते रहेंगे । जब तक की इसको साकार करने की शपथ हम आज और अभी नहीं लेते ।
हमारे अतीत का दुर्भाग्य भी उसी दिन से शुरू हुआ, जिस दिन से हमने अपने नजरिये से अपना, पराया, धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद के आधार पर अलग समझा । आखिर कब तक होती रहेंगी ऐसी घटनायें, कब तक हम इसे दुर्भाग्य कह कर टालते रहेंगे । कब तक अपने अमानवीय, व्यवहारों से अपने अतीत को जिम्मेदार ठहराते रहेंगे । आज हम जिसे गुनाहगार समझते या ठहराते हैं, उसके जिम्मेदार भी तो हमी हैं । मैं मौन था । उस समय भी, और आज भी रहूँगा । मुझे दुख उतना ही महसूस होता है । जब आप किसी सफलता पर उत्साहित होते या जश्न मनाते हैं। तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं आपसे आपकी सफलता से द्वेष करता हूँ । हाँ मुझे द्वेष है, आपके तरीके पर आपकी सोच पर क्योंकि उसके भविष्य में भी अंकुर फूटने वाले हैं, जो आज मेरे सामने है । वह कल आपसे वही प्रश्न करने वाला है, जो आज मैं जबाब ढूंढ़ नहीं सका हूँ । या जिसका जबाव मेरे पास नहीं है ।
आज मेरे सामने शब्दों की परिभाषायें और मतलब बदल गया है । क्योंकि ऐसा न होता तो, वो शब्द, वो गीत बनते ही नहीं जिसका अस्तित्व आज भी हमारे आपके बीच है, एक छोटा सा उदाहरण आपके समक्ष है, धर्म का जो सदियों पुराना है, जिसे सिर्फ इस लिए बनाया गया जो पूरे विश्‍व को एक प्रेम के धागे में बाँध सके ।
एक ऐसा शब्द जिसमें पूरा विश्‍व एक परिवार बन सके,
न कि हिन्द राष्ट्र या मुसलमान राष्ट्र सिख, या कैथोलिक राष्ट्र ही बने ।
जब धर्म एक शब्द था, तो उसके इतने सारे प्रारूप कैसे हुए, कैसे हुआ अलग-अलग रूप इसका आज इसका अर्थ बिल्कुल ही बदल चुका है, क्योंकि आज धर्म लोगों को जोड़ने के बजाय एक-दूसरे से मतभेद रखते हैं । एक-दूसरे को सताते हैं । कहीं गोधरा में मुस्लिम जलते हैं, तो वहीं कश्मीर में हिन्दू प्रताड़ित किये जाते हैं । -
ये सारे मुद्दे सिर्फ और सिर्फ कलह पैदा कर सकते हैं, शांति और प्रेम नहीं-
तो आइए क्यों न हम एक धर्म बनायें जो कि मानव धर्म हो, जिसमें मानव तो क्या कोई भी जीव जिसे दुख होता है, जो अशांति महसूस करता हो उसमें शांति की स्थापना करे ।
आज मैं के सामने जो सबसे बड़ा प्रश्न है, वो है, “मैं की बागडोर किसके हाथ में हो, कौन उसका सारथी बने जो इसे इन सारे प्रश्नों का उत्तर उसी के ही कर्मक्षेत्र, कुरूक्षेत्र में दे सके । जो मन की गति से भी तेज दौड़ सके ।
आज यह जो प्रश्न है, वह अब तक हुए सारे युद्ध के कारणों से बड़ा है वह सबसे महत्वपूर्ण इस लिए है, कि इस युद्ध के बाद कोई भी बचने वाला नहीं है । आज उसका प्रतिदंद्वी अन्य नहीं स्वयं ही है, क्योंकि जब आप स्वयं को मार दोगे फिर क्या बचेगा ?
आपको विजय पानी है, स्वयं पर और जीतना भी स्वयं को है, और हराना भी स्वयं को ।

आज मैं जो “हमारा देश” एक महत्वपूर्ण बदलाव के बाद प्रजातांत्रिक देश के रूप में दुनिया में अपने आप को विशेष रूप में स्थापित करना चाहता है, जो फिर से एक बार वही सपना जो साकार करना चाहता है, लेकिन हमलोग इसके उस सपने को हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं । हम अपने आप को उसकी महत्वाकांक्षा को लक्ष्य के रूप में नहीं तब्दील कर रहें हैं, क्योंकि हम उसकी महत्वाकांक्षा का महत्व अपनी आकाक्षांओं से धो देना चाहते हैं ।
हम उसके लक्ष्य को अपना लक्ष्य नहीं मानते, हम उसके विकास को अपना विकास नहीं मानते, हम अपने निजी विकास व सुख को ज्यादा तवज्जो देते हैं । हम दूसरे के दुखों से दुःखी नहीं होते हैं, उसके सुख से सुखी भी नहीं होते हैं, क्योंकि हम केवल अपना स्वयं अपने ही सुख और दुख का अनुभव करते हैं ।
अगर हममें से हर व्यक्‍ति अपने आपको बदलते हुए हर एक दूसरे के सुख -दुःख का सहभागी बन सके, तो वही अनुभूति है सच्चे सुख की और दुःख की । वास्तव में वही मानव है, वही सच्चा राष्ट्रभक्‍त व समाजसेवी हो सकता है क्योंकि-
“यूं तो हर आँख यहाँ बहुत रोती है,
हर बूँद मगर अश्क नहीं होती है,
देखकर रो दे जो जमाने का गम
उस आँख से गिरा हर अश्क मोती है ।"
अन्त में मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि आप हम अपने आप को बदलते हुए एक ऐसे समाज की स्थापना करे, एक ऐसे देश का निर्माण करे, एक ऐसा देश का निर्माण करें, जिसमें एक सामन्जस्य स्थापित हो सके । फिर से प्रेम, सौहार्द्र का वर्चस्व रहे, क्योंकि-
``A good heart is better than
all the heads in the world"


........................मुकेश कुमार पान्डेय

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