Wednesday, September 9, 2009

भारतीय भाषाओं के संरक्षण की चुनौती और साहित्यिक पत्रिकाएँ



प्रसिद्ध साहित्यकार रामविलास शर्मा के आलेख "जाति, जनपद , राष्ट्र और साहित्य" के अनुसार -नागार्जुन ने मैथिली में कविताएँ लिखी हैं ,केदार और त्रिलोचन ने अवधी में । जनपदीय भाषा के माध्यम से ये कवि अपने क्षेत्र के किसानों तक कुछ पढे-लिखे लोगों तक पहुँचते हैं । हिन्दी उर्दू दो जातियों की भाषाएँ नहीं है, वे एक ही जाति के भाषा के दो रूप हैं। इन दो रूपों में जो समानता है वह बुनियादी है , जो भिन्नता है वह गैर-बुनियादी है। उर्दू जितना ही जनपदीय भाषा के नजदीक आएगी उतना ही हिन्दी से उसका अलगाव कम होगा । जिन देशों में पूँजीवाद का भरपूर विकास हुआ है , उनमें भी जनपदीय भाषाएँ पूरी तरह अन्तर्धान नहीं हुई। भारत में वे बहुत दिनों तक रहेंगी और निरंतर जातीय भाषाओं को प्रभावित करेंगी। जिस प्रांत में में ८५% किसान हो ;वहाँ नागरिक भाषाएँ उससे प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकती है?उल्टा सुबोध होने के लिये उसे अपना रूप बदलना होगा।अपने विकास के लिये उसे गाँवों में जाना होगा , जहां जीवन का स्त्रोत है और प्रकृति के संसर्ग में जहाँ भाषा की जातीयता गढी जाती है। प्रेमचन्द की हिन्दी जनपदीय भाषाओं के नजदीक होने के कारण ही लोकप्रिय हुआ । भाषा की की समस्या सुलझाने के लिये हमने अपने गाँवों की भाषाओं में व्याप्त एक जातीयता और नैसर्गिक संस्कृति की ओर अभी तक उचित ध्यान नहीं दिया । पचास अथवा सौ बर्ष आगे चलकर जो खडी बोली देश के कोने- कोने में गूँजेगी उसका आज की खडी बोली से कितना विभिन्न रूप होगा , इसकी कल्पना की जा सकती है। लोग अनुभव कर रहे हैं कि हिन्दी- उर्दू का झगडा मिटाने के लिये हमें अपनी भाषा को देहाती उपभाषाओं की सहज विकसित जातीयता के अनुरूप गढना होगा। तुलसीदास और सूरदास जैसे कवियों की भाषा की शक्ति का बहुत बडा कारण उनका जनपदीय स्वभाव है। सूरदास की भाषा ब्रज के बाहर हिन्दी के अन्य जनपदों में तो लोकप्रिय है ही , वह हिन्दी प्रदेश के बाहर अन्य प्रदेशों में भी लोकप्रिय है। भारतेन्दु हरिश्चन्द ,प्रताप नारायण मिश्र ,बालमुकुन्द गुप्त ,प्रेमचन्द के गद्य हमारी जातीय भाषा का बहुत अच्छा नमूना है। जातिय भाषा का नमूना उनका हिन्दी गद्य है,उर्दू गद्य या पद्य नहीं । इसका कारण यह है कि हिन्दी तो संस्कृत शब्दों को तद्भव रूप में ले लेती है, उर्दू अरबी-फारसी शब्दों को तद्भव रूप में नही लेती लेकिन जनपदीय भाषायें अरबी फारसी शब्दों का चोला बदलने में थोडा भी हिचकती नही है। यही नीति मराठी और बांग्ला जैसी भाषाओं की भी है। संगीत की पुरानी बंदिशें आज भी अत्यधिक लोकप्रिय है । हमारी संगीत परंपरा एक है ,उसी तरह हमारी भाषायी परंपरा एक है । हिन्दी उर्दू का अलगाव अस्थायी है । मान लीजिए हिन्दी प्रदेश में हिन्दी उर्दू जैसा भेद न होता तो सांप्रदायिक भेदभाव को खत्म करने में कितनी सहायता मिलती ,सारे देश की श्रमिक जनता को संगठित करना कितना ज्यादा आसान होता अपने लिये और देश के लिये हमें हिन्दी उर्दू का अलगाव सचेत प्रयास द्वारा खत्म करना चाहिये । वर्तमान व्यवस्था को बदलने के लिये हिन्दी प्रदेश के किसान मजदूर जहाँ एक बार गतिशील हुए वहाँ का भाषायी मानचित्र बदले बिना नही रहेगा और उसका प्रभाव संपूर्ण देश की सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति पर पडेगा। इसके लिये हिन्दी जाति के विकास ,उसकी भाषा और साहित्य की परंपराओं , जनपद और जाति के संबंध जाति और राष्ट्र के संबंध , भारतीय चिंतन और मार्क्सवाद के संबंध को समझना जरूरी है। अंग्रेजों ने यहाँ अपना राज कायम करके समाज का पुराना ढाँचा तोडा, देश का उद्योगीकरण किया ,ज्ञान- विज्ञान की शिक्षा दी ,साहित्य और संस्कृति में आधुनिक युग का सूत्रपात किया । अंग्रेजी राज की इस प्रगतिशील परंपरा को ’मार्क्सवाद’ बढा रहा है। हिन्दी जाति संख्या में भारत की सबसे बडी जाति है । यहाँ जो कुछ भला बुरा होता है ,उसका प्रभाव हिन्दी प्रदेश तक सीमित नहीं रहता , सारे प्रदेश पर पडता है । यहाँ की जनता के संगठित अभियान के बिना देश की वर्तमान व्यवस्था को बदलना असंभव है। आज सही दिशा में साहित्य के विकास को प्रेरित किये जाने की आवश्यकता है । यह स्पष्ट हो चला है कि राजनीति में पूँजीवादी नेतृत्व देश को वर्तमान संकट से उबार नही सकती । वैचारिक दृष्टि से सुदृढता और व्यवस्था को बदलने के लिये अटूट मनोबल का परिचय जब तक नही देंगे तब तक अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर भी व्यवस्था में कोई परिवर्तन नही होगा । राजनीति और साहित्य दोनों के लिये भाषा महत्वपूर्ण है । अष्टम अनुसूची में शामिल भारतीय भाषाओं की सूची में प्रमुख भाषा मैथिली अन्य भारतीय भाषाओं के अनुवाद एवं विलुप्तप्राय संस्कृति के संरक्षण ,संवर्द्धन में तेजी के साथ आगे कदम बढा रही है। साहित्य अकादमी द्वारा अनेक पुस्तकें (संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन पर) प्रकाशित की गयी है। भारतीय भाषा संस्थान ,मैसूर द्वारा भारतीय भाषाओं के संरक्षण हेतु साहित्यिक पत्रिकाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है । आज आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी के मूल स्वरूप के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं की छौंक भी लगयी जाय जिससे भाषा के सम्मान के साथ-साथ साहित्य का अलग जायका प्रस्तुत हो सके । दिल्ली पुस्तक मेला में बिहार के सिवान जिले की मूल निवासी लेखिका आशारानी लाल की लोकार्पित पुस्तक "लौट चलें" में हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी शब्दों का प्रयोग एक नया आयाम प्रदान करता है । राष्ट्र्भाषा के साथ मातॄभाषा के प्रयोग से मातृभाषा का ही नही राष्ट्रभाषा का सम्मान भी बढेगा । इस मूल तथ्य को चुनौती के रूप में स्वीकार करने की जरूरत है । देखना यह है कि आने वाले समय में साहित्यिक पत्रिकाएँ इस चुनौती को कितना स्वीकार कर पाने में सक्षम है ?
(-गोपाल प्रसाद)

No comments:

Post a Comment

I EXPECT YOUR COMMENT. IF YOU FEEL THIS BLOG IS GOOD THEN YOU MUST FORWARD IN YOUR CIRCLE.