Thursday, September 3, 2009

चीन और पाकिस्तान को खटक रहा है भारत

भारत और चीन का सीमा विवाद ः चीन हमेशा से भारत के प्रति दुर्भावना रखनेवाला देश है । १९६२ युद्ध के बाद से भारत-चीन एक दूसरे पर हिमालयी क्षेत्र की ३५०० किमी। सीमाओं के अतिक्रमण का आरोप लगाते रहे हैं । आजादी से पहले ब्रिटिश शासकों ने हिमालय के इस दुर्गम क्षेत्र में सीमांकन के बारे में सोचा लेकिन दोनों ही पक्ष संयुक्‍त सीमाओं के बारे में एकमत नहीं हुए । १९५८ में चीन ने नक्शा जारी कर अक्साई चीन के पठार को अपना दर्शाया । भारत ने विरोध प्रकट करते हुए आरोप लगाया कि चीन ने अक्साई चीन के पठार के ३८ हजार किमी। स्क्वायर क्षेत्र पर कब्जा जमा लिया है । युद्ध विराम से पहले चीन ने अक्साई चीन और अरूणाचल प्रदेश में भारतीय सैन्य ठिकाने कब्जे में ले लिए । उसने युद्ध पूर्व की स्थिति तथा दोनों देशों को बाँटनेवाली मैकमोहन लाइन को मानने से इनकार कर दिया । युद्ध विराम के बाद की स्थिति को ही वास्तविक नियंत्रण रेखा के नाम से जाना जाता है । भारत का आरोप है कि १९६३ में चीन ने अवैध रूप से उत्तरी कश्मीर की ५१८० किलोमीटर क्षेत्र पाकिस्तान को सौंप दी । चीन का दावा है कि भारत ने अरूणाचल प्रदेश की ९० हजार स्क्वायर किलोमीटर क्षेत्र पर पर अवैध रूप से कब्जा जमा रखा है । दो दशकों की बातचीत के बाद भारत और चीन ने सन्‌ २००० में सीमाओं को रेखांकित करनेवाले नक्शों का आदान-प्रदान किया । सन्‌ २००३ में विशेष दल गठित किए गए । २००५ में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी प्रमुख वेन जिआबाओ ने विवादों को हल करने के संबंध में एक सहमति पत्र पर दस्तखत किए । इसके बाद चीन ने सिक्‍किम पर अपने दावे को छोड़ दिया । भारत की सतर्कता आवश्यक ःपूर्वोत्तर के सीमांत क्षेत्र की जलविद्युत परियोजनाओं में सहभागिता को लेकर चीन का उत्साह भारत सरकार को खटकने लगा । इसलिए चीनी कंपनियों के प्रस्तावों को रोकने हेतु सरकार ने नियमों की श्रृंखला बना दी है । नए नियमों के अनुसार अब संवेदनशील इलाकों में विदेशी सहयोग से बननेवाली किसी भी विद्युत परियोजना को सरकार से सुरक्षा सहमति लेना होगा । मंत्रीमंडल की सुरक्षा समिति (सीसीएस) की बैठक में इन नियमों पर मुहर लग गई । सरकार ने स्पष्ट किया है कि जम्मू कश्मीर, सिक्‍किम, सहित पूर्वोत्तर राज्यों, पाकिस्तान के साथ लगने वाली नियंत्रण रेखा और तिब्बत के साथ लगनेवाली वास्तविक नियंत्रण रेखा तथा अंतरराष्ट्रीय सीमा में भारतीय जमीन पर ५० किमी। के हवाई क्षेत्र में बनने वाली कोई भी बिजली परियोजना इन नए नियमों के अधीन में होगी, जिसके तहत केवल विदेशों से आने वाले इंजीनियर व परियोजना विशेषज्ञों के वीजा के नियम कड़े होंगे बल्कि विदेशी उपकरणों के आयात पर भी सरकार की नजर होगी । परियोजना पर काम कर रहे विदेशियों की आवाजाही व भारत में रुकने की अवधि के नियम भी काफी कड़े होंगे । इस मामले में सीसीएस के लिए तैयार किये गए नोट के दस्तावेज के अनुसार सरकार की नींद जब खुली तब तक हिमाचल प्रदेश में अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगे सीमावर्ती क्षेत्र की कई जलविद्युत परियोजनाएँ विदेशी कंपनियों को दी जा चुकी थीं । हिमाचल प्रदेश की पार्वती स्टेज-तीन परियोजना और पश्‍चिम बंगाल की तीस्ता लो डैम परियोजना-चार जैसी बिजली परियोजनाओं के लिए आइएमपीएसए एशिया लि। और डोंगफांग इलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन जैसी कंपनियों के निवेश प्रस्तावों को भी फिलहाल रोक लगा दी गई है । सचिवोंकी समिति की अनुशंसा पर एनएचपीसी ने बाद में इन परियोजनाओं का काम सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी झेल को सौंपा । नियमों की श्रृंखला खड़ी करने से पहले विदेश, गृह, रक्षा, ऊर्जा मंत्रालयों और आईबी तथा रॉ जैसी खुफिया एजेंसियों के बीच काफी लंबी बहस चली । इस बात पर प्रायः एकमतता थी कि सीमावर्ती क्षेत्र की परियोजनाओं में चीनी कंपनियों की मौजूदगी सुरक्षा मद्‌देनजर अच्छी नहीं होगी । इस संदर्भ में विदेश मंत्रालय का इस बात पर जोर था कि केवल चीनी कंपनियों को अलग-थलग कर नियमों को बनाना दोनों देशों के रिश्तों को प्रभावित कर सकता है । गृह मंत्रालय और आईबी व रॉ ने इस बात पर कर सकता है । गृह मंत्रालय और आईबी व रॉ ने इस बात पर सख्त ऐतराज जताया है कि सीमावर्त्ती इलाकों में चीनी कंपनियों की भागीदारी भारत की सुरक्षा के मद्‌देनजर परेशानी खड़ा कर सकती है । आश्‍चर्य का विषय यह है कि अब तक विदेशी कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट देने से पहले सुरक्षा एजेंसियों की क्लीन चिट लेने की बाध्यता केवल केन्द्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों के लिए ही था, जिसके कारण हिमालय प्रदेश की कई बिजली परियोजनाओं में विदेशी कंपनियों की भागीदारी है । मंत्रीमंडलीय समिति के दस्तावेज भी यह मानते हैं कि चीनी कंपनियों के प्रस्तावों को एकदम खारिज करना भी संभव नहीं है । मूल्य के मामले में बेहद प्रतिस्पर्धी बोली लगानेवाली चीनी कंपनियों के सहयोग के बिना सबसे बड़ा खतरा बिजली परियोजनाओं की कीमत बढ़ने का है परन्तु लागत बढ़ने की कीमत पर सरकार के लिए सुरक्षा को लेकर जोखिम लेना संभव नहीं । इस आलोक में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हमें विद्युत परियोजनाओं के लिए बड़े पूँजी निवेशकों को ढूँढने का विकल्प तथा अभेद्य सुरक्षा दुर्ग को तैयारी करनी होगी । चीन की आंतरिक मंशा उजागर ःऊपर से चिकनी चुपड़ी बातें करनेवाले चीन दोस्ती का दिखावा करता है परन्तु वास्तव में वह अब भी भारत की बर्बादी के बारे में ही सोंचता है । चीनी रणनीतिकार द्वारा हाल ही में लिखे गए लेख के अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान जैसे अपने मित्र देशों की सोची-समझी चाल है और वह इस लेख से अनभिज्ञ नहीं हो सकती । इस लेख का प्रकाशन भारत चीन सीमा विवाद पर दोनों देशों के बीच १३वें दौर की वार्ता की समाप्ति के समय हुआ है, जिसमें चीन ने आपसी रणनीतिक विश्‍वास और साझेदारी को नए स्तर तक बढ़ाने पर जोर दिया है । चीनी इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज (सीआईआईएसएस) की वेबसाइट पर प्रकाशित लेख में कहा गया है कि यदि चीन कदम उठाए तो तथाकथित महान भारतीय संघ बिखर सकता है । लेखक झान लुई का तर्क है कि तथाकथित भारत राष्ट्र इतिहास में था, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एकता केवल हिंदू धर्म पर निर्भर है । लेख में यह भी कहा गया है कि भारत को केवल हिंदू धर्म धार्मिक राष्ट्र की संज्ञा दी जा सकती है । भारत के जातीय विभाजन को ध्यान में रखकर चीन को स्वयं के हित में और पूरे एशिया की प्रगति के लिए असमी, तमिल और कश्मीरी जैसी विभिन्‍न राष्ट्रीयताओं के साथ एकजुट होना चाहिए और उनके स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना में सहयोग देना चाहिए । लेख में विशेष रूप से भारत से असम की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए चीन को युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) का सहयोग करने को कहा गया है । ऐसा लगता है तिब्बत की स्वायत्तता की माँग करनेवाले धार्मिक गुरू दलाई लामा के आंदोलन को भारत का मौन समर्थन मिलने के प्रतिक्रिया स्वरूप चीन यह राग अलाप रहा है । हमें चीन को हल्के में नहीं लेकर उससे निपटने की कारगर रणनीति बनाने की दिशा में तैयारी करनी चाहिए । चीन के साथ-साथ पाकिस्तान को भी भारत की समृद्धि और विकास खटकती ही रहती है । वह नित्य नए बहाने गढ़कर विवादों को सुलझाने के बजाय उलझाने में अपनी ऊर्जा व्यय करता रहता है । पाकिस्तान अपनी स्थिति और भविष्य पर ध्यान देने के बजाय उल्टा ही सोंचता रहता है । पाकिस्तान पर है भारत का ३०० करोड़ का कर्ज ःपाकिस्तान पर अभी भी भारत का बँटवारे के पहले के ३०० करोड़ रूपए का कर्ज है । यह कर्ज तब से साल दर साल जस का तस बना हुआ है और सरकारी बजट में इसे देनदारी विषय के तहत दर्शाया जाता है । बजट में इसका जिक्र पाकिस्तान पर बँटवारे के पूर्व के कर्ज की हिस्सेदारी की राशि के रूप में किया गया है और राशि ३०० करोड़ दिखायी जाती है । पाकिस्तान ने भले ही कर्ज की यह रकम अब तक न चुकायी हो लेकिन भारत ने बँटवारे के पूर्व के अपने ५० करोड़ रूपए के ऋण का भुगतान १९४७ में ही कर दिया था । आजाद भारत में पहली बार १९५०-५१ के बजट में इस ३०० करोड़ रूपए को देनदारी के रूप में पाकिस्तान पर दिखाया गया था और यह कर्ज तभी से जस का तस बना हुआ है । भारत ने इस रकम पर अपने खेतों में ब्याज की दर नहीं जोड़ी है । हमारे नेताओं ने इस कर्ज के माँग अभी तक पाकिस्तान से क्यों नहीं की है । क्या हमारी औकात यही है कि समझौता के बाद भी अपने बकाए रकम की माँग नहीं कर सकते ?बलूचिस्तान है विवाद की जड़ ःबलूची मूल रूप से साउथ एशिया में बिखरे कुर्द हैं । इनकी आबादी ईरान, तुर्की, इराक में फैली है जबकि ईरान, पाक और अफगानिस्तान में है । बलूचिस्तान में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक गैस के स्त्रोत हैं । क्षेत्रफल के हिसाब से यह पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रान्त है । यह कुल क्षेत्रफल का ४८ प्रतिशत है, परन्तु यहाँ पूरे देश की केवल ५ प्रतिशत जनसंख्या ही बसती है । पूरा इलाका बेहद पिछड़ा है और आज भी यहाँ स्थानीय कबाइली सरदारों का ही हुक्म चलता है । ब्रिटिशों के समय कालात के खान बलूचिस्तान के शासक थे । १९४७ में उन्होंने अपनी रिसायत को पाकिस्तान में मिलाने के बजाय आजाद रहना चाहा परन्तु मार्च १९४८ में पाकिस्तानी फौजों ने बलूचिस्तान पर जबरन कब्जा लिया । ५० दशक में कालात के राजपरिवार से जुड़े लोहों ने पीपल्स पार्टी शुरू की, जो नए बलूचे राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती थी । अब यहाँ से बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी से जुड़े आतंकवादियों को मदद पहुँचाई जा रही है । विदेशी मामलों के जानकारों के अनुसार बलूचिस्तान शब्द जोड़ने से भारत की स्थिति कमजोर हुई । सरकारी पक्ष का कहना है कि पाक इस पर नैतिक रूप से इतना मजबूर था कि हमें साझा बयान में इसका जिक्र करना पड़ा । बलूचिस्तान का उल्लेख एक सामजिक चूक ः भागवतराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने शर्म-अल शेख में भारत और पाकिस्तान के संयुक्‍त बयान में बलूचिस्तान के उल्लेख को एक बड़ी गलती और सामरिक चूक बताते हुए कहा कि यह प्रधानमंत्री के रूख का संकेत देता है । भागवत ने कहा, अभी तक देश में कई सरकारों ने शासन किया । लेकिन पहली बार, इस सरकार ने बलूचिस्तान का उल्लेख किया । यह एक बड़ी गलती थी । क्या सिंह कमजोर हैं, उन्होंने कहा, सामाजिक दृष्टि से, भारत बचाव मुद्रा में चला गया है । आतंकवाद और पाकिस्तान के साथ भावी बातचीत का जिक्र करते हुए भागवत ने कहा कि गोली से बोली नहीं हो सकती पहले गोली बंद करो फिर बोली की बात करो । भारत और नेपाल मित्रता संधि पर समीक्षानेपाल व भारत ने ५९ वर्ष पुरानी शांति व मित्रता की द्विपक्षीय संधि पर समीक्षा करने को तैयार हो गए हैं । यह संधि नेपाल में काफी विवाद का केंद्र रही है । दोनों देशों के विदेश सचिव १९५० में बनाई गई इस संधि के अलावा अन्य द्विपक्षीय समझौतों पर विचार-विमर्श करेंगे । नेपाल के प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल की पांच दिवसीय भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच जारी संयुक्‍त घोषणापत्र मेंइसकी जानकारी दी गई है । १९५० की संधि के तहत नेपाल के रक्षा व सुरक्षा मामलों में भारत का काफी प्रभाव है । संधि दोनों देशों के बीच बेहतर संबंधों की प्रतीक मानी जाती है । खुली सीमा की वकालत करने वाली यह संधि दोनों देशों के नागरिकों को देशों में बराबर का अधिकार प्रदान करती है । समीक्षा पर तैयार होने के अलावा नेपाल ने भारत को यह भी विश्‍वास दिलाया है कि वह अपनी जमीन का उपयोग भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा । भारत ने भी नेपाल को इसी तरह का आश्‍वासन दिया है । द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग को व्यापक रूप देने और अनधिकृत कारोबार पर अंकुश लगाने को लेकर दोनों देश नए व्यापार समझौते पर सहमत हो गए । दोनों देशों के बीच व्यापार समझौते पर पिछले दो वर्षों से बातचीत चल रही थी । इसके तहत भारत, नेपाल निर्मित सामान को शुल्क मुक्‍त भारतीय बाजार में आने की अनुमति देता है । एक अधिकारी ने कहा कि अवैध कारोबार पर अंकुश लगाने वाले इस व्यापार समझौते पर औपचारिक रूप से बाद में हस्ताक्षर किए जाएंगे । ( गोपाल प्रसाद)

No comments:

Post a Comment

I EXPECT YOUR COMMENT. IF YOU FEEL THIS BLOG IS GOOD THEN YOU MUST FORWARD IN YOUR CIRCLE.