Wednesday, September 9, 2009

राष्ट्रभाषा से हमारा भावनात्मक संबंध

वैसे तो सभी भाषाएँ मानवीय जीवन में अहम्‌ स्थान रखती हैं क्योंकि बिना भाषा के इन्सान अभिव्यक्‍ति हीन हो जाएगा, लेकिन मातृभाषा इन सबसे सर्वोपरि होती है क्योंकि भाषाएँ जहाँ भावनाएँ, दर्द, इच्छा आदि के अभिव्यक्‍ति की माध्यम होती हैं, वहीं हमारी मातृभाषा इन जरूरतों की पूर्ति करने के साथ-साथ हमारी धरती के परवरिश व संस्कारों की खुशबू भी बिखेरती है । मातृभाषा वैसे ही हमारे मन-मस्तिष्क में स्थान बनाती है । जैसे नवजात शिशु को उसकी माँ शब्दों व भावनात्मक रूपी संकेत भरी भाषा में इस धरा-धरती व प्रकृति से, रिश्तों, वस्तुओं आदि का बोध कराती है और माँ की दी पहली हर वो सीख हमारे मन में जन्म-जन्मान्तर के लिए रच-बस जाती है । जो परिवार में सभी सदस्य अलग-अलग भावनाओं व स्वभाव के होने के बावजूद भी बाह्य तौर पर एक ही परिवार के परिचायक बनते हैं और एक मजबूत पारिवारिक बंधन बनाता है । राष्ट्रभाषा ही हमें क्षेत्रीय परिवेश से हटकर एक समूचे भावना के साथ पूरे राष्ट्र को एक पारिवारिक सदस्य के रूप में जोड़ता है और राष्ट्रभाषा विश्‍व स्तर पर हजारों व्यक्‍तित्व, भावनाओं संस्कारों का समुचित परिचायक बनती है । हमारे व्यक्‍तित्व को एक गरिमामयी स्थान दिलाने में सहायक होती है । जिस मिट्‌टी की भाषा वहाँ के रहने वालों के साथ बदल जाती है । उस मिट्‌टी की पहचान भी बदल जाती है । अतः भाषा हमारी पहचान व व्यक्‍तित्व के साथ-साथ हमारे अतीत के संस्कारों को भी जिंदा रखती है ।
हिंदी दिवस के इस अवसर पर आज भारतीयों में अपनी भाषा के प्रति समर्पण व लगाव का अभाव दिखाई दे रहा है क्योंकि भौतिकता की होड़ में हर व्यक्‍ति अपनी सफलता के लिए विदेशी आर्थिक ताकत के आगे तथा उनकी व्यावसायिक नीति के तहत उन्हें हम अपनी संस्कृति में भी शामिल करते जा रहे हैं । जिसके कारण हमारी भाषा पर तो आघात हो ही रहा है साथ ही साथ हमारी संस्कृति पर भी आघात हो रहा है क्योंकि भाषा ही संस्कृति की वाहक है । जब हम किसी और की भाषा अपनाते हैं तो उसकी संस्कृति भी अपनाना प्रारंभ कर देते हैं । जैसे कि जब हम अंग्रेजी में कहते हैं ‘गुड मॉर्निंग’ तो हमारा प्रणाम या नमस्ते करने का संस्कार खत्म हो जाता है । इस कारण हम धीरे-धीरे अपनी वास्तविक पहचान खोते जा रहे हैं और जिस देश में राष्ट्रभाषा के प्रति लगाव व समर्पण कम होता जाता है उसकी संस्कृति भी विलुप्त होती जाती है । साथ ही साथ जो क्षेत्रीयता से परे राष्ट्रभाषा का भावनात्मक बंधन होता है जो हम सबको पूरे राष्ट्र से जोड़ती है वह भी कम होने लगता है और हम पराई संस्कृति का अनुसरण तो करते ही हैं साथ ही साथ आपस में क्षेत्रीयता को लेकर विवाद की दीवार भी खड़ी करते हैं । अतः भविष्य को देखते हुए ये सभी चीजें हमारे व हमारे राष्ट्र के लिए हितकर नहीं हैं । हम सभी को इस हिंदी दिवस पर यह प्रण लेना चाहिए कि माँ के साथ मातृभाषा से लगाव रखते हुए हम सबको एक माला में पिरोने वाली राष्ट्रभाषा को पिता तुल्य सम्मान देते हुए तथा उसे अपने दैनिक जीवन में अपनाते हुए उसका अपना राष्ट्र का और अपने संस्कृति का विकास करें और विश्‍व पटल पर अपनी सुंदर छवि बनावें इसमें हमें अपना स्वाभिमान भी दिखाई पड़ेगा । जहाँ हमें किसी भाषा को अपनाने के बजाय लोग हमें हमारी भाषा के साथ अपनाएँ । इसके साथ-साथ हमें इकबाल साहब की लिखित सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा रचनाके अंतर्गत “हिन्दवी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्ताँ हमारा’ में आज हमें वतन तो दिखाई दे रहा है पर आज हिन्दवी नहीं रह गए । क्योंकि सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा है और ये गुलिस्ताँ भी है लेकिन हम इसके बुलबुले नहीं रह गए हैं ।


कृष्णगोपाल मिश्रा

2 comments:

  1. "क्योंकि सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा है और ये गुलिस्ताँ भी है लेकिन हम इसके बुलबुले नहीं रह गए हैं ।"

    'बुलबुले' का अर्थ बता दें तो हम पर कृपा होगी !

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  2. हम सभी को इस हिंदी दिवस पर यह प्रण लेना चाहिए कि माँ के साथ मातृभाषा से लगाव रखते हुए हम सबको एक माला में पिरोने वाली राष्ट्रभाषा को पिता तुल्य सम्मान देते हुए तथा उसे अपने दैनिक जीवन में अपनाते हुए उसका अपना राष्ट्र का और अपने संस्कृति का विकास करें और विश्‍व पटल पर अपनी सुंदर छवि बनावें इसमें हमें अपना स्वाभिमान भी दिखाई पड़ेगा.
    ati sundar

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