Monday, September 14, 2009

साहित्य में अखिल भारतीय दृष्टिकोण के विकास में साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका

साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह दर्पण समाज को उसके रूप का दर्शन कराती है। साहित्य में अखिल भारतीय दृष्टिकोण के विकास में साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका बडी महत्वपूर्ण है। दृष्टि के बगैर हम देख नही सकते । समाज में आ रहे नित्य नये बदलाव को साहित्य रूबरू दर्शाता है। सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता इस बात की है कि उसकी दशा और दिशा को सही मार्गदर्शन मिले ,क्योंकि यही सबसे बडी समस्या है। प्रख्यात अंतर्राष्ट्रीय प्रेरक शिव खेडा कहते हैं कि यदि समस्या है तो उसका समाधान भी है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि आज साहित्य सृजन में दृष्टिकोण का घोर अभाव है । साहित्य क्रान्ति का माध्यम नहीं बन पा रही है । राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर रचना नहीं की जा रही । हम स्थानीय मुद्दों और पुराने विषयों पर ही उलझे रहते हैं । मौलिक समस्याओं के साथ-साथ हमें समाधान की दृष्टि भी देनी पडेगी । भय, भूख, भ्रष्टाचार ,संस्कृति एवं नैतिकता को हम कहीं ना कहीं पूर स्थान नहीं दे पा रहे हैं और यहीं से शुरू होता है समाज में नई विकृतियों के पनपने का सिलसिला । मैकाले की शिक्षा पद्धति से क्या हमारी संस्कृति और नैतिकता कायम रह पायेगी? हमारी सांस्कृतिक धरोहर एवं मूल्य लुप्त हो रहें हैं । उसके संरक्षण हेतु लोककथा, लोकगीत, लोकनृत्य एवं लोकसंगीत को बचाना अत्यावश्यक है नहीं तो यह इतिहास बन जायेगा? यदि इसे जीवित रखना है तो हमें इसको अपने पत्रिकाओं में स्थान सुरक्षित रखना पडेगा। यह कितने आश्च्र्य का विषय है कि विदेशी हमारे संस्कृति पर नित्य नये शोध कर रहे हैं , अपना रहे हैं और हम अपने सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं । अगर भारत को बदलना है तो समाज को बदलें और यदि समाज को बदलना है तो ढुलमुल दृष्टिकोण बदलें। हलाँकि यह भी ध्रुवसत्य है कि साहित्य में आज अनेक वर्ग पैदा हो चुके हैं । प्रथम राष्ट्रवाद, दूसरा कम्युनिज्मवाद , तीसरा दलित्वाद , चौथा नारीवाद, पाँचवाँ कट्टरवाद और छठा फूहडवाद । हम इस सत्य को नकार नहीं सकते । मेरे विचार से दृष्टिकोण ही वह एकमात्र समाधान है जिसके आधार पर सशक्त समाज एवं राष्ट्र की परिकल्पना की जा सकती है । २०२० के सपनों का भारत क्य किसी चमत्कार से प्रमुख स्थान ले लेगा? भारत सशक्त एवं अग्रणी था है और होगा तो मात्र अपने विचार के बलबूते ही ।
रविन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार “साहित्य का विचार करते समय दो वस्तुओं को देखना होता है । विश्‍व पर साहित्यकार के हदय का अधिकार कितना है, दूसरा उसका कितना अंश स्थायी आकार में व्यक्‍त हुआ है । इसी दोनों में सब समय सामंजस्य नहीं रहता है । जहाँ रहता है वहाँ सोने पे सुहागा है । रचनाकार की कल्पना-सचेतन हदय जितना विश्‍वव्यापी होता है उतना ही उनकी गंभीरता से हम सबों की परितृप्ति बढ़ती है । मानव- विश्‍व की सीमा से परे असरकार हमारे चिंतन विहार क्षेत्र में उतनी ही विपुलता प्राप्त करती है, परन्तु रचना-शक्‍ति निपुणता साहित्य में नितांत मूल्यवान है । जिसका सहारा लेकर यह शक्‍ति प्रकाशित होती है और अपेक्षाकृत तुच्छ होने के बावजूद बिल्कुल नष्ट नहीं होती है । वह शक्‍ति भाषा में साहित्य में संचित होती रहती यह मनुष्य के अभिव्यक्‍ति की क्षमता को बढ़ा देती है । इस क्षमता को पाने के लिए मनुष्य सदा से व्याकुल है । जिसके माध्यम से मनुष्य की यह क्षमता परिपृष्ट होती है उनको यश देकर अपने ऋण चुकाने की चेष्टा करें तो यही सार्थकता होगी ।
इसके अतिरिक्‍त राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक पत्रिकाओं को आपस में समन्वय और संवाद भी स्थापित करने होंगे । समय के बदलते परिवेश में सूचना क्रांति की नई तकनीक इंटरनेट को अपनाकर साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने साहित्य के ब्रह्यास्त्र से अखिल भारतीय दृष्टिकोण का विकास एवं सार्थकता प्राप्त कर सकती है । सूचना एवं ज्ञान को प्रवाहित करने से ही विकास की धारा बहेगी । शिक्षा, भाव और अवस्था परिवर्तन के बावजूद जो रचनाएँ अपने महिमा की रक्षा करती चली आ रही है उसकी अग्निपरीक्षा हो चुकी है । दृष्टिकोण के अभाव में चिंतन एवं सृजन का स्वरूप वास्तविक धरातल पर नहीं होता है बल्कि भटक जाता है । इसलिए मंजिल को पाने हेतु दृष्टिकोण की खास महत्ता है । साहित्यिक पत्रिका से जुड़ाव रखनेवाले उच्च कोटि के बौद्धिक स्तर वाले माने जाते हैं जिन्हें स्पष्ट दिशा निर्देश एवं दृष्टिकोण की ज्यादा जरूरत है क्योंकि यही वह शक्‍ति है जिसके द्वारा सम्पूर्ण समाज एवं राष्ट्र की दशा एवं दिशा निर्धारित होती है । साहित्य में दलित चिंतन, उपेक्षितों की सामूहिक आवाज एवं जहाँ अभी तक अँधेरा है पर केंद्रित सृजन किए जाने की परमावश्यकता है ।
(-गोपाल प्रसाद )

Thursday, September 10, 2009

साहित्य में अखिल भारतीय दृष्टिकोण के विकास में साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका



साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह दर्पण समाज को उसके रूप का दर्शन कराती है। साहित्य में अखिल भारतीय दृष्टिकोण के विकास में साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका बडी महत्वपूर्ण है। दृष्टि के बगैर हम देख नही सकते । समाज में आ रहे नित्य नये बदलाव को साहित्य रूबरू दर्शाता है। सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता इस बात की है कि उसकी दशा और दिशा को सही मार्गदर्शन मिले ,क्योंकि यही सबसे बडी समस्या है। प्रख्यात अंतर्राष्ट्रीय प्रेरक शिव खेडा कहते हैं कि यदि समस्या है तो उसका समाधान भी है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि आज साहित्य सृजन में दृष्टिकोण का घोर अभाव है । साहित्य क्रान्ति का माध्यम नहीं बन पा रही है । राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर रचना नहीं की जा रही । हम स्थानीय मुद्दों और पुराने विषयों पर ही उलझे रहते हैं । मौलिक समस्याओं के साथ-साथ हमें समाधान की दृष्टि भी देनी पडेगी । भय, भूख, भ्रष्टाचार ,संस्कृति एवं नैतिकता को हम कहीं ना कहीं पूर स्थान नहीं दे पा रहे हैं और यहीं से शुरू होता है समाज में नई विकृतियों के पनपने का सिलसिला । मैकाले की शिक्षा पद्धति से क्या हमारी संस्कृति और नैतिकता कायम रह पायेगी? हमारी सांस्कृतिक धरोहर एवं मूल्य लुप्त हो रहें हैं । उसके संरक्षण हेतु लोककथा, लोकगीत, लोकनृत्य एवं लोकसंगीत को बचाना अत्यावश्यक हैनहीं तो यह itihaas बन जायेगा? यदि इसे जिवित रखना है तो हमें इसको अपने पत्रिकाओं में स्थान सुरक्षित रखना पडेगा। यह कितने आश्च्र्य का विषय है कि विदेशी हमारे संस्कृति पर नित्य नये शोध कर रहें हैं , अपना रहे हैं और हम अपने सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं । अगर भारत को बदलना है तो समाज को बदलें और यदि समाज को बदलना है तो ढुलमुल दृष्टिकोण भाडाळॆम । हलाँकि यह भी ध्रुव्सत्य है कि साहित्य में आज अनेक वर्ग पैदा हो चुके हैं । प्रथम राष्ट्रवाद, दूसरा कम्युनिज्मवाद , तीसरा दलित्वाद , चौथा नरीवाद, पाँचवाँ कट्टरवाद और छठा फूहडवाद । हम इस सत्य को नकार नहीं सकते । मेरे विचार से दृष्तिकोण ही वह एकमात्र समाधान है जिसके आधार पर सशक्त समाज एवं राष्ट्र की परिकल्पना की जा सकती है । २०२० के सपनों का भारत क्य किसी चमत्कार से प्रमुख स्थान ले लेगा? भारत सशक्त एवं अग्रणी था है और होगा तो मात्र अपने विचार के बलबूते ही ।
रविन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार “साहित्य का विचार करते समय दो वस्तुओं को देखना होता है । विश्‍व पर साहित्यकार के हदय का अधिकार कितना है, दूसरा उसका कितना अंश स्थायी आकार में व्यक्‍त हुआ है । इसी दोनों में सब समय सामंजस्य नहीं रहता है । जहाँ रहता है वहाँ सोने पे सुहागा है । रचनाकार की कल्पना-सचेतन हदय जितना विश्‍वव्यापी होता है उतना ही उनकी गंभीरता से हम सबों की परितृप्ति बढ़ती है । मानव- विश्‍व की सीमा से परसरकार हमारे चिंतन विहार क्षेत्र में उतनी ही विलुपता प्राप्त करती है, परन्तु रचना-शक्‍ति निपुणता साहित्य में नितांत मूल्यमान है । जिसका सहारा लेकर यह शक्‍ति प्रकाशित होती है और अपेक्षाकृत तृच्छ होने के बावजूद बिल्कुल नष्ट नहीं होती है । वह शक्‍ति भाषा में साहित्य में संचित होती रहती यह मनुष्य के अभिव्यक्‍ति की क्षमता को बढ़ा देती है । इस क्षमता को पाने के लिए मनुष्य सदा से व्याकुल है । जिसके माध्यम से मनुष्य की यह क्षमता परिपृष्ट होती है उनको यश देकर अपने ऋण चुकाने की चेष्टा करें तो यही सार्थकता होगी ।
इसके अतिरिक्‍त राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक पत्रिकाओं को आपस में समन्वय और संवाद भी स्थापित करने होंगे । समय के बदलते परिवेश में सूचना क्रांति की नई तकनीक इंटरनेट को अपनाकर साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने साहित्य के ब्रह्यास्त्र से अखिल भारतीय दृष्टिकोण का विकास एवं सार्थकता प्राप्त कर सकती है । सूचना एवं ज्ञान को प्रवाहित करने से ही विकास की धारा बहेगी । शिक्षा, भाव और अवस्था परिवर्तन के बावजूद जो रचनाएँ अपने महिमा की रक्षा करती चली आ रही है उसकी अग्निपरीक्षा हो चुकी है । दृष्टिकोण के अभाव में चिंतन एवं सृजन का स्वरूप वास्तविक धरातल पर नहीं होता है बल्कि भटक जाता है । इसलिए मंजिल को पाने हेतु दृष्टिकोण की खास महत्ता है । साहित्यिक पत्रिका से जुड़ाव रखनेवाले उच्च कोटि के बौद्धिक स्तर वाले माने जाते हैणं जिन्हें स्पष्ट दिशा निर्देश एवं दृष्टिकोण की ज्यादा जरूरत है क्योंकि यही वह शक्‍ति है जिसके द्वारा सम्पूर्ण समाज एवं राष्ट्र की दशा एवं दिशा निर्धारित होती है । साहित्य में दलित चिंतन, उपेक्षितों की सामूहिक आवाज एवं जहाँ अभी तक अँधेरा है पर केंद्रित सृजन किए जाने की परमावश्यकता है ।
( -गोपाल प्रसाद )

Wednesday, September 9, 2009

भारतीय भाषाओं के संरक्षण की चुनौती और साहित्यिक पत्रिकाएँ



प्रसिद्ध साहित्यकार रामविलास शर्मा के आलेख "जाति, जनपद , राष्ट्र और साहित्य" के अनुसार -नागार्जुन ने मैथिली में कविताएँ लिखी हैं ,केदार और त्रिलोचन ने अवधी में । जनपदीय भाषा के माध्यम से ये कवि अपने क्षेत्र के किसानों तक कुछ पढे-लिखे लोगों तक पहुँचते हैं । हिन्दी उर्दू दो जातियों की भाषाएँ नहीं है, वे एक ही जाति के भाषा के दो रूप हैं। इन दो रूपों में जो समानता है वह बुनियादी है , जो भिन्नता है वह गैर-बुनियादी है। उर्दू जितना ही जनपदीय भाषा के नजदीक आएगी उतना ही हिन्दी से उसका अलगाव कम होगा । जिन देशों में पूँजीवाद का भरपूर विकास हुआ है , उनमें भी जनपदीय भाषाएँ पूरी तरह अन्तर्धान नहीं हुई। भारत में वे बहुत दिनों तक रहेंगी और निरंतर जातीय भाषाओं को प्रभावित करेंगी। जिस प्रांत में में ८५% किसान हो ;वहाँ नागरिक भाषाएँ उससे प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकती है?उल्टा सुबोध होने के लिये उसे अपना रूप बदलना होगा।अपने विकास के लिये उसे गाँवों में जाना होगा , जहां जीवन का स्त्रोत है और प्रकृति के संसर्ग में जहाँ भाषा की जातीयता गढी जाती है। प्रेमचन्द की हिन्दी जनपदीय भाषाओं के नजदीक होने के कारण ही लोकप्रिय हुआ । भाषा की की समस्या सुलझाने के लिये हमने अपने गाँवों की भाषाओं में व्याप्त एक जातीयता और नैसर्गिक संस्कृति की ओर अभी तक उचित ध्यान नहीं दिया । पचास अथवा सौ बर्ष आगे चलकर जो खडी बोली देश के कोने- कोने में गूँजेगी उसका आज की खडी बोली से कितना विभिन्न रूप होगा , इसकी कल्पना की जा सकती है। लोग अनुभव कर रहे हैं कि हिन्दी- उर्दू का झगडा मिटाने के लिये हमें अपनी भाषा को देहाती उपभाषाओं की सहज विकसित जातीयता के अनुरूप गढना होगा। तुलसीदास और सूरदास जैसे कवियों की भाषा की शक्ति का बहुत बडा कारण उनका जनपदीय स्वभाव है। सूरदास की भाषा ब्रज के बाहर हिन्दी के अन्य जनपदों में तो लोकप्रिय है ही , वह हिन्दी प्रदेश के बाहर अन्य प्रदेशों में भी लोकप्रिय है। भारतेन्दु हरिश्चन्द ,प्रताप नारायण मिश्र ,बालमुकुन्द गुप्त ,प्रेमचन्द के गद्य हमारी जातीय भाषा का बहुत अच्छा नमूना है। जातिय भाषा का नमूना उनका हिन्दी गद्य है,उर्दू गद्य या पद्य नहीं । इसका कारण यह है कि हिन्दी तो संस्कृत शब्दों को तद्भव रूप में ले लेती है, उर्दू अरबी-फारसी शब्दों को तद्भव रूप में नही लेती लेकिन जनपदीय भाषायें अरबी फारसी शब्दों का चोला बदलने में थोडा भी हिचकती नही है। यही नीति मराठी और बांग्ला जैसी भाषाओं की भी है। संगीत की पुरानी बंदिशें आज भी अत्यधिक लोकप्रिय है । हमारी संगीत परंपरा एक है ,उसी तरह हमारी भाषायी परंपरा एक है । हिन्दी उर्दू का अलगाव अस्थायी है । मान लीजिए हिन्दी प्रदेश में हिन्दी उर्दू जैसा भेद न होता तो सांप्रदायिक भेदभाव को खत्म करने में कितनी सहायता मिलती ,सारे देश की श्रमिक जनता को संगठित करना कितना ज्यादा आसान होता अपने लिये और देश के लिये हमें हिन्दी उर्दू का अलगाव सचेत प्रयास द्वारा खत्म करना चाहिये । वर्तमान व्यवस्था को बदलने के लिये हिन्दी प्रदेश के किसान मजदूर जहाँ एक बार गतिशील हुए वहाँ का भाषायी मानचित्र बदले बिना नही रहेगा और उसका प्रभाव संपूर्ण देश की सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति पर पडेगा। इसके लिये हिन्दी जाति के विकास ,उसकी भाषा और साहित्य की परंपराओं , जनपद और जाति के संबंध जाति और राष्ट्र के संबंध , भारतीय चिंतन और मार्क्सवाद के संबंध को समझना जरूरी है। अंग्रेजों ने यहाँ अपना राज कायम करके समाज का पुराना ढाँचा तोडा, देश का उद्योगीकरण किया ,ज्ञान- विज्ञान की शिक्षा दी ,साहित्य और संस्कृति में आधुनिक युग का सूत्रपात किया । अंग्रेजी राज की इस प्रगतिशील परंपरा को ’मार्क्सवाद’ बढा रहा है। हिन्दी जाति संख्या में भारत की सबसे बडी जाति है । यहाँ जो कुछ भला बुरा होता है ,उसका प्रभाव हिन्दी प्रदेश तक सीमित नहीं रहता , सारे प्रदेश पर पडता है । यहाँ की जनता के संगठित अभियान के बिना देश की वर्तमान व्यवस्था को बदलना असंभव है। आज सही दिशा में साहित्य के विकास को प्रेरित किये जाने की आवश्यकता है । यह स्पष्ट हो चला है कि राजनीति में पूँजीवादी नेतृत्व देश को वर्तमान संकट से उबार नही सकती । वैचारिक दृष्टि से सुदृढता और व्यवस्था को बदलने के लिये अटूट मनोबल का परिचय जब तक नही देंगे तब तक अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर भी व्यवस्था में कोई परिवर्तन नही होगा । राजनीति और साहित्य दोनों के लिये भाषा महत्वपूर्ण है । अष्टम अनुसूची में शामिल भारतीय भाषाओं की सूची में प्रमुख भाषा मैथिली अन्य भारतीय भाषाओं के अनुवाद एवं विलुप्तप्राय संस्कृति के संरक्षण ,संवर्द्धन में तेजी के साथ आगे कदम बढा रही है। साहित्य अकादमी द्वारा अनेक पुस्तकें (संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन पर) प्रकाशित की गयी है। भारतीय भाषा संस्थान ,मैसूर द्वारा भारतीय भाषाओं के संरक्षण हेतु साहित्यिक पत्रिकाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है । आज आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी के मूल स्वरूप के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं की छौंक भी लगयी जाय जिससे भाषा के सम्मान के साथ-साथ साहित्य का अलग जायका प्रस्तुत हो सके । दिल्ली पुस्तक मेला में बिहार के सिवान जिले की मूल निवासी लेखिका आशारानी लाल की लोकार्पित पुस्तक "लौट चलें" में हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी शब्दों का प्रयोग एक नया आयाम प्रदान करता है । राष्ट्र्भाषा के साथ मातॄभाषा के प्रयोग से मातृभाषा का ही नही राष्ट्रभाषा का सम्मान भी बढेगा । इस मूल तथ्य को चुनौती के रूप में स्वीकार करने की जरूरत है । देखना यह है कि आने वाले समय में साहित्यिक पत्रिकाएँ इस चुनौती को कितना स्वीकार कर पाने में सक्षम है ?
(-गोपाल प्रसाद)

भोजपुरी गीत

“पिया कासे कहूँ मन पीर”
सुखाई गयो नयना के नीर,
पिया कासे कहूँ मन की पीर ।




घरवा बसाई पिया ग‍इले विदेशवाँ,
चिट्ठियाँ न भेजला, न भेजला सनेशवाँ ।
रूपिया सवतिया से नेहिया लगवला,
कवने करन पिया हमें बिसरावला ॥




अब तो घरवा (अँगना) लगे जंजीर हो
पिया कासे कहूँ मन की पीर हो ।’
सुखाई गयो---------------------------



अब तो पिया अंग्रेज होई ग‍इला,
गऊवाँ देहतवा से दूर होई ग‍इला ।
आपन सुरतिया सपन कई दिहला,
एहि रे अभागिन क नीदिया चोरवला ॥




मति मारा करेजवाँ मे तीर हो
पिया कासे कहूँ मन की पीर हो ।
सुखाई गयो नयना-------





क‍इसे तूँ बाट पिया इह बतावा,
हो सके तो हमरा के तनि समझावा ।
बेकल इ मन के रहिया देखावा,
अपने चरनवाँ क दासी बनावा ।




पिता तूँ हमर तकदीर हो,
पिया कासे कहूँ मन की पीर हो ।
सुखाई गयो नयना --------





“इहवाँ क मटियाँ तूँ कहबो न भूल‍इयाँ,
गंगा के पनियाँ तूँ माथे चढ़ाईयाँ ।
माई की मूरतियाँ तूँ सीना से लगईयाँ,
देशवा के खातिर तूँ सब कुछ लूटईयाँ ॥




पिया होई ज‍इबा भारत क वीर हो,
पिया कासे कहूँ मन की पीर हो ।
सुखाई गयो नयना -------------------

पं. कृष्ण मुरारी मिश्रा
ph. no. 09415008312

धर्म और विज्ञान का अंतर्द्वन्द

अक्सर धर्म और विज्ञान में अंतर्द्वन्द सुनने को मिलता है । पिछले दिनों एक न्यूज चैनल पर धार्मिक जानकारों एवं वैज्ञानिकों के बीच में एक डिबेट आयोजित किया गया था कि “क्या भगवान का अस्तित्व है?" क्या धर्म समाज की बुराईयों और लोगों की समस्याओं को सुलझा पाने में समर्थ है? इस दिशा में विज्ञान ने क्या अच्छा कार्य किया? देखा जाय तो इस परिचर्या में दोनों ही पक्ष के लोग लड़ते नजर आए लेकिन दोनों में से कोई भी पक्ष एक दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पाए । यहाँ सबसे पहले यह तय होना जरूरी है कि पहले विज्ञान आया या धर्म । निःसंदेह इस पूरी सृष्टि का हर जीव भावनाओं की मिट्टी से बना हुआ है । भावना ही सुख या दुख प्रदान करती है । जब कभी भी सामान्य तौर पर सबके अनुकूल या सबके प्रतिकूल कोई भी चीज होती है वहीं पर जीवनशैली में नियमावली की आवश्यकता का जन्म होता है । तभी संस्कृति की उत्पत्ति होती है और इसी संस्कृति से धर्म का निर्माण होता है । या यूँ कहें धर्म और संस्कृति एक दूसरे के परिपूरक हैं । चूँकि सृष्टि का निर्माण, सृष्टि में पल रहे जीवों का निर्माण पूरी प्राकृतिक व्यवस्था पर निर्भर करती है इसलिए हमारी सारी संस्कृति या धर्म प्रकृति के नियमों के अनुरूप होना स्वाभाविक है । यह बात अलग है कि भौतिक कारणों से या कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा कुछ आडम्बर धर्म के नाम पर प्रकृति के नियमों के विरूद्ध भी होता है जिसे धर्म का चोला पहनाया जाता है । जैसा कि हमारा धर्म कहता है कि कण-कण में ईश्‍वर का वास है ।
पूर्ण सृष्टि के संचालक ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं । जहाँ तक आज की तारीख में वैज्ञानिक आधार पर देख रहे हैं कि दृष्टिगत आधार पदार्थ मात्र है जिसका मूलकण परमाणु है तथा परमाणु की संरचना तीन सूक्ष्म ऊर्जाओं से बनी है । इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन । इन तीनों की संयुक्‍त ऊर्जा से ही पदार्थ की संरचना हुई है । और यही संरचना हमारे, सौरमंडल की भी है और देखा जाय तो हमारे धर्म में ब्रह्मा, विष्णु, महेश के गुणों का जो बखान किया गया है वह प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन जैसा ही है । अतः यह साबित होता है कि धर्म की उत्पत्ति से पहले ही धर्म के आधार पर प्रकृति की गहराइयों को खंगालते हुए इंसान की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान का जन्म हुआ । बल्कि हम यह कहें कि विज्ञान को विज्ञान शब्द का नाम तो बहुत बाद में मिला लेकिन हमारे दिनचर्या और हमारे संस्कृति में बहुत से नियमों का पालन या प्राकृतिक सुविधाओं का उपयोग किया गया है जो पूर्णतः वैज्ञानिक है । विज्ञान हमसे, जीवन मात्र से या प्रकृति से परे नहीं है । वैज्ञानिक आज भी जीवन की उत्पत्ति का सही आधार स्पष्ट करने में असफल ही कहे जाएंगे और अपने सौर मंडल की संरचना में पृथ्वी के जीवन से परे किसी अन्य सौर मंडल की संरचना या किसी अन्य ग्रह पर जीवन की बात हो तो उनकी सारी बातें काल्पनिक आधार पर ही सामने आती हैं और जो कुछ भी सामने आता है चाहे वह धर्म में किसी भी आधार पर हो, पहले ही बताई जा चुकी बात होती है ।
मंगल पर जीवन की बात बार-बार सुनने को मिलती है । यह बात स्पष्ट है कि हमारे सौरमंडल में सूर्य के चारों ओर जो ग्रहों की परिक्रमा हो रही है वह अभिकेन्द्रीय और उत्केन्द्रीय बल के कारण व्यवस्थित तो चल रहे हैं परन्तु हर ग्रह अपनी अच्छी गति के कारण आंतरिक आणविक ऊर्जा के ह्रास का शिकार हो रहा है जिससे ग्रह अपने बाहरी कक्षा की तरफ खिसक रहे हैं और उत्केन्द्रिय बल मजबूत हो रहा है । इस सिद्धान्त की बात करें तो मंगल कभी न कभी आज से हजारों साल पहले इस पृथ्वी वाले कक्षा में परिक्रमा कर रहा था, जिस कक्षा में जीवन के लिए पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन है जो द्रव्य तापमान इत्यादि थे किन्तु उत्केन्द्रीय बलों को मजबूत होने के साथ-साथ मंगल सूर्य से दूर होता गया और तापमान घटता गया इसलिए हम कह सकते हैं कि मंगल पर जीवन था । यह बात धर्मग्रंथों और पौराणिक कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती है वहीं पर ग्रह की आयु और सौरमंडल की आयु तक निर्धारित की गई है । वहाँ स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एक प्लैनेट की आयु को मनुअंतर कहा गया है और उसको चार युगों में बाँटा गया है । और एक सौरमंडल की आयु को महाकाल बोला गया है । ठीक इसी प्रकार धर्मों में मुख्यतः जितने व्रतों का पालन कराया गया है मुख्य तौर पर नवरात्र हो या अन्य कोई पूर्णिमा का व्रत हो आप देखेंगे कि सारे नवरात्र ऋतु परिवर्त्तन के समय में होते हैं एक ऋतु से दूसरे ऋतु में शरीर को प्रवेश कराने के लिए तथा शरीर को उसके अनुकूल बनाने के लिए नवरात्रि व्रत का चलन किया गया है । यह बात दीगर है कि उसके पीछे देवी या आस्था को मुख्य तौर पर प्रसारित इसलिए किया गया है कि व्यक्‍ति आस्थावान्‌ होकर सही ढंग से नियमों का पालन करें और उससे स्वास्थ्य का लाभ उठावे क्योंकि आस्था या भगवान का भय तो इंसान से कुछ भी पालन करा सकता है लेकिन इंसान को वास्तविक सच्चाई बताई जाएगी तो वह अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पाएगा और शुद्ध नहीं कर पाएगा और बिना मन शुद्धि के स्वास्थ्य लाभ नहीं लिया जा सकता ।
इसी प्रकार पूर्णिमा का जो व्रत है उसके पीछे तथ्य यह है कि पूर्णिमा में चंद्रमा पूर्णरूप से प्रभावी होता है और पृथ्वी विशेषकर जल पर प्रभावी है जैसा कि समुद्र में ज्वार भाटा देखने को मिलता ही है । जैसा कि आप जानते हैं इंसान के अन्दर ८५% पानी होता है और इस पर चंद्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्‍त में न्यूरॉन सेल्स काफी क्रियाशील होते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान भावविभोर होता है खासकर उन इंसानों के लिए ज्यादा प्रभावी होता है जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है । अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्‍ति की भोजन करने के बाद नशा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है । यही कारण है कि पूर्णिमा के समय ऐसे व्यक्‍तियों पर चंद्रमा ज्यादा कुप्रभावी होता है । इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखा गया है । ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हमारे धर्म में पूर्णतः प्राकृतिक हैं साथ ही साथ विज्ञान की उत्पत्ति धर्म के बाद है धर्म से पहले नहीं । हम यह कह सकते हैं कि सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से इंसान को मजबूत होने के बाद भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान शब्द नाम दिया गया है जबकि इंसान के जीवन की उत्पत्ति के साथ-साथ हर कदम हर क्षण पर उसके अंदर संस्कृति, विज्ञान आदि का विकास निरंतर होता रहा है हम यह भी कह सकते हैं कि विज्ञान उसके संस्कृति का ही एक अंग है जो भौतिक रूप से काफी उत्कृष्ट रूप ले लिया है । जहाँ तक भगवान की बात है तो यह प्रकृति ही भगवान है । इस प्रकृति का वह सूक्ष्मतम आधार जो हम ऊर्जा के नाम से जानते हैं (इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन, न्यूट्रॉन) धार्मिक आधार पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश या फिर हम कह सकते हैं तीन शक्‍ति प्लस माइनस और न्यूट्रल ।
इन्हें जिस नाम से पुकारें यही हमारे सृष्टि या जीवन के आधार हैं । हाँ साथ ही यह भी कहेंगे कि यह एक व्यवस्थित तंत्र है जो हमारे जीवन को व्यवस्थित ढंग से संतुलित किए हुए है । अच्छा या बुरा होना उनकी व्यवस्थाओं में सामाहित है । वह किसी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है । भगवान हमारी द्वारा ही बनाया गया एक आस्थावान शब्द है, जिससे हम भावनात्मक रूप से ऊर्जावान होते हैं जिसके समक्ष हम अपने आप से ही बात करते हैं और अपने आपको ही प्रेरणा देते हैं । यह शब्द हमारे जीवन में ना रहे तो हम अपने आप को बहुत ही असहाय और अकेला महसूस करेंगे । क्योंकि हम मानते हैं कि हमें कोई व्यवस्थित रूप से चला रहा है और सत्य है कि जिन शक्‍तियों का जिक्र हमने उपरोक्‍त पंक्‍तियों में किया है वही हमे चला रहा है । यह वैज्ञानिक रूप में उतना ही प्रमाणित है जितना की धार्मिक आधार पर चाहे हम उसे भगवान कहें या हम काल्पनिक आधार पर भगवान का कोई अलग रूप अपने मनःमस्तिष्क में बनावें, परन्तु हम सभी के मन में यह नाम जीवित रहता है जिससे हम बात भी करते हैं शिकायत भी करते हैं आग्रह भी करते हैं और अपनी सारी अच्छाई- बुराई उसको समर्पित करते हुए अपने को दोषमुक्‍त कर नई ऊर्जा का संचार करते हैं ।
- पं० कृष्णगोपाल मिश्रा

आज का आजाद भारत


सच में हम सभी मानते हैं कि हम आजाद हैं । आखिर ये आजादी ही तो है कि हम सब अपने विचारों को सर्वोपरि रखते हैं । अपनी व्यवस्थाओं के अनुकूल चलते हैं । हम भूल जाते हैं कि हम आजाद देश के नागरिक हैं पर हम अपनी जिम्मेदारियों से कैसे आजाद हैं । जबकि कोई बच्चा किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करता है तो जीवन की नई जिम्मेदारियों की तरफ उसके कदम बढ़ते हैं । देखा जाय तो वह बचपन से ही कल्पना करता है कि उसके परिजन अभिभावक व आचार्यगण सभी उसे सलाह देते हैं कि यह करो, वह न करो, ऐसे उठो, वैसे बैठो, आगे बैठना है । बच्चे कल्पनाएँ करते हैं कि हम बड़े होंगे तो कितने आजाद होंगे । हम भी अपने अभिभावक की तरह अपनी मर्जी से आ-जा सकेंगे लेकिन वही बच्चे अभिभावक बनते ही उनके बच्चों की जिम्मेदारियाँ, उनके परिवार की जिम्मेदारियाँ उनको गुलाम बनाना शुरू कर देती हैं । फिर हमें इतने बड़े देश की जिम्मेदारियाँ रूपी गुलामी का अहसास क्यूँ नही है? क्यूँ हम सभी इतने कर्तव्यविमुख होते जा रहे हैं? गुलाम भारत के समय आजादी का संघर्ष कर रहे सेनानियों ने यह नारा जरूर लगाया था कि हम आजाद होंगे । हमारा भारत आजाद होगा, पर उनके नारों का भाव हमने, यही समझा था कि हम अपने मन के मालिक हो गए? हम इतने कर्तव्यविमुख और विवेकहीन हो गए हैं कि चंचल मन के आगे बेकाबू होकर कहीं अपराध, कहीं बलात्कार. कहीं डकैती, कहीं भ्रष्टाचार इन सबसे कभी निकलने के बारे में हम सोचते ही नहीं ।
इसका मुख्य कारण यही है कि हम वाकई बहुत आजाद हो गए हैं । हमारा मन इतना आजाद हो चुका है कि भावना शून्य हो चुका है । जिससे हम अपने आगे न तो अपना देश देख पाते हैं और न ही समाज देख पाते हैं । आजादी का कदाचित्‌ यह मतलब नहीं था । आजादी का सिर्फ मतलब तो यही था कि अपनी मातृभूमि को दूसरों के हाथों से छुड़ाकर उसकी सेवा रूपी जिम्मेदारी की गुलामी अपनावें हम, पर ऐसा नहीं हो सका । आज इस मातृभूमि को इस बात की विशेष जरूरत है कि आनेवाली पीढ़ी और नौनिहाल आजादी का वास्तविक मतलब समझे क्यूँकि जब हम किसी चीज के संचालन की जिम्मेदारी लेते हैं तो हम पहले से ज्यादा जिम्मेदारी की गुलामी में जकड़ जाते हैं । इसमें जिम्मेदार व्यक्‍ति का प्यार और समर्पण जुड़ा होता है । आशा करते हैं कि देश के इस ६३ वें वर्ष में प्रवेश के उपरान्त हमारे नौजवान इस आजादी के वास्तविक अर्थ को समझेंगे और अपने देश को विश्‍वपटल पर लाने हेतु कर्तव्यपूर्ति की मिशाल कायम करेंगे ।
- कृष्णगोपाल मिश्रा

राष्ट्रभाषा से हमारा भावनात्मक संबंध

वैसे तो सभी भाषाएँ मानवीय जीवन में अहम्‌ स्थान रखती हैं क्योंकि बिना भाषा के इन्सान अभिव्यक्‍ति हीन हो जाएगा, लेकिन मातृभाषा इन सबसे सर्वोपरि होती है क्योंकि भाषाएँ जहाँ भावनाएँ, दर्द, इच्छा आदि के अभिव्यक्‍ति की माध्यम होती हैं, वहीं हमारी मातृभाषा इन जरूरतों की पूर्ति करने के साथ-साथ हमारी धरती के परवरिश व संस्कारों की खुशबू भी बिखेरती है । मातृभाषा वैसे ही हमारे मन-मस्तिष्क में स्थान बनाती है । जैसे नवजात शिशु को उसकी माँ शब्दों व भावनात्मक रूपी संकेत भरी भाषा में इस धरा-धरती व प्रकृति से, रिश्तों, वस्तुओं आदि का बोध कराती है और माँ की दी पहली हर वो सीख हमारे मन में जन्म-जन्मान्तर के लिए रच-बस जाती है । जो परिवार में सभी सदस्य अलग-अलग भावनाओं व स्वभाव के होने के बावजूद भी बाह्य तौर पर एक ही परिवार के परिचायक बनते हैं और एक मजबूत पारिवारिक बंधन बनाता है । राष्ट्रभाषा ही हमें क्षेत्रीय परिवेश से हटकर एक समूचे भावना के साथ पूरे राष्ट्र को एक पारिवारिक सदस्य के रूप में जोड़ता है और राष्ट्रभाषा विश्‍व स्तर पर हजारों व्यक्‍तित्व, भावनाओं संस्कारों का समुचित परिचायक बनती है । हमारे व्यक्‍तित्व को एक गरिमामयी स्थान दिलाने में सहायक होती है । जिस मिट्‌टी की भाषा वहाँ के रहने वालों के साथ बदल जाती है । उस मिट्‌टी की पहचान भी बदल जाती है । अतः भाषा हमारी पहचान व व्यक्‍तित्व के साथ-साथ हमारे अतीत के संस्कारों को भी जिंदा रखती है ।
हिंदी दिवस के इस अवसर पर आज भारतीयों में अपनी भाषा के प्रति समर्पण व लगाव का अभाव दिखाई दे रहा है क्योंकि भौतिकता की होड़ में हर व्यक्‍ति अपनी सफलता के लिए विदेशी आर्थिक ताकत के आगे तथा उनकी व्यावसायिक नीति के तहत उन्हें हम अपनी संस्कृति में भी शामिल करते जा रहे हैं । जिसके कारण हमारी भाषा पर तो आघात हो ही रहा है साथ ही साथ हमारी संस्कृति पर भी आघात हो रहा है क्योंकि भाषा ही संस्कृति की वाहक है । जब हम किसी और की भाषा अपनाते हैं तो उसकी संस्कृति भी अपनाना प्रारंभ कर देते हैं । जैसे कि जब हम अंग्रेजी में कहते हैं ‘गुड मॉर्निंग’ तो हमारा प्रणाम या नमस्ते करने का संस्कार खत्म हो जाता है । इस कारण हम धीरे-धीरे अपनी वास्तविक पहचान खोते जा रहे हैं और जिस देश में राष्ट्रभाषा के प्रति लगाव व समर्पण कम होता जाता है उसकी संस्कृति भी विलुप्त होती जाती है । साथ ही साथ जो क्षेत्रीयता से परे राष्ट्रभाषा का भावनात्मक बंधन होता है जो हम सबको पूरे राष्ट्र से जोड़ती है वह भी कम होने लगता है और हम पराई संस्कृति का अनुसरण तो करते ही हैं साथ ही साथ आपस में क्षेत्रीयता को लेकर विवाद की दीवार भी खड़ी करते हैं । अतः भविष्य को देखते हुए ये सभी चीजें हमारे व हमारे राष्ट्र के लिए हितकर नहीं हैं । हम सभी को इस हिंदी दिवस पर यह प्रण लेना चाहिए कि माँ के साथ मातृभाषा से लगाव रखते हुए हम सबको एक माला में पिरोने वाली राष्ट्रभाषा को पिता तुल्य सम्मान देते हुए तथा उसे अपने दैनिक जीवन में अपनाते हुए उसका अपना राष्ट्र का और अपने संस्कृति का विकास करें और विश्‍व पटल पर अपनी सुंदर छवि बनावें इसमें हमें अपना स्वाभिमान भी दिखाई पड़ेगा । जहाँ हमें किसी भाषा को अपनाने के बजाय लोग हमें हमारी भाषा के साथ अपनाएँ । इसके साथ-साथ हमें इकबाल साहब की लिखित सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा रचनाके अंतर्गत “हिन्दवी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्ताँ हमारा’ में आज हमें वतन तो दिखाई दे रहा है पर आज हिन्दवी नहीं रह गए । क्योंकि सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा है और ये गुलिस्ताँ भी है लेकिन हम इसके बुलबुले नहीं रह गए हैं ।


कृष्णगोपाल मिश्रा

Tuesday, September 8, 2009

मनमानी चलती है आर. एन. आई. में

भारत में किसी भी समाचार पत्र/ पत्रिका को प्रकाशित करने से पूर्व उसे पंजीकृत करवाना होता है । भारत के समाचारपत्रों का कार्यालय जो आम तौर पर आर. एन. आई. के नाम से जाना जाता है, पहली जुलाई 1956 को अस्तित्व में आया । इसकी स्थापना प्रथम प्रेस आयोग 1953 की सिफारिश पर प्रेस एवं पुस्तक पंजीयन अधिनियम में भारतीय समाचारपत्रों के पंजीयक के कर्त्तव्यों और कार्यों को दिया गया है । पिछले कुछ वर्षोंके दौरान भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक को सौंपे गए कुछ और दायित्वों के कारण इस कार्यालय को कुछ विधि विहित और कुछ सामान्य दोनों तरह के कार्यों को करना है ।
विधि विहित कार्यों के अंतर्गत देश भर के प्रकाशित समाचारपत्रों का एक रजिस्टर तैयार करना, उसका रखरखाव करना और उसमें समाचरपत्रों का विवरण संकलित करना, वैध घोषणा के अंतर्गत प्रकाशित समाचारपत्रों को पंजीकरण प्रमाणपत्र जारी करना, समाचारपत्रों के प्रकाशकों द्वारा प्रेस पुस्तक पंजीयन अधिनियम की धारा 19 डी के अंतर्गत प्रसारण स्वामित्व आदि सूचना के साथ प्रतिवर्ष भेजे गए वार्षिक विवरण की जाँच और विश्लेषण करना, इच्छुक प्रकाशकों की घोषणा दायर करने के लिए जिला मजिस्ट्रेटों को उपलब्ध नामों की सूचना देना, यह सुनिश्‍चित करना कि समाचारपत्र प्रेस और पुस्तक पंजीयन अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत प्रकाशित करना, प्रेस और पुस्तक पंजीयन अधिनियम की धाता 19-एफ के अंतर्गत प्रकाशकों द्वारा अपने वार्षिक विवरणों में दिए गए प्रसार दावों की जाँच करना और भारत में प्रेस के बारे में उपलब्ध समस्त सूचना तथा आँकड़ों और विशेष रूप से प्रसार तथा समान स्वामित्व वाली इकाइयों के क्षेत्र में उभरती प्रवृत्तियों के उल्लेख के साथ एक रिपोर्ट तैयार करना और उसे प्रतिवर्ष 31 दिसंबर को या उससे पहले सरकार को प्रस्तुत करना होता है ।
सामान्य कार्यों के अंतर्गत अखबारी कागज आवंटन नीति और दिशा निर्देशों का क्रियान्वयन और समाचारपत्रों की पात्रता प्रमाणपत्र जारी करना ताकि वे अखबारी कागज का आयात कर सकें और हकदारी प्रमाणपत्र जारी करना ताकि वे देशी अखबारी कागज प्राप्त कर सकें । समाचारपत्र प्रतिष्ठानों की मुद्रण और कंपोजिंग मशीनें और अन्य संबंधित सामग्री आयात करने की आवश्यकता जरूरतों को मूल्यांकित और प्रमाणित करना आदि है ।
पहले यहाँ मैनुअली कार्य होता था परन्तु वेबसाईट बनने के बाद अब कंप्यूटरीकृत व्यवस्था हो गई है । गौर करने पर पता चलेगा कि यहाँ किसी की कोई जिम्मेदारी ही तय नहीं हैं । सब कुछ मनमाने तरीके से एवं त्रुटिपूर्ण हो रहा है । शिकायत करने पर नियम कानून बताए जाते हैं । जब नियम और कानून का हवाला देकर प्रश्न पूछे जाते हैं तो अधिकारी उत्तर से कतराते हैं और कहते हैं कोर्ट में पूछिए । यहाँ मिलने का समय दोपहर 3 से 5 तक निर्धारित है मगर इस वक्‍त भी अधिकांश बड़े अधिकारी व उनके सहायक मीटींगों में व्यस्त रहते हैं, फिर समस्या की फरियाद किससे की जाय और उसका समाधान कैसे हो? दिल्ली से अलग राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ तो और दिक्‍कतें आती हैं । सबसे बड़ी समस्या काउंसलिंग की है । सही तरीके से सही जानकारी देने की परंपरा ही नहीं है यहाँ ।
उपरोक्‍त अनुभव मुझे तब हुआ जब अपनी मासिक पत्रिका समय दर्पण के पंजीकरण हेतु मुझे बार-बार इस कार्यालय के चक्‍कर काटने पड़े । मेरे पत्रिका का शीर्षक अस्वीकृत हो गया था । अतः मैंने पुनः अन्य शीर्षकों के साथ आवेदन अग्रसारित किया परन्तु मुझे पिछला छपा जवाब ही पुनः भेज दिया गया । तब एपीआर को स्पीड पोस्ट से पत्र भेजा, जवाब नहीं मिलने पर दो बार के बाद तीसरे बार में मात्र पाँच मिनट के अंतिम समय में वक्‍त मिला परन्तु नियम और कानून का हवाला और कोर्ट में केस करने की चुनौती दे डाली । मेरा तर्क ये था कि जब इंडिया टुडे, इंडिया न्यूज, इंडिया दर्पण नाम स्वीकृत हो सकता है तो समय सर्पण क्यों नहीं स्वीकृत हो सकता ? थक हारकर मैंने RTI के अंतर्गत अपना आवेदन डालकर प्रश्न पूछने का दुस्साहस किया है । मुझे शीर्षक मिले ना मिले परन्तु मेरे साथ जो घटनाएँ हुईं वह केन्द्र सरकार के प्रतिष्ठित संस्थान की कार्यशैली को रूबरू बयान करती है । सबसे बड़ा तो प्रश्न यह है कि शीर्षक स्वीकृति के बाद दो वर्ष का प्रकाशन समय दिया जाना कहीं से भी उचित नहीं है । इसकी अधिकतम समयसीमा मात्र तीन महीने दी जानी चाहिए ।
आर. एन. आई. वेबसाईट के माध्यम से शीर्षक खोज का जो विकल्प देती है उसमें जानकारी का काफी अभाव है । सामान्यतः लोग सर्च में शीर्षक डालकर नाम ढूँढते हैं और फिर नाम का आवेदन कर देते हैं, परन्तु वास्तव में इतने भर से संतुष्ट होकर खोज समाप्त नहीं होती है बल्कि अन्य राज्यवार, भाषावार एवं टाइटल अप्रूव्ड ऑप्शन भी तलाशने जरूरी हैं । सवाल यह उठता है कि यह तकनीकी जानकारी वेबसाईट पर स्पष्टतः क्यों नहीं है । वेबसाईट पर नया फॉर्म भी काफी दिनों बाद डाला गया, फिर वेबसाईट की उपयोगिता क्या रह गई ? आखिर जानकारी के अभाव में जो समस्याएँ बढ रही हैं उसके समाधान की जिम्मेदारी कौन लेगा? जवाब का छपा प्रपत्र भर भेज देने से समस्या कभी नहीं हल हो सकती है । आर‍एन‍आई को एक से अधिक टाइटल शुरू में ही देने का विकल्प देने की अनिवार्यता देनी चाहिए ।
सूचना व प्रसारण राज्यमंत्री सी. एम. जटुआ ने लोकसभा में जानकारी दी कि देश में 74,000 से अधिक अखबार भारत सरकार के रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स (आर.एन.आई.) से पंजीकृत हैं । उत्तरप्रदेश में सबसे अधिक अखबार पंजीकृत हैं । वहाँ कुल 11,789 अखबार पंजीकृत हैं । दिल्ली का नंबर उसके बाद आता है जहाँ 10,066 पंजीकृत अखबार है । महाराष्ट्र 9,127 अखबारों के साथ तीसरे स्थान पर है । सवाल यह उठता है कि क्या आरएन‍आई के पास सारे 7400 अखबारों की नमूना प्रति है? वर्तमान में प्रकाशित हो रहे समाचारपत्रों की संख्या क्या है? असलियत यह है कि एक से अधिक शीर्षक की आड़ में कुछ बिचौलिये खरीदने, बेचने के व्यापार में संलग्न हैं । अखबारी कागज की कालाबाजारी भी इन लोगों की मिलीभगत से की जाती है । कुछ ऐसा ही हाल डीएवीपी का भी है जहाँ बेनामी और फर्जी अखबारों को भ्रष्टाचारी अफसरों की मिलीभगत से विज्ञापन जारी किए जा रहे हैं । सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस व्यवस्था में त्रुटि सुधारने की कोई जरूरत नहीं समझ आती ।
(कृष्णगोपाल मिश्रा )
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Monday, September 7, 2009

मैं और मेरा अतीत

“एकोअहम द्वितीयो नास्ति”- अर्थात सिर्फ मैं और कुछ भी नहीं, मुझसे ही शुरू होती है और जो मुझ पर चलती रहती है ।
“मैं जो एक सोच है, एक संस्कार है, और एक देश है, जिसने अतीत में कुछ भविष्य की इमारतों की बुनियाद रखी थी । क्या मै अपने आज में उन सपनों को पाता हूँ । जो हमने अतीत में संजोये थे । मैं जो दुनिया को प्रेम और सौहार्द से एक परिवार तथा उसके सदस्य होने का बीड़ा उठाया था ! क्या साकार कर सका । क्या हुए वो सपने, क्या हमने शांति और प्रेम के पुजारियों का बलिदान यूं ही व्यर्थ गंवा दिया ।
आज मैं इन सारे सवालों का उत्तर जब दूंढ़ता हूँ तो अपने आप को बहुत शर्मिंदा समझता हूँ, क्योंकि वो सारे अतीत नहीं हमारे भविष्य की नींव से इमारत बन सके नहीं, दुनिया में शांति स्थापित हो सकी । मिला तो सिर्फ, द्वेष, ईर्ष्या, कलह और सिर्फ अपना विकास करने की होड़, जिससे न तो अपना ही विकास हो सका ना ही समाज या देश का ।
बहुत महापुरूष कहते हैं कि आप अगर अपना विकास करे अपने आप को बदलें तो दुनिया बदल सकती है, मगर मे उनके अनुभवों से शत प्रतिशत सहमत नहीं हूँ । और न ही आपको भी होना चाहिये । जरूरत है मैं को बदलने की मैं में शांति स्थापित करने की, जो मैं एक व्यक्‍ति नहीं, एक समाज का नेता है जो नायक है उस देश का, उस संसार का जिसमें आधे से अधिक की आबादी अपने अस्तित्व तथा अपने होने और न होने की परिभाषा तक नहीं समझती । मैंने अपने अतीत में रावण से इस संसार को मुक्‍त कराकर शांति और प्रेम की स्थापना की तो कभी चन्द्रगुप्त बनकर सिकन्दर जैसे महत्वाकांक्षी महापुरूष के हृदय में शांति स्थापित किया । काफी नरसंहार के बाद अशोक के हृदय में शांति, प्रेम, शरणागत कराया ।
मगर आज मैं चाहते हुए भी इस संसार को प्रेम और शांति का पाठ नहीं पढ़ा सकता, क्योंकि यह प्रकृति की विलक्षणता ही तो है, कि बिना बलिदान के शांति और प्रेम स्थापित नहीं किया जा सकता । मैं बार-बार दूसरों के द्वारा सोमनाथ मंदिर के रूप में लूटा गया तो कभी अपने ही सपूतों के द्वारा बाँटा भी गया । मैं कभी भारत से हिन्दुस्तान, पाकिस्तान बना । मैं जो अतीत था, आज उसकी केवल परछाई रह गई है । आज के मैं में मेरा मानना है कि मैं के सपने बार-बार यूँ ही बनते और टूटते रहेंगे । जब तक की इसको साकार करने की शपथ हम आज और अभी नहीं लेते ।
हमारे अतीत का दुर्भाग्य भी उसी दिन से शुरू हुआ, जिस दिन से हमने अपने नजरिये से अपना, पराया, धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद के आधार पर अलग समझा । आखिर कब तक होती रहेंगी ऐसी घटनायें, कब तक हम इसे दुर्भाग्य कह कर टालते रहेंगे । कब तक अपने अमानवीय, व्यवहारों से अपने अतीत को जिम्मेदार ठहराते रहेंगे । आज हम जिसे गुनाहगार समझते या ठहराते हैं, उसके जिम्मेदार भी तो हमी हैं । मैं मौन था । उस समय भी, और आज भी रहूँगा । मुझे दुख उतना ही महसूस होता है । जब आप किसी सफलता पर उत्साहित होते या जश्न मनाते हैं। तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं आपसे आपकी सफलता से द्वेष करता हूँ । हाँ मुझे द्वेष है, आपके तरीके पर आपकी सोच पर क्योंकि उसके भविष्य में भी अंकुर फूटने वाले हैं, जो आज मेरे सामने है । वह कल आपसे वही प्रश्न करने वाला है, जो आज मैं जबाब ढूंढ़ नहीं सका हूँ । या जिसका जबाव मेरे पास नहीं है ।
आज मेरे सामने शब्दों की परिभाषायें और मतलब बदल गया है । क्योंकि ऐसा न होता तो, वो शब्द, वो गीत बनते ही नहीं जिसका अस्तित्व आज भी हमारे आपके बीच है, एक छोटा सा उदाहरण आपके समक्ष है, धर्म का जो सदियों पुराना है, जिसे सिर्फ इस लिए बनाया गया जो पूरे विश्‍व को एक प्रेम के धागे में बाँध सके ।
एक ऐसा शब्द जिसमें पूरा विश्‍व एक परिवार बन सके,
न कि हिन्द राष्ट्र या मुसलमान राष्ट्र सिख, या कैथोलिक राष्ट्र ही बने ।
जब धर्म एक शब्द था, तो उसके इतने सारे प्रारूप कैसे हुए, कैसे हुआ अलग-अलग रूप इसका आज इसका अर्थ बिल्कुल ही बदल चुका है, क्योंकि आज धर्म लोगों को जोड़ने के बजाय एक-दूसरे से मतभेद रखते हैं । एक-दूसरे को सताते हैं । कहीं गोधरा में मुस्लिम जलते हैं, तो वहीं कश्मीर में हिन्दू प्रताड़ित किये जाते हैं । -
ये सारे मुद्दे सिर्फ और सिर्फ कलह पैदा कर सकते हैं, शांति और प्रेम नहीं-
तो आइए क्यों न हम एक धर्म बनायें जो कि मानव धर्म हो, जिसमें मानव तो क्या कोई भी जीव जिसे दुख होता है, जो अशांति महसूस करता हो उसमें शांति की स्थापना करे ।
आज मैं के सामने जो सबसे बड़ा प्रश्न है, वो है, “मैं की बागडोर किसके हाथ में हो, कौन उसका सारथी बने जो इसे इन सारे प्रश्नों का उत्तर उसी के ही कर्मक्षेत्र, कुरूक्षेत्र में दे सके । जो मन की गति से भी तेज दौड़ सके ।
आज यह जो प्रश्न है, वह अब तक हुए सारे युद्ध के कारणों से बड़ा है वह सबसे महत्वपूर्ण इस लिए है, कि इस युद्ध के बाद कोई भी बचने वाला नहीं है । आज उसका प्रतिदंद्वी अन्य नहीं स्वयं ही है, क्योंकि जब आप स्वयं को मार दोगे फिर क्या बचेगा ?
आपको विजय पानी है, स्वयं पर और जीतना भी स्वयं को है, और हराना भी स्वयं को ।

आज मैं जो “हमारा देश” एक महत्वपूर्ण बदलाव के बाद प्रजातांत्रिक देश के रूप में दुनिया में अपने आप को विशेष रूप में स्थापित करना चाहता है, जो फिर से एक बार वही सपना जो साकार करना चाहता है, लेकिन हमलोग इसके उस सपने को हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं । हम अपने आप को उसकी महत्वाकांक्षा को लक्ष्य के रूप में नहीं तब्दील कर रहें हैं, क्योंकि हम उसकी महत्वाकांक्षा का महत्व अपनी आकाक्षांओं से धो देना चाहते हैं ।
हम उसके लक्ष्य को अपना लक्ष्य नहीं मानते, हम उसके विकास को अपना विकास नहीं मानते, हम अपने निजी विकास व सुख को ज्यादा तवज्जो देते हैं । हम दूसरे के दुखों से दुःखी नहीं होते हैं, उसके सुख से सुखी भी नहीं होते हैं, क्योंकि हम केवल अपना स्वयं अपने ही सुख और दुख का अनुभव करते हैं ।
अगर हममें से हर व्यक्‍ति अपने आपको बदलते हुए हर एक दूसरे के सुख -दुःख का सहभागी बन सके, तो वही अनुभूति है सच्चे सुख की और दुःख की । वास्तव में वही मानव है, वही सच्चा राष्ट्रभक्‍त व समाजसेवी हो सकता है क्योंकि-
“यूं तो हर आँख यहाँ बहुत रोती है,
हर बूँद मगर अश्क नहीं होती है,
देखकर रो दे जो जमाने का गम
उस आँख से गिरा हर अश्क मोती है ।"
अन्त में मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि आप हम अपने आप को बदलते हुए एक ऐसे समाज की स्थापना करे, एक ऐसे देश का निर्माण करे, एक ऐसा देश का निर्माण करें, जिसमें एक सामन्जस्य स्थापित हो सके । फिर से प्रेम, सौहार्द्र का वर्चस्व रहे, क्योंकि-
``A good heart is better than
all the heads in the world"


........................मुकेश कुमार पान्डेय

Thursday, September 3, 2009

हीन नहीं है हिंदी

“निज भाषा उन्‍नति अहै, सब उन्‍नति को मूल बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूलअंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीनपे निज-भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन” - भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र
हिन्दी की व्यापकताहिंदी भाषा को संसार भर में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषाओं में से एक होने का सम्मान प्राप्त है और यह विश्‍व के ५६ करोड़ लोगों की भाषा है । आँकड़े बताते हैं कि भारत में ५४ करोड़ तथा विश्‍व के अन्य देशों में २ करोड़ हिंदी भाषी हैं । नेपाल में ८० लाख, दक्षिण अफ्रीका में ८।९० लाख , मॉरीशस में ६.८५ लाख, संयुक्‍त राज्य अमेरिका में ३.१७ लाख, येमन में २.३३ लाख, युगांडा में १.४७ लाख, जर्मनी में ०.३० लाख, न्यूजीलैंड में ०.२० लाख तथा सिंगापुर में ०.०५ लाख लोग हिंदी भाषी हैं । इसके अलावा यू. के. तथा यू. ए. में भी बड़ी संख्या में हिंदीभाषी लोग निवास करते हैं । विश्‍व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी का स्थान दूसरा है । हिंदी भाषा अंतरजाल की प्रमुख भाषाओं में से एक बनने की पूर्ण योग्यता रखती है और निकट भविष्य में वह अपने लक्ष्य को पूर्ण करने में अवश्य ही सफलता प्राप्त कर लेगी । हिंदी के विकास में हम सभी को अपना योगदान देना होगा और इसे अंतरजाल की प्रमुख भाषाओं में से एक बनने में सफल बनाना होगा । मानसिकता और हिंदी भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र ने कहा था कि “विदेशी भाषा से कभी तरक्‍की नहीं हो सकती । विदेशी भाषा अपनाना परतंत्रता का प्रतीक है । ” अंग्रेजी अपनाकर हम वास्तव में गुलामी की ओर ही बढ़ेंगे । हमें अंग्रेजी का विरोध करने के बजाय हिंदी के दायरे को बढ़ाने की दिशा में सोचना होगा । हिंदी भाषा ही नहीं बल्कि यह हमारी संस्कृति भी है और संस्कृति की रक्षा करना उसका संरक्षण व संवर्द्धन हमारा कर्तव्य है । कुछ अंग्रेजी ‘मानसिकता वाले अफसरशाहों एवं अंग्रेजी मीडीया और इंटरनेट की वजह से अंग्रेजी प्रभावशाली दिखती है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । “विशिष्ट पहचान पत्र परियोजना” के प्रमुख नंदन नीलेकणी द्वारा लिखित पुस्तक “इमेजिनिंग इंडिया” में अंग्रेजी का दबदबा बढ़ने का प्रमुख कारण मैकाले की नीति को बताया गया है । नंदन नीलेकणी कहते हैं कि - भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी भारी वित्तीय संकट का सामना कर रही थी । यहां तक कि वह दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुकी थी । वर्ष १८२८ में गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक को कंपनी की प्रशासनिक लागत कम करने का जिम्मा देकर भारत भेजा गया । उनकी एक सिफारिश यह थी कि कंपनी के न्यायिक और प्रशासनिक काम से ब्रिटिश कर्मचारियों को हटा कर उनकी जगह सस्ते भारतीय ग्रेजुएट रखे जाएं । अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी १८३३ के चार्टर एक्ट में एक प्रावधान जुड़वाया । इसके तहत किसी भी सरकारी नौकरी के लिए धर्म, जाति जन्म वंश का कोई बंधन नहीं था । लेकिन अंग्रेजी में पारंगत लोगों का वर्ग तैयार करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा से संबंधित नीति की जरूरत होती । इसके लिए अंग्रेजी शिक्षा से संबंधित नीति की जरूरत होती । इसके लिए बेंटिक को अधिकारियों की एक टीम से जद्दोजहद करनी पड़ी, जो इस बात पर बंटी हुई थी क्या यहां सीधे-सीधे अंग्रेजी थोप कर अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिया जा सकता है । लेकिन जब तक १८३४ में थॉमस मैकाले जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के नए अध्यक्ष बनकर आए तब तक अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी शिक्षा नीति के पक्ष में लामबंद हो चुका था । मैकाले ने पूरी शिद्दत के साथ अंग्रेजी शिक्षा की नीति को लागू करने पर जोर दिया । २ फरवरी, १८३५ की बैठक के अपने विवरण में उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति को खारिज कर दिया । मैकाले ने अंग्रेजी भाषा में दीक्षित भद्रलोक बनाने की बेंटिक की सोच का समर्थन किया । उन्होंने कहा, हमें एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हमारे और उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिये का काम कर सके, जिन पर हम शासन करते हैं । हमें भारतीयों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिनका रंग और रक्‍त भले ही देशी हो लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों । मैकाले इस नीति पर अड़े हुए थे और उन्होंने साफ-साफ बता दिया कि अगर उनकी सिफारिशों को मंजूर नहीं किया गया तो वो परिषद से इस्तीफा दे देंगे । मैकाले की सिफारिशों को लागू किए जाने की राह में कोई अड़चन नहीं थी । बेटिंक मैकाले के समर्थक थे । इस तरह ब्रिटिश भारत की शिक्षा नीति जल्द ही बदल गई । अंग्रेजी प्रशासनिक कामकाज की भाषा बन गई । १८३५ में इंग्लिश एजुकेशन एक्ट लागू होने के तीन साल के अंदर ही अंग्रेजी प्रशासनिक कामकाज की भाषा बन गई । ईस्ट इंडिया कंपनी ने घोषणा की कि अंग्रेजी में पढ़े-लिखे भारतीय को सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में प्राथमिकता मिलेगी । इस तरह १८५७ में अंग्रेजी भाषा में शिक्षा के लिए तीन विश्‍वविद्यालयों की स्थापना हुई । इतिहासकार रॉबर्ट किंग का मानना है कि अंग्रेजी को आगे बढ़ाना एक तरह से देशी भाषाओं के खिलाफ उठाया गया कदम था । कन्‍नड़ और तमिल जैसी देशी भाषाएं तो अंग्रेजी से कई सदी पुरानी थीं । इस तरह अंग्रेजी को साम्राज्यवाद के एक हथियार के तौर पर देखा जाने लगा । अंग्रेज इसका इस्तेमाल इस देश पर अपना अधिकार जमाने के लिए करने लगे । अंग्रेजों के सामने भारतीयों की स्थिति दबे-कुचलों की तरह हो गई । उनकी गरदन साहब और मेमसाहबों और उनकी टोपी के आगे झुकी रहने लगी । हालांकि भारतीयों के एक छोटे से वर्ग ने अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा का स्वागत किया । खासकर भद्रलोक के वर्ग ने । इस भाषा की वजह से उन्हें शेष भारतीयों पर अपना रोब गालिब करने की मौका जो मिल रहा था । इस वर्ग ने इसे सांस्कृतिक प्रतिष्ठा का सवाल माना और खुद को आम लोगों से ऊपर रखा । अंग्रेजी भद्रलोक का गहना बन गई । इसका समर्थन करने वाले अंग्रेजी रहन-सहन और खाने-पीने की नकल करने लगे । जल्द ही अंग्रेजी कैरियर की भाषा बन गई । अंग्रेजों के शासन में भारत पूरी तरह उद्योगविहीन हो गया । इसलिए प्रशासनिक नौकरी भारतीयों के लिए कैरियर का एक मात्र जरिया बन गई । लिहाजा भारतीयों का एक वर्ग तेजी से इस भाषा का पक्षधर होता गया । वर्ष १९०० तक अंग्रेजी शिक्षा भारत में काफी लोकप्रिय हो गई । भारतीय राजभाषा है हिंदीहिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में १४ सितंबर १९४९ को स्वीकार किया गया इसके बाद संविधान में राजभाषा के संबंध में धारा ३४ उसे ३५२ तक की व्यवस्था की गई । इसकी स्मृतिको ताजा रखने के लिए १४ सितंबर का दिन प्रतिवर्ष “हिन्दी दिवस” के रूप में मनाया जाता है । धारा ३४३ (१) के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी एवं लिपि देवनागरी है । हिंदी को राजभाषा का सम्मान कृपा पूर्वक नहीं दिया गया बल्कि यह उसका अधिकार है । महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय भाषा (राजभाषा) लक्षणों पर जो दृष्टिपात किया था वह निम्नलिखित है ः - १ * अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए । २ * उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार हो सकना चाहिए । ३ * यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हैं । ४ * राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए । ५ * उसे भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर जोर नहीं देना चाहिए । स्पष्टतः उपरोक्‍त लक्षणों पर हिंदी भाषा पूर्णतः खरी उतरती है । हिंदी और ममता बनर्जी रेल मंत्री ममता बनर्जी अपने मनमानेपन और व्यक्‍तिवादिता के लिए मशहूर हैं लेकिन वे इस हद तक जाएंगी कि रेलवे की नौकरी की परीक्षा के प्रश्नपत्र सिर्फ अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में ही देने की इजाजत देंगी, हिंदी को इससे अलग कर देंगी, इस पर विश्‍वास नहीं होता । ‘नईदुनिया’ की खबर के अनुसार अभी तक सिर्फ ग्रुप-डी की नौकरियों की परीक्षा अंग्रेजी, हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में होती थी लेकिन अब ग्रुप-सी की नौकरियों में भी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा लेने की तैयारी है जिसकी प्रक्रिया बहुत पहले से चल रही थी । मगर ममता बनर्जी करने यह जा रही हैं कि ये परीक्षाएं गैरहिंदीभाषी राज्यों में सिर्फ अंग्रेजी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में ली जाएं। अगर ऐसा है तो यह गंभीर बात है और उम्मीद करनी चाहिए कि मंत्रालय के नौकरशाहों की उच्चस्तरीय समिति - जिसका इस उद्देश्य से गठन किया गया है - इसकी अनुमति नहीं देंगी । हिंदी देश की राजभाषा है संवैधानिक रूप से और कोई भी मंत्री चाहे भी तो उसके साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकता । फिर ऐसा कोई बदलाव ममता बनर्जी चाहती हैं तो उन्हें मंत्रिमंडल की बैठक में यह प्रस्ताव लाना होगा । फिर देश में संसद भी हैं, अदालतें भी हैं जो ऐसा असंवैधानिक काम नहीं होने देंगी लेकिन ममता बनर्जी को यह ख्याल भी कैसे आया कि वे संविधान के विरूद्ध जा सकती हैं? निश्‍चित रूप से रेलवे के बड़े से बड़े पदों की परीक्षा भी अंग्रेजी के साथ हिंदी तथा उन समस्त क्षेत्रीय भाषाओं में होनी चाहिए जिन्हें संविधान की आठवीं अनसूची में स्थान दिया गया है । इससे किसी का कोई विरोध नहीं हो सकता बल्कि ऐसे किसी कदम की प्रशंसा ही की जानी चाहिए लेकिन हिंदी को जो दर्जा संविधान में मिला हुआ है, वह सोच-समझकर दिया गया है इसलिए किसी को भी हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं को लड़ाने की कोई व्यर्थ कोशिश नहीं करनी चाहिए । इससे किसी मंत्री का थोड़ा-बहुत फायदा हो सकता है लेकिन देश का नुकसान होगा । भाषा-विवाद अभी शांत है, भाषा को लेकर कट्टरवादिता अब पुरानी चीज हो गई है, तब ममता बनर्जी को इस विवाद को उछालना नहीं चाहिए ।
हिंदी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा है और भारत की सबसे ज्यादा बोली और समझी जानेवाली भाषा है । चीनी के बाद यह विश्‍व में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा भी है । हिंदी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवं मध्य भारत के विविध प्रान्तों में बोली जाती हैं । भारत और विदेश में ६० करोड़ (६०० मिलियन) से अधिक लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं । फिजी, मॉरीशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकांश और नेपाल की कुछ जनता हिंदी बोलती है । हिंदी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा, जनभाषा सोपानों को पारकर विश्‍वभाषा बनने की ओर अग्रसर है कि आने वाले समय में विश्‍वस्तर पर अंतरराष्ट्रीय महत्व की जो चंद भाषाएं होंगी उनमें हिंदी भी प्रमुख होगी । हिंदी एवं उर्दूभाषाविदों की राय में हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा है । हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं और शब्दावली के स्तर पर अधिकता हमलोग संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करते हैं । उर्दू फारसी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर उसपर फारसी अरबी भाषाओं का ज्यादा असर है । व्याकरणिक रूप से उर्दू और हिंदी में लगभग शत-प्रतिशत समानता है । कुछ विशेष क्षेत्रों में शब्दावली के स्त्रोत में अंतर होता है । कुछ खास ध्वनियाँ उर्दू में अरबी फारसी से ली गई है और इसी तरह फारसी और अरबी के कुछ खास व्याकरणिक संरचना भी प्रयोग की जाती है । इसलिए उर्दू को हिंदी की एक शैली माना जा सकता है । परिवार हिंदी हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार के अंतर्गत आती है । ये हिंदी ईरानी शाखा के हिन्द आर्य उपशाखा के अंतर्गत वर्गीकृत है । हिन्द आर्य भाषाएं वो भाषाएं हैं जो संस्कृत से उत्पन्‍न हुई हैं । उर्दू, कश्‍मीरी, बंगाली, पंजाबी, सेमानी, मराठी, नेपाली जैसी भाषाएं भी हिंद आर्य भाषाएँ हैं । हिंदी की विभिन्‍न बोलियाँ और उनका साहित्य हिंदी की विभिन्‍न बोलियाँ (उपभाषाएँ) हैं । इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना हुई है । ऐसी बोलियों में ब्रज भाषा और अवधी प्रमुख है । यह बोलियाँ हिंदी की विविधता और उसकी शक्‍ति हैं जो हिंदी की जड़ों को और गहरा बनाती है । हिंदी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ अपने में एक बड़ी परंपरा, सभ्यता और इतिहास को समेटे हुए हैं वरन्‌ स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है । हिंदी की बोलियों में प्रमुख हैं - अवधी, बृजभाषा, कन्‍नौजी, बुंदेली, बघेली, भोजपुरी, हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, झारखंडी, कुमाऊँनी आदि । अर्थात विभिन्‍न प्रदेशों में हिंदी के रंग-ढंग में कुछ परिवर्तन अवश्‍य दिखेगा । हिंदी भाषा का भौगोलिक विस्तार काफी दूर-दूर तक है जिसे तीन क्षेत्रों (हिंदी क्षेत्र, अन्य भाषा क्षेत्र, भारतेत क्षेत्र) में विभक्‍त किया जा सकता है ।हिंदी क्षेत्र में हिंदी की मुख्यतः सत्रह बोलियाँ बोली जाती हैं जिन्हें पाँच बोली वर्गों में इस प्रकार विभक्‍त करके रखा जा सकता है - पश्‍चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, पहाड़ी हिंदी और बिहारी हिंदी । (मैथिली, भोजपुरी मंत्र ही, अंगिला, बज्जिका ) अन्य भाषा क्षेत्र में प्रमुख बोलियाँ इस प्रकार हैं - दक्खिनी हिंदी (गुल्बर्गी, बीदरी, बीजापुरी, तथा हैदराबादी आदि) बंबईया हिंदी, कलकतिया हिंदी तथा शिलंगी हिंदी (बाजार-हिंदी) आदि । भारत के बाहर भी कई देशों में हिंदी भाषी लोग काफी बड़ी संख्या में बसे हैं । सीमावर्ती क्षेत्रों के अलावा यूरोप,अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, रूस, जापान, चीन तथा समस्त दक्षिण पूर्व व मध्य एशिया में हिंदी बोलनेवालों की बहुत बड़ी संख्या है । लगभग सभी देशों की राजधानियों के विश्‍वविद्यालयों में हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ी-पढ़ाई जाती है । भारत के बाहर हिंदी की प्रमुख बोलियाँ- ताजुज्बेकी हिंदी, मॉरिशसी हिंदी, फीजी हिंदी, सूरीनामी हिंदी आदि हैं । हिंदी का पुस्तक व्यवसाय आज के युग में हिन्दी पुस्तक व्यवसाय इतना अधिक गिर चुका है कि पुस्तक लोग खरीद कर पढ़ना नहीं चाहते बल्कि हिन्दी के रीडरों को अच्छा वेतन मिलता है, अपने बच्चों को चन्दा मामा बाल सखा पत्रिका खरीद कर नहीं दे पाते । बच्चा यदि किसी पत्रिका की दुकान पर अड़ जाता है, पापा चन्दा मामा लेंगे, उन अच्छे बच्चों को यही कह कर बहला देते हैं, चलो हम ला देंगे । यदि अच्छे रीडरों को पेपर सेटिंग के लिये पैसे भी दिये जाते हैं तो उनको किसी कविता या लेख को अर्जित करना हो तो प्रकाशकों से पुस्तकें मांगकर पेपर सेट करते हैं, ये अच्छे रीडर बीस रूपये की पुस्तकें नहीं खरीद सकते उधार मांग कर पेपर सेट करके पुस्तकें बुक्सेलरों को वापस कर देते हैं । ऐसे में हिन्दी पुस्तक व्यवसाय धरातल में पहुँच रहा है । कुछ तो टेलीविजन भी एक कारण है । हम हिन्दी प्रांत के होकर भी ऐसा कटु अनुभव हिन्दी के प्रति हो गया है । लोगों का कहना है हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है ।
(गोपाल प्रसाद)

आजादी के ६२ वर्ष का आकलन

आजादी के ६२ वर्ष का आकलन तो हम करेंगे ही परन्तु सर्वप्रथम हमें अपनी गुलामी के समय का आकलन करना पड़ेगा । वास्तविकता तो यह है हम भारतवासी १००० वर्षों तक गुलाम रहे । पृथ्वीराज चौहान के पराजय के पश्‍चात्‌ हम भारतवासी गुलाम होकर ही रह गए । भारत के ज्यादातर हिस्सों पर मुस्लिम आक्रांतियों ने अधिकार कर लिया । हम छोटी-छोटी ताकतो में विभाजित रहे । भारत को गुलाम बनाने में कन्‍नौज के राजा जयचंद का नाम प्रथम है जिसने विदेशी आक्रांता मोहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण का आमंत्रण भेजा । गुलामी की जंजीरों ने हमें ऐसा जकड़ा कि हम अपनी ओज, शक्‍ति, वीरता, गौरव को इतिहास की बातें मानने लगे । पराधीनता को अपना भाग्य मान लिया । बिल्ली के घर पर आक्रमण होगा तो वो भी प्रतिकार करेगी परंतु हमलोगों ने क्या किया? इतना बड़ा देश पूर्ण प्रतिकार (क्यों नहीं?) भारतवर्ष के स्वर्णिम काल पर अंधकार काल की छाया क्यों पड़ी? भारतीय सामाजिक व्यवस्था चार वर्ण पर आधारित है । वैदिक व्यवस्थानुसार यह कर्म के सामाजिक चार वर्ण थे । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । वैसे पूरा विश्‍व इसी व्यवस्था पर चल रहा है । पश्‍चिमी देशों में व्यवस्था कर्मानुसार है । परंतु कपटी, लालची लोगों ने इसे जन्म की वर्णव्यवस्था में व्यक्‍त किया । अगर आप स्वर्णकालीन भारत में जाँय तो पाएंगे कि कर्म ही वर्ण था न कि जन्म । चन्द्रगुप्त मौर्य जो जन्म अनुसार वैश्य थे परन्तु कर्म के अनुसार वे क्षत्रिय थे तभी महान चाणक्य ने उन्हें भारत का सम्राट चुना । अगर सही आकलन किया जाय तो भारतवर्ष तभी महान शक्‍ति बना जब वैश्य क्षत्रिय और शूद्र क्षत्रिय सबों की सम्मिलित शक्‍ति एक हुई । भगवान श्रीकृष्ण भी वैश्य वर्ण क्षत्रिय थे । मनुस्मृति की विकृति ने वर्णव्यवस्था को जन्म व्यवस्था में परिणत कर उसे सामाजिक व्यवस्था जिससे देश चलता था, राष्ट्र संचालित होता था, उसे ही पंगु कर दिया । देश की उर्वरा शक्‍ति ही बांझ बना दी गई । फिर शुरू हुआ भारत का सामाजिक क्षरण, सांस्कृतिक टूटन । एक तरफ अधिसंख्यक जनता को वैश्य, शूद्र में परिभाषित कर उनके आत्मिक गौरव पर हमला हुआ । उनकी ओजशक्‍ति जो राष्ट्रशक्‍ति थी उसे तोड़ दिया गया अपनी धरती अपना है वतन, परन्तु आन-बान कुछ भी नहीं । तुम हमसे छोटे हो चूँकि तुमने वैश्य में जन्म लिया, तुम ओछे हो, तुम्हें छू लेना भी पाप है चूँकि तुम शूद्र हो । तुम मंदिरों में नहीं जा सकते । सनातन धर्मी होते हुए भी तुम मंदिरों में नहीं जा सकते, देवता अपवित्र हो जाएंगे । भारत पर हमले दर हमले राष्ट्रीयता के अभाव में धर्म परिवर्तन हुआ । अनेक शूद्र धर्मपरिवर्तन कर मुसलमान बन गए । भारत के ज्यादातर बुनकरों ने इज्जत और संरक्षण के लिए इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिए । कालान्तर में मुस्लिम भी हिंदुस्तानी समाज के अंग होते चले गए । फिर मुगल वंश का पतन हो गया। अंग्रेजों ने धीरे-धीरे पूरे देश पर कब्जा कर लिया भारत की जनता में एक राष्ट्र सोंच की जगह विभिन्‍न राष्ट्रों की संकीर्ण मानसिकता घर कर गई थी । सन्‌ १८५७ में प्रथम क्रांति हुई जिसमें हिंदू और मुस्लिम ने शिरकत की परंतु एक राष्ट्रीयता के विचार में क्रांति बिखर गई । अंग्रेजों का दबदबा और भी बढ़ गया । सख्त कानून बने । समय-समय कुछ लोगों ने क्रांति का अलख जगाया । जनता में एकता, जागृति लाने का आंदोलन जारी रखा जैसे लोकमान्य तिलक, बालकृष्ण गोखले, लाला लाजपतराय इत्यादि । महात्मा गाँधी ने क्रांति से पूर्व साउथ अफ्रीका में अंग्रेजों को समझा, अपने देश को समझा और उस जनता में क्रांति के कण फूकें, वो बहुसंख्यक जनता जो विभिन्‍न समाज की कुकृत्य के कारण राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग थे । जनता राष्ट्र की फौज होती है । फौज नहीं लड़ेगी तो देश तो गुलाम रहेगा ही । हरिजन का नारा देकर महात्मा गाँधी ने गुलामी की असल वजह मनुस्मृति की विकृत सदियों से गुलामी की जंजीर को तोड़ने की शुरूआत की । देश की क्रांति के लिए बहुसंख्यक जनता में आत्मगौरव, राष्ट्रीयता भरा । महात्मा गाँधी ने उस जनता को ललकारा जो सदियों से सोई थी । “अपनी धरती अपना है वतन, भारतवर्ष हमारा है, अंग्रेजों भारत छोड़ो । नेहरू, आजाद, पटेल अनेक अनुयायियों के साथ रहे । नेहरूजी को खुद को उनका पुत्र कहते थे । १५ अगस्त १९४७ को देश आजाद हुआ और आज ६२ साल गुजर गए । जब हम आजाद हो जाएंगे, गाँव-गाँव का विकास होगा । जिन आदर्शों को सामने रखकर क्रांति की आजादी पाई क्या वो पूरा हुआ?आजादी के ६२ साल बाद याद आती विंस्टन चर्चिल ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री ने ब्रिटिश संसद में कहा था ‘ हम अंग्रेज तो खून चूसते हैं परन्तु अगर हम इन्हें आजाद कर देंगे तो ये लोग तो जनता का माँस मज्जा भी खा जाएंगे । नैतिकता, ईमानदारी, संस्कृति, मर्यादा, सच्चाई, कर्त्तव्य परायणता सभी तो समाप्त सा दिखता है । भारत आजाद परन्तु कानून, पुलिस सभी कुछ वैसा जैसा अंग्रेजों ने १८५७ की क्रांति को कुचलने के बाद बनाया था । हमारे देश में आज भी कुछ सुधार के बावजूद वही काला कानून चल रहा है जो गुलाम जनता पर अत्याचार के लिए बनाई गई थी । यानी आजादी के बाद भी हमारे पुलिसवाले अफसरान वही कानून चला रहे हैं, वही बर्ताव कर रहे हैं जो गुलामी की वजह से जनता का नसीब था? क्या यही है आजादी ? क्या यही है आजादी जहाँ आम जनता आज भी अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रही है । कल अंग्रेज थे आज अपने देशवाले । नौकरशाह और सरकारी कर्मचारी अपने को शासनकर्ता समझते हैं । आर्थिक विकास देखकर यही लगता है कि आजादी के ६२ साल बाद भी जनता गरीब क्यों? क्योंकि तुमने आजादी के दृष्टा की बात नहीं मानी नए युग के चाणक्य महात्मा गाँधी ने देश के विकास की योजनाएं बनाई थीं, परन्तु भारत की आजादी के बाद उनकी आर्थिक निर्माण के स्वर्णिम आविष्कार योजनाओं का उनके अनुयायियों द्वारा कार्यान्वित नहीं करने से देश का कितना नुकसान हो गया । गाँवों का विकास, उद्योगों का विकेन्द्रीकरण जैसे मूल मंत्र छोड़ राष्ट्र को गरीबी, अंधकार मे फेंक देने समान अपराध है । कश्मीर जो स्वर्ग था, वह समस्या में तब्दील हो गया । लाखों कश्मीरी पंडितों का अपने वतन से पलायन मुस्लिम आतंक की वजह से देश के रहनुमा खामोश क्यों हैं? राष्ट्र है तभी सत्ता है, इस बात को क्यों भूलते हैं लोग । आजादी के ६२ साल बाद भी एक कृषिप्रधान देश के किसान आत्महत्या कर रहे हैं । सरकार की गलत नीतियों का परिणाम है यह सब । शिक्षानीति आज भी है वही जो लॉर्ड मैकाले ने बनाया । आखिर हम उस शिक्षानीति को क्यों नहीं अपना सकते जिसकी वजह से देश-विदेश से विद्यार्थी भारतवर्ष के तक्षशिलाऔर नालंदा विश्‍वविद्यालय में पढ़ने आते थे । गलत शिक्षा नीति ने आजादी ३०-३५ साल में कलर्कों का निर्माण हुआ । यूपी, बिहार, पंजाब, हरियाणा ज्यादातर हिंदी भाषी राज्यों में ज्ञान की चोरी करने की कोशिश? खूब नकल हुई, खुलेआम हुई, बेशर्मी से हुई परन्तु क्या ज्ञान की चोरी हो सकती है? कदाचित नहीं चोरी की परीक्षा से ज्ञान तो नहीं मिला आयोग्य, अज्ञानियों ने अव्वल नंबर जरूर प्राप्त कर लिया । फिर वही कपटी और लालची लोग सरकारी नौकरियों में स्थापित हो गए लेकिन जरा सोचिए देश के हर सरकारी विभाग में ऐसे कर्मचारियों का बोलबाला है तब देश का निर्माण क्या होगा? उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत का विकास हर क्षेत्र में ज्यादा अच्छा रहा । विकेन्द्रीकरण जो विकास की धुरी है, महात्मा गाँधी इसी नीति पर देश को ले जाना चाहते थे । सरकार ने विपरीत दिशा केन्द्रीकरण की नीति को बढ़ाया । बैंको का राष्ट्रीकरण हुआ । बड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया गया परन्तु देश की अर्थव्यवस्था का आधार कुटीर उद्योग का विनाश क्यों कर दिया गया? गांधी कहते थे - कील, कुदाल, फावड़े, कुछ वस्त्र विशेष जरूरत की छोटी चीजों का निर्माण बड़े उद्योग नहीं करेंगे, उनका निर्माण कुटीर उद्योग में होगा और पैसा गाँव में जाएगा परन्तु ठीक इसके नीति के विरूद्ध सरकार ने कुटीर उद्योगों को तहस-नहस कर सालों साल गरीबी हटाओ नारे देकर वोट लेती रही । इंदिरा आवास, जवाहर रोजगार जैसे अनेक योजनाएं हजारों लाखों करोड़ों का सरकारी खर्च परन्तु योजनाओं का लाभ जनता को नहीं मिला । स्व. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कहा था “ विकास मद का १०% ही जनता को प्राप्त होता है । यानी देश का प्रधानमंत्री खुद स्वीकार करता है कि विकास योजनाओं का ९०% रूपया सरकार चलाने वाले अफसर, कर्मचारी, राजनीतिज्ञ खा जाते हैं । सीमा पर युद्ध हुए । अनेक वीरों ने कुर्बानी दी । सरकार ने शहीदों के मरणोपरांत उनके आश्रितों के लिए अनेक घोषणाएँ कीं । पेट्रोल पंप देने की भी घोषणाएँ हुईं । लोग दौड़ते रहे, सरकारी अफसर, कर्मचारी, सरकरी बाबू शहीद की शहादत के मुआवजे में भी अपनी पूरी हिस्सेदारी बेशर्मी से माँगते देखे गए । ये कैसी सरकार, कैसी व्यवस्था, कैसा निजाम जो देश पर शहादत देनेवालों के लिए भी अविलंब व्यवस्था नहीं कर पाई । शर्म है हमारी सरकारी व्यवस्था पर । नेहरूजी के देहांत के बाद हमने वीर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री मिले । “जय जवान जय किसान” की व्यापक सोंच, सच्चाई, कर्त्तव्यपरायणता के उदाहरण थे वे । उनके कार्यकाल में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया । भारत ने भारी विजय प्राप्त की । संधि वार्ता के लिए उन्हें ताशकंद बुलाया गया । उनकी ताशकंद में रहस्यमय मौत हो गई । प्रधानमंत्री का शव हिंदुस्तान लाया गया और दाहसंस्कार कर दिया गया । मौत के रहस्य पर पर्दा रहा । आजादी के ६२ वर्ष बाद जब जनता को सूचना प्राप्त करने का अधिकार मिला तब उनके पुत्र सुनील शास्त्री ने उनके मौत की फाईल को उजागर करने को कहा ।भारत की वर्तमान सरकार कहती है कि स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री की मुत्यु की फाइल खोने से हमारे विदेश संबंध प्रभावित हो सकते हैं । सरकार का यह बयान तो और असमंजस पैदा करता है । यह कैसा प्रजातंत्र है । पूर्व प्रधानमंत्री के मुत्यु की फाइल को उजागर नहीं करना क्या सिद्ध करता है? अगर इस रहस्य को खोलने से कोई विदेशी ताकत नंगी होती है तो हो, सच्चाई देश की जनता के सामने लाना चाहिए । यह कैसी विदेश नीति यह कैसा ब्लैकमेल है जिससे सरकार डर रही है? अपने पूर्व प्रधानमंत्री के साथ हुई घटना को देश की जनता के सामने लाने से इनकार करती है, यह आखिर कैसी सरकार है? आखिर यह कैसा प्रजातंत्र? कैसी आजादी? विदेश नीति के मामले में हमने हमेशा मात खाई । प्रधानमंत्री नेहरू, इंदिराजी, वाजपेयी से मनमोहन सिंहजी तक पता नहीं किस सोच के शिकार हैं? आखिर आजादी के बाद देश की कोई भी सरकार यह नहीं समझ पाई कि देश गुलाम क्यों बना?मोहम्मद गोरी का इतिहास हम भूल गए हैं । गोरी १३ बार पृथ्वीराज चौहान से हारा और माफी माँगकर घुटता रहा । १४ वें बार पृथ्वीराज की हार हुई तब गोरी ने पृथ्वीराज को माफ नहीं किया बल्कि गुलाम बनकर ले गया । ऐसे अनेक उदाहरण हैं तैमूरलंग, नादिरशाह, अहमदशाह अब्दाली । पाकिस्तान उसी नीति पर चल रहाहै । पाकिस्तान दिल्ली के लालकिला पर इस्लाम का हरा झंडा फहराना चाहता है । चीन हमेशा भारत में गुप्त पैठ करता रहता है और भारतीय जमीन पर भी कब्जा कर रहा है । भारत चुपचाप देखता रहता है । चीन ने अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा कर चुका है । भारतीय सीमा तक रोड पेकिंग से जुड़ गया है । भारत सरकार चीन से डरी सी दिखती है आखिर क्यों? चीन से डरकर हमने तिब्बत को चीन का हिस्सा कहने लगे जबकि तिब्बत हमेशा स्वतंत्र देश था । १९७१ में बंग्लादेश का निर्माण हुआ । ९०००० पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया । शिमला समझौता हुआ । पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री भुट्‌टो हारे हुए देश की प्रतिनिधि, फिर भी कूटनीति में हमसे आगे । “कश्मीर समस्या के समाधान पर भविष्य में वार्ता करेंगे ।”इस एक वाक्य से हम जीती हुई बाजी हार गए । वाजपेयी तो अतिउत्साह में बस से लाहौर पहुँच गए । भारी भूल कारगिल का युद्ध, हजारों जवान शहीद हो गए । इतने प्रयोग के बाद मनमोहनजी उसी रास्ते चल पड़े । आतंकवाद को अलग कर और मुद्‌दों पर बात होगी । भले पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी हम पर बम बरसाए, खून की होली खेले । मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं, उन्हें भी पुराना प्रयोग करने की छूट देनी चाहिए भले निर्दोष जनता मरती रहे । जिस देश में चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ देशभक्‍त के विचार ने समस्त विश्‍व की राजनीति को प्रभावित किया उसे देश के इतने कमजोर शासक क्यों??? पाकिस्तानी फौज ने भारत पर आक्रमण अनेक बार किए, भले वह डरता रहा हो । पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद द्वारा संसद पर हमला, मुंबई ट्रेन ब्लास्ट, सीरियल बम विस्फोट, हमारे लोग मरते रहे, सरकार आतंकवाद की निंदा करती रही, पाकिस्तान से पूछताछ करती रही । २६.११.०८ मुंबई पर पाकिस्तान प्रत्योजित आतंकवाद का चरम भारत की अस्मिता लहूलुहान हो गई । इतना बड़ा आक्रमण हुआ परन्तु देश की सरकार, गुप्तचर विभाग, आईवी, रॉ. पुलिस किसी को पता तक नहीं चला । ९/११ को अमेरिका पर आतंकवादी हमला हुआ । परन्तु अमेरिका की सरकार ऐसी चेती की वहाँ दुबारा आतंकवादी हमला होना दुश्कर हो गया है । हिंदुस्तान में क्या कमी है? हम अपनी जनता को सुरक्षा का अभेद्य दुर्ग नहीं दे सकते । सरकार कर सकती है परन्तु करती नहीं । हमारे देश में अभी इंसानी जिंदगी को ज्यादा महत्व नहीं दी जाती है । वही अमेरिका, इजराईल, इंग्लैंड और अन्य पश्‍चिमी देश अपने एक-एक नागरिक का जीवन अमूल्य समझती है । हिंदू मुसलमान दोनों समान रूप से इस देश में रहते हैं परन्तु मुस्लिम समाज अशिक्षा और गरीबी में है । सरकार का ध्यान उनमें शिक्षा देना, दरिद्रता दूर करने पर नहीं है । ध्यान है उनकी धार्मिक भावना उभारकर वोट की रोटी सेंकना और सत्ता में बने रहना ।इसलिए अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के नाम पर देश की आजादी और इज्जत से खेलने का लाइसेंस सरकार को नहीं है । देश में हिंदू-मुस्लिम दोनों रहते हैं । आतंकवाद कोई भी करे वो गलत है परन्तु आतंकवाद मुस्लिम आतंकवाद की तुलना हिंदू आतंकवाद से करना सरकार का शुतुर्मुर्ग की तरह रेत में मुँह घुसाना एवं सच्चाई से मुँह मोड़ना है । संगठित अपराध, आतंकवाद ये पूरी दुनिया में मुस्लिम समाज ही फैला रहा है । शिक्षित देशभक्‍त मुस्लिम इस बात को समझकर भी चुप रहते हैं, बोलते नहीं । जिस तरह से सिक्खों ने आतंकवादी बन अपने को बदनाम किया, वर्षों तक उसका खामियाजा भी भुगता । उसी तरह खुद मुस्लिम समाज को मुस्लिम आतंकवाद का विरोध करना पड़ेगा तभी मुस्लिम आतंकवाद रूकेगा । महात्मा गाँधी ने आजादी के बाद कहा था कांग्रेस पार्टी का विघटन कर देना चाहिए क्योंकि अवसरवादी, सत्तालोलुप कपटी लोग भर गए हैं । जनता द्वारा नई राजनीतिक पार्टी का गठ होना चाहिए परन्तु दुर्भाग्य देश का गाँधी हमारे बीच नहीं रहे । उनके अनुयायी ने आजादी उनके नेतृत्व और आदर्शों पर प्राप्त कर महात्मा के स्वर्णिम राष्ट्र की विकास योजनाओं को रद्दी की टोकरी में फेंक देश को अंधकार और गरीबी में फेंक दिया । आजादी के ६२ वर्ष बाद भी भारतवर्ष की जनता रोटी, कपड़ा और मकान के चक्रव्यूह में फँसी है । निदान का विकल्प नहीं दिखता । अब वक्‍त है जब जनता को स्वयं देश का निर्माण करना पड़ेगा । राममनोहर लोहिया ने कहा था- “ स्वस्थ प्रजातंत्र में जनता पाँच साल इंतजार नहीं करती, क्रांति करती है । ”
रवि, कुमार पटवा ( फिल्म निर्देशक एवं लेखक, मुंबई)

स्वाइन फ्लू पर भारी दिमागी बुखार की सनसनी


देश का स्वास्थ्य ढाँचा ःबेशक अमीरी के मामले में हमें संसार के सभी विकासशील देशों में सबसे आगे बताती हो परंतु शक्‍ति के सारे मानकों पर इतनी ऊँची जगह के बाद भी भारत की जनता हर साल बहुत बड़ी संख्या में निमोनिया, खसरा, पेचिश, प्रसूति ज्वर, शिशु संक्रमण, डेंगू , मलेरिया, टीवी, टिटनेस और सर्पदंश जैसी छोटी-छोटी बीमारियों और दुर्घटनाओं से मर जाते हैं, जिन्हें दुनिया भर में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से आगे की समस्या नहीं समझा जाता है । जब सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य को अपनी जिम्मेदारी मानती थी, ‘तब भी हालत कुछ खास अच्छी नहीं थी, परन्तु नई आर्थिक नीति के गति पकड़ने के साथ ही जैसे-जैसे स्वास्थ्य का जिम्मा नर्सिंग होमों, निजी अस्पतालों और हेल्थकेयर कंपनियों पर छोड़ा जाने लगा वैसे-वैसे चीजें एक अजीब घपले की शक्ल लेती गईं । सरकार की तरफ से प्रतिवर्ष पेश किए जाने वाले राष्ट्रीय बजट में स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ता हुआ दिखाई देता है परंतु वास्तविकता के धरातल पर हर नए बजट के साथ देश में कहीं ज्यादा लोगों को इलाज के बगैर तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है । देश का सार्वजनिक स्वास्थ्य ढाँचा पूरी तरह तबाह हो जाने के बावजूद देश में स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च का ग्राफ लगातार चढ़ता ही नजर आता है । क्या यह ढाँचा अभी “स्वाइन फ्लू” का झटका सहने को तैयार है ?साथ आए अंबिका और आजादस्वाइन फ्लू को देश में और न फैलने देने के लिए केंद्र सरकार ने कमर कस ली है । अब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद और सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी इस मोर्चे पर एक साथ आ गए हैं । जहां स्वास्थ्य मंत्रालय इस संक्रामक बीमारी के परीक्षण, इलाज और टीकाकरण के लिए युद्धस्तर पर जुट गया है, वहीं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इस बीमारी के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने का जिम्मा ले लिया है । बच्चों को स्वाइन फ्लू के संक्रमण से बचाने के लिए स्वास्थ्य मंत्री ने स्कूलों को सलाह दी है कि फिलहाल कुछ दिनों तक स्कूलों में होने वाली सुबह की सभाएं न आयोजित की जाएं और स्कूलों में शिक्षकों की ड्‌यूटी लगाई जाए कि वह हर कक्षा में हर सीट पर प्रतिदिन हर बच्चे की जांच करें और जिस बच्चे में सर्दी जुकाम के जरा भी लक्षण हों, उसे इलाज के लिए फौरन घरवालों के पास भेंजे । आज के मुताबिक जल्दी ही मंत्रालय द्वारा स्वाइन फ्लू का संक्रमण रोकने के लिए जारी किए जाने वाले निर्देशों में भी इसे शामिल किया जाएगा । कई दिनों तक स्वाइन फ्लू को लैकर फैली दहशत और अफरातफरी के लिए मीडिया को दोषी ठहराने वाले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद, टीवी न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों के वरिष्ठ संपादकों से रूबरू हुए । आजाद और मीडिया के बीच यह संवाद केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने आयोजित कराया । मौके पर आजाद के साथ अंबिका भी मौजूद थीं । वरिष्ठ संपादकों के साथ इस अनौपचारिक बातचीत में आजाद ने सरकार द्वारा अब तक इस बीमारी की रोकथाम के लिए उठाए गए कदमों का ब्यौरा दिया । आजाद ने बताया कि विश्‍व स्वास्थ्य संगठन के अटलांटा स्थित रोग रोकथाम केंद्र से स्वाइन फ्लू के वाइरस का मूल मिलने के बाद भारत ने इसका टीका विकसित करने का काम शुरू कर दिया है और अगले पांच से सात महीनों के भीतर इसका टीका आ जाएगा । फिर टीकाकरण के जरिए इस घातक बीमारी को फैलने से रोका जा सकेगा । उन्होंने बताया कि संक्रमण रोगों की रोकथाम के लिए मौजूदा पुराने कानून की जगह जल्दी ही नया कानून भी बनेगा । स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि स्वास्थ्य एवं चिकित्सा राज्य सूची का विषय है, इसलिए इस बीमारी की रोकथाम में राज्य सरकारों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है । केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सचिव और संयुक्‍त सचिव स्तर के अधिकारियों के नेतृत्व में करीब ४५ टीमें गठित की हैं जो अलग अलग राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में जाकर वहां स्वाइन फ्लू की रोकथाम के लिए जरूरी जानकारी देंगी और जरूरी कदम उठाने में मदद करेंगी । आजाद ने बताया कि इस बीमारी से अभी तक कुल ८० लोगों की जान गई है । जांच में कुल १७०० से ज्यादा लोगों में स्वाइन फ्लू पाया गया, जिसमें पांच सौ से ज्यादा ठीक होकर घर जा चुके हैं । स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि जिन लोगों की मौत हुई है, उनमें ज्यादातर मामले ऐसे हैं जिनमें इस बीमारी का पता या तो देर से चला या रोगी को हृदय रोग, टीबी, कैंसर, ब्लड प्रेशर, किडनी की खराबी जैसी कोई दूसरी पुरानी बीमारी भी थी, जिससे उसकी प्रतिरोधक क्षमता घट चुकी थी । आजाद ने बताया कि इस बीमारी की जांच की सुविधा पहले सिर्फ दो सरकारी प्रयोगशालाओं में थी । अब १६ अन्य प्रयोगशालाओं में भी यह सुविधा बहाल हो गई है, इस तरह कुल १८ सरकारी प्रयोगशालाओं में जांच सुविधा है । दिल्ली में अन्य छह निजी प्रयोगशालाओं में भी जांच की सुविधा बहाल हो गई है । जबकि तीन निजी प्रयोगशलाओं में पहले से यह सुविधा है । रक्षा मंत्रालय ने भी अपनी कुछ प्रयोगशालाओं को इस बीमारी की जांच के लिए तैयार किया है । इस बीमारी की रोकथाम के लिए गठित टास्क फोर्स भी अपनी रिपोर्ट सौंपेगी । इस बीमारी की शुरूआत अमेरिका, मैक्सिको जैसे देशों में हुई । वहां से यह विदेशी पर्यटकों के जरिए भारत पहुंची । आजाद ने बताया कि देश के सभी हवाई अड्‌डों, बंदरगाहों पर विदेशों से आने वाले लोगों की गहन जांच की जा रही है । देश के प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों पर २४ थर्मल स्कैनर लगाए जाएंगे, जिनसे यह पता चल सकेगा कि किस यात्री को बुखार है । साथ ही बाहर से आने वाले जिन यात्रियों में स्वाइन फ्लू के लक्षण पाए गए, उनके सहयात्रियों का पता लगाकर उनका परीक्षण किया जा रहा है । फ्लू पर सितारों की राय शबाना आजमी ने कहा - “ स्वाइन फ्लू से हमारी जिंदगी प्रभावित नहीं हुई है । फ्लू के खौफ से पैदा हुआ हिस्टीरिया इसके इलाज में अड़चन पैदा कर सकता है । एक-दूसरे पर दोष मढ़ने से बेहतर है, हम जिम्मेदार नागरिक की तरह बर्ताव करें और सुनिश्‍चित करें कि लोग अलर्ट रहें, सचेत रहें । ”हेमा मालिनी ने कहा - “मैं इस बीमारी की भयावहता समझ नहीं पा रही हूँ । जन्माष्टमी पर मेरे कई शो होने थे लेकिन कैंसल कर दिए गए, तब मुझे हालात की गंभीरता का अंदाजा हुआ । हमें इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए । हमें बहुत सावधान रहने की जरूरत है । ” बिपाशा बसु ने कहा - “मैं अभी विदेश में हूं । लेकिन मैंने भारत में फैले स्वाइन फ्लू के बारे में सुना है, इससे मैं बहुत दुखी हूं और डर भी लग रहा है । उम्मीद है, हालात बहुत जल्द सामान्य हो जाएंगे । ”अमृता अरोड़ा ने कहा - “सचमुच फ्लू ने मुझे हिलाकर रख दिया है । लेकिन डरने के बजाय मैं निर्देशों कापालन कर रही हूं । मास्क पहनती हूं । बिस्तर के पास सौनिटाइजर रखती हूं । मैंने अपने स्टाफ जो भी प्रिकॉशन लेने को कहा है । रिया सेन के अनुसार - “ जितना संभव है, मैं सावधानी बरत रही हूं । ऑफिस, घर यहां तक की बिल्डिंग के वॉचमैन भी मास्क पहनकर रहे, इसका मैं ध्यान रख रही हूं । ” आईटी इंडस्ट्री सतर्क ःस्वाइन फ्लू केचलते ६० अरब डॉलर के आईटी जगत में यात्राएं और दूसरे कार्यक्रम स्थगित हो रहे हैं । नैसकॉम के अध्यक्ष सोम मित्तल ने बताया, ऐहतियाती कदम उठाते हुए हमने कुछ कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया है । इंफोसिस के प्रमुख वित्तीय अधिकारी वी। बालाकृष्णन ने कहा, हम अपने कर्मचारियों को केवल बहुत जरूरी होने पर शहर में निकलने को कह रहे हैं । विप्रो के मुख्य वित्त अधिकारी ने सुरेश सेनापति ने कहा कि कंपनी स्थिति का निरीक्षण कर रही है । केवल स्वस्थ कर्मचारी ही काम कर रहे हैं । फ्लू की चपेट में ऐश्‍वर्या ऐश्‍वर्या राय में फ्लू जैसे लक्षण दिखाई दिए हैं । इससे उनके ससुर अमिताभ बच्चन खासे परेशान है । ऐश्‍वर्या हाल में अपने पति अभिषेक बच्चन के साथ ऊटी में फिल्म रावण की शूटिंग कर रही थीं । अमिताभ ने अपने ब्लॉग में चिंता जताते हुए लिखा है, ऐश्‍वर्या को तेज बुखार था पर अब हालत सुधर रही है। बच्चों से दूर रहने पर चिंता बढ़ जाती है । हां, वे मच्योर हैं शादीशुदा हैं पर बच्चे तो आखिर बच्चे ही रहेंगे । खुद अमिताभ पीठ दर्द से परेशान हैं और इस समय सिंगापुर में रहकर अपने बीमार राजनेता दोस्त अमर की देखभाल कर रहे हैं । स्वाइन फ्लू या एच१ एच१ वायरस अब अंतर्राष्ट्रीय आपदा के रूप में फैल चुका है । विश्‍व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि इस समय दुनिया भर में कम से कम १.६ लाख मामले सामने आ चुके हैं और इससे कम से कम ११०० लोगों की मौत हो चुकी है । भारत में स्वाइन फ्लू से प्रभावित लोगों की संख्या बहुत कम है । अब तक देश भर में लगभग ५००० लोगों में इस वायरस की जाँच की जा चुकी है और सिर्फ ११९३ इससे प्रभावित पाए गए हैं । जिसमें ५८९ को अस्पताल से छुट्‌टी दे दी गई है । इस वजह से हुई मौत चिंता की बड़ी वजह है । यह न सिर्फ केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा मामले की गंभीरता से निपटने और रोक के लिए समयबद्ध कदम उठाने में लापरवाही दिखाता है बल्कि आम लोगों द्वारा बचाव के उपाय अपनाने की जानकारी भी उजागर करता है सरकार को लोगों को भरोसे में लेकर जाँच केन्द्र और आइसोलेशन वार्ड तैयार करने थे तथा दवाओं के अंधाधुंध वितरण पर प्रतिबंध लगाना था और सरकारी वितरण केंन्द्रों से इसकी उपलब्धता सुनिश्‍चित करनी चाहिए थी । भारत में मामले की गंभीरता को देखते हुए तुरंत पहचान और स्वाइन फ्लू का इलाज बहुत जरूरी है । इसके लिए आवश्यक है कि कई ऐसे केन्द्र हों, जहाँ इससे संबंधित परीक्षण किए जा सकें, दवाइयों का वितरण हो और इसका इलाज हो सके । अब तक सरकार इसकी जाँच पर आने वाले खर्च (लगभग दस हजार रूपए) को खुद उठा रही थी, परन्तु अगर हमारी जनसंख्या का एक वर्ग इसको वहन कर सकता है तो सरकार को कोई जरूरत नहीं है कि वह सबके लिए इसका खर्च उठाए । देशभर की प्रतिष्ठित खुदरा दवा दुकानों से इसकी बिक्री की इजाजत भी लोगों में भरोसा कायम करेगी । लोगों द्वारा खुद जाँच और इलाज के खतरे से बचाने के लिए जागरूकता अभियान चलाया जा सकता है । स्कूल-कॉलेज और सिनेमा हॉल बंद करने जैसे कदम जरूरी नहीं । सरकार को अनता से सीधे संवाद स्थापित करने की आवश्यकता है । इसकी जाँच के लिए सरकार को हरसंभव व्यवस्था करनी चाहिए और लोगों को इससे बचाव के लिए जागरूक करना चाहिए । आम जनों में भरोसा की बहाली करके ही इस पर काबू पाया जा सकता है । इन फ्लू का बुखार सरकार पर भी चढ़ गया है और केंद्र तथा सभी राज्य इस पर हरकत में आ गए हैं । इसे देखकर केंद्र ने राज्यों से बीमारी पर काबू के लिए फौरन कदम उठाने को कहा है । प्रभावक्षेत्र, खर्च, सावधानी ःसबसे ज्यादा प्रभावित पुणे में ६२ मामलों में १ स्कूली लड़की की मौत हो गई । मुंबई और बडोदरा में भी एक-एक जान इस बीमारी से चली गई । इसे देखकर महाराष्ट्र सरकार ने ८ निजी अस्पतालों में भी स्वाईन फ्लू के जाँच उपचार केन्द्र खोलने की फैसला किया है । समय दर्पण के दिल्ली ब्यूरो के अनुसार दिल्ली में फ्लू की आशंका में ५ स्कूलों को बंद किया जा चुका है । यहाँ १४ अस्पतालों में इसकी जाँच की जा रही है और २२८ लोगों में स्वाइन फ्लू के लक्षण मिले हैं । समय दर्पण के कोलकाता प्रतिनिधि के अनुसार कोलकाता में इस बीमारी की चपेट में १० लोग आ चुके हैं । हरियाणा सरकार ने राज्य में महामारी नियमन लागू किया है, जिसमें निजी डॉक्टरों को भी संदिग्ध रोगियों की जानकारी सिविल सर्जन को देनी होगी । समय दर्पण के लखनऊ प्रतिनिधि के अनुसार उत्तरप्रदेश के १२ जिलों में प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित स्पेशल आइसोलेशन वार्ड सुविधाओं के अभाव में जनता के लिए अनुपयोगी बने हुए हैं । इन वार्डों में न तो डॉक्टर हैं न कर्मचारी और न ही तकनीशियन । स्वाइन फ्लू की आशंका की शिकायत लेकर अस्पताल आने वाले मरीजों को बिना पुख्ता जाँच के साधारण बुखार बताकर टरकाया जा रहा है । लखनऊ में स्वाइन फ्लू के दो रोगी मिले हैं और ५ संदिग्धों की जाँच चल रही है । वहाँ अभिभावकों से कहा गया कि सर्दी जुकाम होने पर बच्चों को स्कूल न भेजें । स्वाइन फ्लू की एक जाँच में सरकार का खर्च दस हजार रूपए होता है जबकि निजी अस्पतालों में जाँच का संभावित खर्च हजार रूपए है । देश में अब तक ४१,३०० मरीजों की जाँच हो चुकी है । स्वाइन फ्लू आशंकित लोगों के नमूने एकत्र करने में उपयोग की गई किट का सही ढंग से निस्तारण जरूरी है । ऐसा नहीं होने पर स्वाइन फ्लू फैलने का खतरा रहेगा । अस्पताल प्रशासन के अधिकारियों में स्वाइन फ्लू होने की आशंका बढ़ सकती है । उपचार ःदवा बनाने वाली कंपनी पेनेसिया बायोटिक लिमिटेड समेत देश की तीन दवा कंपनियां स्वाईन फ्लू की वैक्सीन बना रही हैं । “सेरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया” ने स्वाइन फ्लू के वैक्सीन को क्वालिटी कंट्रोल परीक्षण के लिए भेजा है । अगले वर्ष की पहली तिमाही की अवधि में इसे घरेलू बाजार में आने की उम्मीद है । अब तक देश भर में १००० लोगों में स्वाइन फ्लू के लक्षण पाए गए हैं, जिसमें से १७ लोगों की मौत भी हो गई है । इस वर्ष अप्रैल में इस बीमारी को सामने आने के बाद विश्‍व स्वास्थ्य संगठन इसे महामारी घोषित कर चुका है । दुनिया भर में अब तक करीब १००० लोगों की मौत स्वाइन फ्लू से हो चुकी है । इसके वैक्सीन को इंटरनेशनल रेग्यूलेटरी अप्रूवल की जरूरत होती है, जिसके कारण इसके विकास में देरी हो रही है । सेरम इंस्टीच्यूट के सूत्रों के मुताबिक गुणवत्ता परीक्षण के बाद सितंबर में इसका विषधर्मिता परीक्षण किया जाएगा । इसके बाद इसे ट्रायल पर आने की उम्मीद है । दवा कंपनीस्ट्राइडेस अर्कोलैब ने भी टामीफ्लू के जेनेरिक वर्जन पर काम करने का संकेत दिया है । रैनबैक्सी लेबोरेट्रीज और सिप्ला लिमिटेड ने कहा है कि वे स्वाइन फ्लू वैक्सीन की माँग की पूर्ति करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं । दुनिया में महामारी के रूप में फैली स्वाइन फ्लू पर काबू पाने के लिए वैज्ञानिक भी लगातार प्रयासरत हैं । स्वाइन फ्लू पर काबू पाने के लिए अमेरिका मे हुए एक शोध में पाया गया है कि अस्पतालों में कीटाणुनाशक के रूप में इस्तेमाल किया जानेवाला रसायन “वेंटोसिल” स्वाइन फ्लू के वायरस एच-१ एच-१ को भी नियंत्रित करने में सक्षम है । यह शोध एटीएस लैब, ईगन, और मिनेसोटा द्वारा किया गया है । शोध के नतीजों को १० मिनट के भीतर नियंत्रित कर लिया । सर्वविदित है कि वेंटोसिल एफएचसी का उपयोग अस्पतालों में साफ-सफाई के लिए किया जाता है इसका इस्तेमाल घरेलू कामकाज और खाद्य प्रसंस्करण में भी किया जा सकता है । बीमा जगत और स्वाइन फ्लू ःआई डीबीआई फोर्टिस लाइफ इंश्योरेंस के प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्याधिकारी वी नागेश्‍वर राव के अनुसार “एच १ एच१” विषाणु से होनेवाली मुत्यु के मामले में बीमा की राशि का भुगतान किया जाएगा भले ही पॉलिसी लेते समय इस बीमारी का उल्लेख किया गया हो या नहीं । कंपनी ने १७ बीमारियों की सूची बनाई हुई है जिसके लिए ग्राहक दावा कर सकते हैं और स्वाइन फ्लू इस सूची में शामिल नहीं है । मास्क का उपयोग कैसे करें?देश के कुछ शहरों में तेजी से फैल रहे स्वाइन फ्लू से बचने के लिए मास्क का अंधाधुंध इस्तेमाल परेशानी को और बढ़ा सकता है । मास्क के इस्तेमाल से जुड़ी यह राय चिकित्सा क्षेत्र के शीर्ष विशेषज्ञों की है । देश में स्वाइन फ्लू के बढ़ते मामलों से घबराकर एच१ एन१ के वायरस से बचने के लिए कई लोग इन दिनों भीड़-भाड वाले जगहों में धड़ल्ले से मास्क का इस्तेमाल कर रहे हैं । जानेमाने चिकित्सकों का दावा है कि मास्क के बिना सोचे समझे इस्तेमाल से स्वाइन फ्लू के वायरस का फैलाव और तेजी से होने की आशंका है । डॉक्टरों का कहना है कि मास्क को एक बार में चार घंटे से ज्यादा नहीं पहना जा सकता है । मास्क के गीला होने पर उसे हर चार घंटे पर बदलते रहना चाहिए । मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हॉस्पिटल के शिशु एवं संचारी रोग विशेषज्ञ तनु सिंघल के अनुसार “लोगों को हम मास्क पहनने की सलाह तभी देते हैं जब उनके घर पर कोई बीमार आदमी हो अथवा वह किसी काम से अस्पताल में आता जाता हो । मास्क का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए । लोगों को सड़क पर चलते समय और यात्रा के दौरान ट्रेन में इसे पहनने के दौरान सावधानी बरतनी चाहिए । इसके बार-बार इस्तेमाल से संक्रमण की ज्यादा आशंका रहती है । एक बार पहने जा चुके मास्क को उचित तरीके से नष्ट नहीं करने और इसे एक से अधिक बार पहनने से यह आशंका और बढ़ जाती है । सार्वजनिक स्थानों में मास्क पहनने वाले लोग जब अपने घरों और कार्यालयों में प्रवेश करते हैं तो वहाँ पर संक्रमण की आशंका और ज्यादा बढ़ जाती है । लोगों को मास्क का इस्तेमाल तभी करना चाहिए जब व्यक्‍ति को खाँसी या सर्दी हो । मास्क उतारने के बाद उसका सही तरीके से निपटान करना सबसे महत्वपूर्ण बात है । जसलोक अस्पताल एवं ब्रीच कैंडी अस्पताल के कंसल्टिंग फिजिशियन हेमंत ठक्‍कर ने बताया कि “ज्यादा कसे हुए मास्क पहनने के कारण थूक आने से मास्क भीगता जाता है । इसलिए ऐसे समय में इसके इस्तेमाल से परहेज करना चाहिए । यदि व्यक्‍ति यात्रा के समय इसे पहनना चाहे तो यह पक्‍का कर लेना चाहिए कि वह सूखा हो । यात्रा के दौरान चार घंटे से ज्यादा होने पर इसे बदल देना चाहिए ।” देश में स्वाइन फ्लू के बढ़ते मामलों के डर से लोगों के बीच मास्क की माँग बढ़ गई है । माँग में बढ़ोत्तरी के मद्‌देनजर सरकार ने इसके आयात करने की योजना बनाई है । डॉक्टरों को इस बात की चिंता सता रही है कि फ्लू के बारे में लोगों को कम जानकारी रहने से स्थिति और बिगड़ सकती है । व्यापार एवं त्यौहार भी प्रभावित ःरिटेल कंपनियाँ भी स्वाइन फ्लू से काँपती दिख रही हैं । पुणे में इस इस बीमारी की वजह की वजह से शॉपिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स के साथ इन कंपनियों के कारोबार में ७० फीसदी तक कमी आई है । स्वाइन फ्लू से मरनेवालों की संख्या १७ के पार पहुँच रही है । चूँकि सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र के पुणे से आ रहे हैं, इसलिए महाराष्ट्र सरकार इसे लेकर बेहद सीरीयस हो गई है । मुंबई के तमाम स्कूल और कॉलेज हफ्ते भर के लिए बंद करने का ऐलान कर दिया गया है । सिनेमा हॉल, थियेटर और मल्टीप्लेक्स भी बंद रहेंगे । जन्माष्टमी के मौके पर मनाए जाने वाले ‘दही हांडी के उत्सव को भी कई इलाकों में नहीं मनाने का फैसला किया गया । कंस रूपी स्वाइन फ्लू को मारने के थीम पर कृष्णाष्टमी ःइस बार जन्माष्टमी के मौके पर दिल्ली के कुछ मंदिर अपनी झाँकियों में स्वाइन फ्लू को कंस के तौर पर दिखाया गया जिसका वध कान्हा ने किया । वैसे जन्माष्टमी के दिन भीड़ उमड़ने के मद्‌देनजर कुछ मंदिर आयोजक अलर्ट हो गए थे । उन्होंने श्रद्धालुओं को मास्क देने की व्यवस्था भी की । मंदिर मार्ग स्थित बिड़ला मंदिर के प्रशासक विनोद कुमार मिश्रा के अनुसार स्वाइन फ्लू का खतरा बढ़ता जा रहा है । लोगों को इस बीमारी के बारे में जागरूक करने के लिए हम भगवान श्रीकृष्ण को गीता उपदेश, गोवर्धन लीला, माखन चोरी और द्रोपदी चीरहरण की झाँकियों के अलावा स्वाइन फ्लू की झाँकी में स्वाइन फ्लू को कंस का रूप दिया गया जिसमें भगवान श्रीकृष्ण उसका अंत करते दिखे । उन्होंने बताया कि जन्माष्टमी पर मंदिर में आनेवाले भक्‍तों की भीड़ को देखते हुए हमने यह भी फैसला किया था कि किसी भी एक जगह पर श्रद्धालुओं को इकट्ठा न होने दिया जाय । इसके लिए लोगों को जागरूक करने वाले पोस्टर भी मंदिर के अंदर चिपकाए गए ताकि लोग स्वाइन फ्लू से डरें नहीं बल्कि यह समझने की कोशिश करें कि वे इस बीमारी से कैसे बचे रह सकते हैं । पंजाबी बाग रिंग रोड, जन्माष्टमी पार्क में आयोजित श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव में भी स्वाईन फ्लू की झाँकी दिखाई गई । ट्रस्ट के अध्यक्ष रोशनलाल गोरखपुरिया कहते हैं कि “आयोजन में लाखों की भीड़ एक साथ उमड़ती है । ऐसे में सभी को मास्क तो नहीं दिए जा सकते पर इतना जरूर है कि स्वाइन फ्लू की झाँकी के जरिए लोगों को जागरूक किया गया । झाँकी के माध्यम से भक्‍तों को बताया गया कि जिस तरह कंस का वध भगवान श्रीकृष्ण ने किया था उसी तरह स्वाइन फ्लू का अंत भी होगा । यमुनापार पुश्ता रोड, शास्त्री नगर स्थित श्री राधाकुंज बिहारी मंदिर में भी आनेवाले श्रद्धालुओं को मास्क देने की व्यवस्था की गई ताकि मंदिर में स्वाइन फ्लू से प्रभावित कोई श्रद्धालु आए तो उससे किसी अन्य व्यक्‍ति में इन्फेक्शन न फैल पाए । आयोजकों के अनुसार उन्होंने इस अवसर पर कान्हा को भी मास्क लगा दिया । स्वाइन फ्लू ः इतिहास, कारण एवं निदान ग्लोबल हाइजीन काउंसिल के भारत में प्रतिनिधि डॉक्टर नरेन्द्र सैनी ने कहा कि एच१ एच१ वायरस नब्बे साल बाद दुनिया में फिर लौट आया है । वर्ष १९१८ में स्पेनिश स्वाइन फ्लू के चलते दुनिया भर में करोड़ों लोंगो की मौत हो गई थी । अकेले भारत में इस बीमारी से ७० लाख लोगों को जान गँवानी पड़ी थी । यह विश्‍व के इतिहास में अब तक हुई सबसे बड़ी महामारी है । एक सदी बाद लौटकर आए स्वाइन फ्लू में एक नया वायरस शामिल हो गया है । जिसके चलते इसका नया नाम एच १ एन १ (नॉवेल) रखा गया है । इस बीमारी की सटीक दवाई नहीं खोजी जा सकती है । उन्होंने बताया कि स्वाइन फ्लू से ग्रसित सूअरों के लार और साँसों के जरिए यह वायरस अन्य जानवरों में फैलता जाता है । जानवरों के प्रति अत्यधिक लगाव रखनेवाले कई लोग बीमार जानवर के प्रति सहानुभूति जताते हुए अनजाने में उन्हें किस कर लेते हैं । ऐसा करने से वायरस लार या साँस के जरिए इंसान के शरीर में घुस जाता है । डॉक्टर सैनी के अनुसार फ्लू का शिकार बनने के बाद रोगी की आँखों और नाक से पानी बहने लगता है । शरीर में दर्द, खाँसी-जुकाम और बुखार की शिकायत होने लगती है । बिना देरी किए नजदीकी जिला अस्पताल में बीमारी की टेस्टिंग जरूर करवानी चाहिए । स्वाइन फ्लू खतरनाक जरूर है, लाइलाज नहीं ।
( गोपाल प्रसाद)

राष्ट्रभाषा की महत्ता


राष्ट्रभाषा के तिरस्कार का परिणाम क्या हो सकता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारा पड़ोसी देश नेपाल है । नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने हिंदी में उपराष्ट्रपति पद की शपथ लेनेवाले परमानंद झा से कहा है कि वह एक हफ्ते के अंदर फिर से नेपाली भाषा में पद और गोपनीयता की शपथ ले अन्यथा उन्हें पद से हाथ धोना पड़ेगा । सर्वविदित है कि ६५ वर्षीय झा ने पिछले वर्ष हिंदी में उपराष्ट्रपति पद की शपथ लेकर खड़ा कर दिया था । न्यायालय ने प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल की गठबंधन सरकार को भी उपराष्ट्रपति के लिए नए सिरे से शपथग्रहण की व्यवस्था करने का निर्देश दिया है । तराई इलाके से ताल्लुक रखनेवाले झा ने जुलाई २००८ में उपराष्ट्रपति पद की शपथ ली थी । हमारे भारत में राष्ट्रभाषा के प्रति दोयम दर्जा रखा जा रहा है जो उचित नहीं । हमें नेपाल की घटना से सीख लेनी चाहिए । केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने सभी विद्यालयों में हिंदी पढ़ाए जाने पर जोर दियाहै । उन्होंने कहा कि राष्ट्रभाषा को धाराप्रवाह ढंग से बोलने से देशभर के छात्रों को आपस में जोड़ने में मदद मिलेगी और एक बार भारत के ज्ञान सृजन करनेवाले देश के रूप में उभरने के बाद यह लोकभाषा बन जाएगी । सिबबल ने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड परिषद की बैठक में कहा कि हमारी शिक्षा प्रणाली में एक जैसी व्यवस्था (माट्‌स) को बदलकर हाई ऑर्डर थिंकिंग स्किल्स (हाट्‌स) के रूप में परिवर्तित किए जाने की जरूरत है । अभी हम ज्ञान प्राप्त करनेवाले देश हैं लेकिन भविष्य में हमें ज्ञान का सृजन करनेवाला देश बनना चाहिए । उन्होंने कहा कि हिंदी को अन्य क्षेत्रीय भाषा के साथ पढाया जाना चाहिए । कुछ छात्र अपनी मातृभाषा में काफी अच्छे होते हैं । हिंदी के समर्थन में सिब्बल के इस बयान का स्वागत किया जाना चाहिए । आज तकनीक का झुकाव तेजी से हिंदी की तरफ बढा है । निश्‍चित रूप से हिंदी को इससे बढावा मिलेगा । हिंदी साहित्यकारों, पत्रकारों, ब्लॉगरों, विद्यार्थियों एवं शिक्षकों को हिंदी की प्रगति के लिए इंटरनेट का सहारा लेना चाहिए । बिना कंप्यूटर शिक्षा एवं ज्ञान के हम हिंदी की प्रगति नहीं कर सकते । सभी राष्ट्रवादी लोगों का कर्त्तव्य है कि वे राष्ट्रभाषा के विकास में अपना सार्थक योगदान दें । प्रिंट मीडीया में भी धीरे-धीरे हिंदी के ऑनलाईन संस्करण प्रकाशित होने शुरू हो गए हैं । हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, नई दुनियाँ नवभारत टाईम्स राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका आदि के ऑनलाईन अंक धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहे हैं । पत्रिकाओं में सरस सलिल, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी सरिता, इंडिया टुडे, आउटबुक आदि प्रिंट के साथ-साथ ऑनलाईन संस्करण को भी बढावा दे रहे हैं । बी.बी.सी. ने भी हिंदी संस्करण प्रकाशित कर सराहनीय कार्य किया है । प्रसिद्ध सर्च इंजन गूगल ने हिंदी में भी अपनी सेवा उअपल्ब्ध करा दी है । नर,अदा क्रिएटिव प्रा. लि. द्वारा प्रकाशित हिंदी ऑनलाईन पत्रिका “समय दर्पण” ने वैचारिक क्रांति की ओर अग्रसर होने को कारगर कर दिखाया है । समय दर्पण ने हिंदी पाठकों लेखकों एवं समर्थकों के लिए वृहद प्लेटफॉर्म का निर्माण कर हिंदी सेवा के प्रति संकल्पित है । नई तकनीक के आविष्कार यूनीकोड के माध्यम से आप कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अंग्रेजी में टाइप करें और उसका प्रिंट हिंदी में निकलेगा इससे हिंदी में प्रकाशन काफी सुविधाजनक हो गया है । जैसे-जैसे तकनीक की वृद्धि हो रही है, जागरूकता बढ़ रही है, वैसे वैसे हिंदी भी छलांगे लगा रही है । हिंदी चिंतकों व हिंदी समर्थकों ने सोशल नेटवर्किंग साइटों पर अनेक कम्युनिटी बनाकर लामबंदी का काम शुरू कर दिया है । अंग्रेजी के आभामंडल को कम कर हिंदी को व्यापकता दिलाने के प्रयास की दशा और दिशा पर सार्थक बहस शुरू हो चली है जबकि हिंदी कोयले के आग की तरह/ बिना हिंदी के हम जन-जन से इस देश में नहीं जुड़ सकते हैं । भारत के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने पिछले दिनों कहा था कि “चूँकि मुझे हिंदी नहीं आती, इसलिए मैं प्रधानमंत्री नहीं बन सकता । ” उनका यह बयान राष्ट्रभाषा के महत्व को दर्शाता है । उपराज्यपाल तेजेन्द्र खन्‍ना ने हिंदी भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में पाँच व्यंग्यकारों को पुरस्कार प्रदान किए । हिंदी दशोत्तर ओम द्विवेदी, धनश्याम कुमार देवांश और मिथिलेश कुमार को पुरस्कृत किया गया । साहित्यिक पत्रिका “साहित्य अमृत” की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में उपराज्यपाल ने कहा कि व्यंग्य लेखक के माध्यम से समाज के यथार्थ को उजागर करते हैं और वह खुद भी व्यंग्य को पढना पसंद करते हैं । व्यंग्य के माध्यम से आनेवाले समय में हिन्दी की लोकप्रियता में उत्तरोत्तर वृद्धि ही होगी। गैर हिंदी भाषियों में हिंदी की लोकप्रियता बढाने हेतु केन्द्रीय हिंदी निदेशालय महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है । साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी ने सभी राज्यों में हिंदी कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना शुरू किया है । हिंदी के प्रकाशक लाभ कमा रहे हैं । पुस्तक विक्रेताओं के अनुसार हिंदी का क्रेज इन दिनों काफी बढ रहा है । विश्‍व स्तर की किताबों के हिंदी अनुवाद धूम मचा रहे हैं । अमर्त्य सेन, अरविंद अडिग, नंदन नीलेकणी, शेक्सपीयर, हैरी पॉटर के हिंदी अनुवाद की बिक्री सर्वाधिखै । साहित्य अकादमी की योजना में अन्य भाषाओं के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं पुरस्कार पुस्तकों के हिंदी अनुवाद उपलब्ध कराना भी है । दिल्ली में हिंदी, उर्दू, पंजाबी, सिंधी, के अलावे मैथिली-भोजपुरी अकादमी की भी स्थापना हुई है । हिंदी को सशक्‍त बनाने में मातृभाषाओं का भी कम योगदान नहीं है । अलग-अलग मातृभाषाओं के रचनाकार अप्रत्यक्ष रूप से अनुवाद के माध्यम द्वारा राष्ट्र को अपनी सोंच व सृजन का लाभ दे पा रहे हैं । आज शिक्षकों की भी जिम्मेवारी है कि हिंदी में अपने विद्यार्थियों को निपुण बनाएँ क्योंकि अंग्रेजियत के लबादे ओढकर केवल कोरम पूरा करने से हिंदी और हिंदुस्तान का भला नहीं होनेवाला है । हिंदीभाषियों की सुविधा के लिए ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी ने नई पहल शुरू की है । अथॉरिटी की वेबसाइट को अब अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी ( www.greaternoidaauthority.in) में भी देखा जा सकता है । हालॉकि अभी इसे प्रायोगिक रूप में शुरू किया गयाहै । अधिकारियों का कहना है कि हिंदी पढ़ने-लिखने वाला गाँव का किसान भी ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी की हिंदी वेबसाइट पर लॉग ऑन कर जानकारी ले सकेगा । इस पर शहर के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी गई हैं । अभी तक यह जानकारी अंग्रेजी में ही दी जाती है । हिंदीवाली वेबसाईट खोलने के लिए अंग्रेजी भाषावाली वेबसाइट के उपरी होने पर लेफ्ट साइड में लिंक दिया गया है । इस पर क्लिक करते ही हिंदी में वेबसाईट खुल जाएगी । अथॉरिटी अफसरों के अनुसार प्रयोग सफल होने पर इसमें और भी जानकारियाँ डाउनलोड एवं समय-समय पर इसे अपडेट किया जाएगा । अपनी शिकायतें दर्ज कराने के लिए अब गाँवों के किसानों को अथॉरिटी की बेवसाइट से ही सूचनाएँ ले सकेंगे और पनी शिकायतें या सुझाव भी दे सकेंगे । इस प्रक्रिया में उन्हें भाषा की दिक्‍कत बिल्कुल नहीं होगी क्योंकि सभी जानकारी उन्हें अब हिंदी में भी मिलेगी । उपरोक्‍त उदाहरण का प्रयोग आज सभी विभागों की वेबसाइटों पर की जाने की आवश्यकता है । हिंदी प्रेमियों का कर्तव्य है कि वे हिंदी भाषा को लोकप्रिय एवं सार्थक बनाकर जन-जन से जोड़ने हेतु माँग मजबूती से रखें तभी सच्चे अर्थ में राष्ट्रभाषा को सम्मान मिल पाएगा । केवल हिंदी दिवस के अवसर पर समारोह करने से हिंदी का भला नहीं होनेवाला । “मुमकिन है सफर हो आसाँ अब साथ भी चलकर देखें कुछ तुम भी बदलकर देखो,कुछ हम भी बदलकर देखें । ”
(गोपाल प्रसाद)

चीन और पाकिस्तान को खटक रहा है भारत

भारत और चीन का सीमा विवाद ः चीन हमेशा से भारत के प्रति दुर्भावना रखनेवाला देश है । १९६२ युद्ध के बाद से भारत-चीन एक दूसरे पर हिमालयी क्षेत्र की ३५०० किमी। सीमाओं के अतिक्रमण का आरोप लगाते रहे हैं । आजादी से पहले ब्रिटिश शासकों ने हिमालय के इस दुर्गम क्षेत्र में सीमांकन के बारे में सोचा लेकिन दोनों ही पक्ष संयुक्‍त सीमाओं के बारे में एकमत नहीं हुए । १९५८ में चीन ने नक्शा जारी कर अक्साई चीन के पठार को अपना दर्शाया । भारत ने विरोध प्रकट करते हुए आरोप लगाया कि चीन ने अक्साई चीन के पठार के ३८ हजार किमी। स्क्वायर क्षेत्र पर कब्जा जमा लिया है । युद्ध विराम से पहले चीन ने अक्साई चीन और अरूणाचल प्रदेश में भारतीय सैन्य ठिकाने कब्जे में ले लिए । उसने युद्ध पूर्व की स्थिति तथा दोनों देशों को बाँटनेवाली मैकमोहन लाइन को मानने से इनकार कर दिया । युद्ध विराम के बाद की स्थिति को ही वास्तविक नियंत्रण रेखा के नाम से जाना जाता है । भारत का आरोप है कि १९६३ में चीन ने अवैध रूप से उत्तरी कश्मीर की ५१८० किलोमीटर क्षेत्र पाकिस्तान को सौंप दी । चीन का दावा है कि भारत ने अरूणाचल प्रदेश की ९० हजार स्क्वायर किलोमीटर क्षेत्र पर पर अवैध रूप से कब्जा जमा रखा है । दो दशकों की बातचीत के बाद भारत और चीन ने सन्‌ २००० में सीमाओं को रेखांकित करनेवाले नक्शों का आदान-प्रदान किया । सन्‌ २००३ में विशेष दल गठित किए गए । २००५ में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी प्रमुख वेन जिआबाओ ने विवादों को हल करने के संबंध में एक सहमति पत्र पर दस्तखत किए । इसके बाद चीन ने सिक्‍किम पर अपने दावे को छोड़ दिया । भारत की सतर्कता आवश्यक ःपूर्वोत्तर के सीमांत क्षेत्र की जलविद्युत परियोजनाओं में सहभागिता को लेकर चीन का उत्साह भारत सरकार को खटकने लगा । इसलिए चीनी कंपनियों के प्रस्तावों को रोकने हेतु सरकार ने नियमों की श्रृंखला बना दी है । नए नियमों के अनुसार अब संवेदनशील इलाकों में विदेशी सहयोग से बननेवाली किसी भी विद्युत परियोजना को सरकार से सुरक्षा सहमति लेना होगा । मंत्रीमंडल की सुरक्षा समिति (सीसीएस) की बैठक में इन नियमों पर मुहर लग गई । सरकार ने स्पष्ट किया है कि जम्मू कश्मीर, सिक्‍किम, सहित पूर्वोत्तर राज्यों, पाकिस्तान के साथ लगने वाली नियंत्रण रेखा और तिब्बत के साथ लगनेवाली वास्तविक नियंत्रण रेखा तथा अंतरराष्ट्रीय सीमा में भारतीय जमीन पर ५० किमी। के हवाई क्षेत्र में बनने वाली कोई भी बिजली परियोजना इन नए नियमों के अधीन में होगी, जिसके तहत केवल विदेशों से आने वाले इंजीनियर व परियोजना विशेषज्ञों के वीजा के नियम कड़े होंगे बल्कि विदेशी उपकरणों के आयात पर भी सरकार की नजर होगी । परियोजना पर काम कर रहे विदेशियों की आवाजाही व भारत में रुकने की अवधि के नियम भी काफी कड़े होंगे । इस मामले में सीसीएस के लिए तैयार किये गए नोट के दस्तावेज के अनुसार सरकार की नींद जब खुली तब तक हिमाचल प्रदेश में अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगे सीमावर्ती क्षेत्र की कई जलविद्युत परियोजनाएँ विदेशी कंपनियों को दी जा चुकी थीं । हिमाचल प्रदेश की पार्वती स्टेज-तीन परियोजना और पश्‍चिम बंगाल की तीस्ता लो डैम परियोजना-चार जैसी बिजली परियोजनाओं के लिए आइएमपीएसए एशिया लि। और डोंगफांग इलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन जैसी कंपनियों के निवेश प्रस्तावों को भी फिलहाल रोक लगा दी गई है । सचिवोंकी समिति की अनुशंसा पर एनएचपीसी ने बाद में इन परियोजनाओं का काम सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी झेल को सौंपा । नियमों की श्रृंखला खड़ी करने से पहले विदेश, गृह, रक्षा, ऊर्जा मंत्रालयों और आईबी तथा रॉ जैसी खुफिया एजेंसियों के बीच काफी लंबी बहस चली । इस बात पर प्रायः एकमतता थी कि सीमावर्ती क्षेत्र की परियोजनाओं में चीनी कंपनियों की मौजूदगी सुरक्षा मद्‌देनजर अच्छी नहीं होगी । इस संदर्भ में विदेश मंत्रालय का इस बात पर जोर था कि केवल चीनी कंपनियों को अलग-थलग कर नियमों को बनाना दोनों देशों के रिश्तों को प्रभावित कर सकता है । गृह मंत्रालय और आईबी व रॉ ने इस बात पर कर सकता है । गृह मंत्रालय और आईबी व रॉ ने इस बात पर सख्त ऐतराज जताया है कि सीमावर्त्ती इलाकों में चीनी कंपनियों की भागीदारी भारत की सुरक्षा के मद्‌देनजर परेशानी खड़ा कर सकती है । आश्‍चर्य का विषय यह है कि अब तक विदेशी कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट देने से पहले सुरक्षा एजेंसियों की क्लीन चिट लेने की बाध्यता केवल केन्द्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों के लिए ही था, जिसके कारण हिमालय प्रदेश की कई बिजली परियोजनाओं में विदेशी कंपनियों की भागीदारी है । मंत्रीमंडलीय समिति के दस्तावेज भी यह मानते हैं कि चीनी कंपनियों के प्रस्तावों को एकदम खारिज करना भी संभव नहीं है । मूल्य के मामले में बेहद प्रतिस्पर्धी बोली लगानेवाली चीनी कंपनियों के सहयोग के बिना सबसे बड़ा खतरा बिजली परियोजनाओं की कीमत बढ़ने का है परन्तु लागत बढ़ने की कीमत पर सरकार के लिए सुरक्षा को लेकर जोखिम लेना संभव नहीं । इस आलोक में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हमें विद्युत परियोजनाओं के लिए बड़े पूँजी निवेशकों को ढूँढने का विकल्प तथा अभेद्य सुरक्षा दुर्ग को तैयारी करनी होगी । चीन की आंतरिक मंशा उजागर ःऊपर से चिकनी चुपड़ी बातें करनेवाले चीन दोस्ती का दिखावा करता है परन्तु वास्तव में वह अब भी भारत की बर्बादी के बारे में ही सोंचता है । चीनी रणनीतिकार द्वारा हाल ही में लिखे गए लेख के अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान जैसे अपने मित्र देशों की सोची-समझी चाल है और वह इस लेख से अनभिज्ञ नहीं हो सकती । इस लेख का प्रकाशन भारत चीन सीमा विवाद पर दोनों देशों के बीच १३वें दौर की वार्ता की समाप्ति के समय हुआ है, जिसमें चीन ने आपसी रणनीतिक विश्‍वास और साझेदारी को नए स्तर तक बढ़ाने पर जोर दिया है । चीनी इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज (सीआईआईएसएस) की वेबसाइट पर प्रकाशित लेख में कहा गया है कि यदि चीन कदम उठाए तो तथाकथित महान भारतीय संघ बिखर सकता है । लेखक झान लुई का तर्क है कि तथाकथित भारत राष्ट्र इतिहास में था, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एकता केवल हिंदू धर्म पर निर्भर है । लेख में यह भी कहा गया है कि भारत को केवल हिंदू धर्म धार्मिक राष्ट्र की संज्ञा दी जा सकती है । भारत के जातीय विभाजन को ध्यान में रखकर चीन को स्वयं के हित में और पूरे एशिया की प्रगति के लिए असमी, तमिल और कश्मीरी जैसी विभिन्‍न राष्ट्रीयताओं के साथ एकजुट होना चाहिए और उनके स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना में सहयोग देना चाहिए । लेख में विशेष रूप से भारत से असम की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए चीन को युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) का सहयोग करने को कहा गया है । ऐसा लगता है तिब्बत की स्वायत्तता की माँग करनेवाले धार्मिक गुरू दलाई लामा के आंदोलन को भारत का मौन समर्थन मिलने के प्रतिक्रिया स्वरूप चीन यह राग अलाप रहा है । हमें चीन को हल्के में नहीं लेकर उससे निपटने की कारगर रणनीति बनाने की दिशा में तैयारी करनी चाहिए । चीन के साथ-साथ पाकिस्तान को भी भारत की समृद्धि और विकास खटकती ही रहती है । वह नित्य नए बहाने गढ़कर विवादों को सुलझाने के बजाय उलझाने में अपनी ऊर्जा व्यय करता रहता है । पाकिस्तान अपनी स्थिति और भविष्य पर ध्यान देने के बजाय उल्टा ही सोंचता रहता है । पाकिस्तान पर है भारत का ३०० करोड़ का कर्ज ःपाकिस्तान पर अभी भी भारत का बँटवारे के पहले के ३०० करोड़ रूपए का कर्ज है । यह कर्ज तब से साल दर साल जस का तस बना हुआ है और सरकारी बजट में इसे देनदारी विषय के तहत दर्शाया जाता है । बजट में इसका जिक्र पाकिस्तान पर बँटवारे के पूर्व के कर्ज की हिस्सेदारी की राशि के रूप में किया गया है और राशि ३०० करोड़ दिखायी जाती है । पाकिस्तान ने भले ही कर्ज की यह रकम अब तक न चुकायी हो लेकिन भारत ने बँटवारे के पूर्व के अपने ५० करोड़ रूपए के ऋण का भुगतान १९४७ में ही कर दिया था । आजाद भारत में पहली बार १९५०-५१ के बजट में इस ३०० करोड़ रूपए को देनदारी के रूप में पाकिस्तान पर दिखाया गया था और यह कर्ज तभी से जस का तस बना हुआ है । भारत ने इस रकम पर अपने खेतों में ब्याज की दर नहीं जोड़ी है । हमारे नेताओं ने इस कर्ज के माँग अभी तक पाकिस्तान से क्यों नहीं की है । क्या हमारी औकात यही है कि समझौता के बाद भी अपने बकाए रकम की माँग नहीं कर सकते ?बलूचिस्तान है विवाद की जड़ ःबलूची मूल रूप से साउथ एशिया में बिखरे कुर्द हैं । इनकी आबादी ईरान, तुर्की, इराक में फैली है जबकि ईरान, पाक और अफगानिस्तान में है । बलूचिस्तान में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक गैस के स्त्रोत हैं । क्षेत्रफल के हिसाब से यह पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रान्त है । यह कुल क्षेत्रफल का ४८ प्रतिशत है, परन्तु यहाँ पूरे देश की केवल ५ प्रतिशत जनसंख्या ही बसती है । पूरा इलाका बेहद पिछड़ा है और आज भी यहाँ स्थानीय कबाइली सरदारों का ही हुक्म चलता है । ब्रिटिशों के समय कालात के खान बलूचिस्तान के शासक थे । १९४७ में उन्होंने अपनी रिसायत को पाकिस्तान में मिलाने के बजाय आजाद रहना चाहा परन्तु मार्च १९४८ में पाकिस्तानी फौजों ने बलूचिस्तान पर जबरन कब्जा लिया । ५० दशक में कालात के राजपरिवार से जुड़े लोहों ने पीपल्स पार्टी शुरू की, जो नए बलूचे राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती थी । अब यहाँ से बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी से जुड़े आतंकवादियों को मदद पहुँचाई जा रही है । विदेशी मामलों के जानकारों के अनुसार बलूचिस्तान शब्द जोड़ने से भारत की स्थिति कमजोर हुई । सरकारी पक्ष का कहना है कि पाक इस पर नैतिक रूप से इतना मजबूर था कि हमें साझा बयान में इसका जिक्र करना पड़ा । बलूचिस्तान का उल्लेख एक सामजिक चूक ः भागवतराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने शर्म-अल शेख में भारत और पाकिस्तान के संयुक्‍त बयान में बलूचिस्तान के उल्लेख को एक बड़ी गलती और सामरिक चूक बताते हुए कहा कि यह प्रधानमंत्री के रूख का संकेत देता है । भागवत ने कहा, अभी तक देश में कई सरकारों ने शासन किया । लेकिन पहली बार, इस सरकार ने बलूचिस्तान का उल्लेख किया । यह एक बड़ी गलती थी । क्या सिंह कमजोर हैं, उन्होंने कहा, सामाजिक दृष्टि से, भारत बचाव मुद्रा में चला गया है । आतंकवाद और पाकिस्तान के साथ भावी बातचीत का जिक्र करते हुए भागवत ने कहा कि गोली से बोली नहीं हो सकती पहले गोली बंद करो फिर बोली की बात करो । भारत और नेपाल मित्रता संधि पर समीक्षानेपाल व भारत ने ५९ वर्ष पुरानी शांति व मित्रता की द्विपक्षीय संधि पर समीक्षा करने को तैयार हो गए हैं । यह संधि नेपाल में काफी विवाद का केंद्र रही है । दोनों देशों के विदेश सचिव १९५० में बनाई गई इस संधि के अलावा अन्य द्विपक्षीय समझौतों पर विचार-विमर्श करेंगे । नेपाल के प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल की पांच दिवसीय भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच जारी संयुक्‍त घोषणापत्र मेंइसकी जानकारी दी गई है । १९५० की संधि के तहत नेपाल के रक्षा व सुरक्षा मामलों में भारत का काफी प्रभाव है । संधि दोनों देशों के बीच बेहतर संबंधों की प्रतीक मानी जाती है । खुली सीमा की वकालत करने वाली यह संधि दोनों देशों के नागरिकों को देशों में बराबर का अधिकार प्रदान करती है । समीक्षा पर तैयार होने के अलावा नेपाल ने भारत को यह भी विश्‍वास दिलाया है कि वह अपनी जमीन का उपयोग भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा । भारत ने भी नेपाल को इसी तरह का आश्‍वासन दिया है । द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग को व्यापक रूप देने और अनधिकृत कारोबार पर अंकुश लगाने को लेकर दोनों देश नए व्यापार समझौते पर सहमत हो गए । दोनों देशों के बीच व्यापार समझौते पर पिछले दो वर्षों से बातचीत चल रही थी । इसके तहत भारत, नेपाल निर्मित सामान को शुल्क मुक्‍त भारतीय बाजार में आने की अनुमति देता है । एक अधिकारी ने कहा कि अवैध कारोबार पर अंकुश लगाने वाले इस व्यापार समझौते पर औपचारिक रूप से बाद में हस्ताक्षर किए जाएंगे । ( गोपाल प्रसाद)