Friday, June 26, 2009

यह दिल्ली शहर है जनाब !

दिल्ली शहर का मिजाज ही भागदौड़ वाला है । इसलिए यहाँ के रहने वाले अधिकांश लोग ‘पहले अपना काम निपटाओ’ के अंदाज में रहते हैं । निपटाने के अंदाज का यह आलम है कि कई बार सुकून और शांति के मौकों को भी वह उसी अंदाज में निकलने देते हैं । पर्व-त्यौहार के मौके पर जब मंदिरों की तरफ भारी भीड़ उमड़ती है तो दर्शनार्थियों की लंबी कतार लग जाती है । ऐसे अवसर पर शहर के अनेक लोगों को बड़े शान से यह कहते सुना जा सकता है कि फलाँ मंदिर में अपना जुगाड़ है और वे बिना पंक्‍ति के दर्शन करके लौट आऐंगे । अन्य मंदिरों में भी पंक्‍तिबद्ध श्रद्धालुओं के बीच कुछ लोग आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ कर किसी तरह मंदिर के दरवाजे तक मत्था टेंकने हेतु पहुँचने की जुगत में रहते हैं । पता नहीं मत्था टेंकते वक्‍त भी उनका मन एकाग्रचित्त रहता है या फिर दूसरे जुगाड़ में भ्रमित हो जाता है । कवि एवं नेचुरोपैथी डॉक्टर पृथ्वी सिंह केदारखंडी कहते हैं कि - “असल में व्रत, त्यौहार मनुष्य को सात्विकता का सौम्यता का, अध्यात्म का मतलब बताने के लिए है । व्रत और उपवास के कई फायदे होते हैं । नई फसल और बदलते मौसम के कारण आदमी सात्विक जीवन जीते हुए ध्यान रखे तो निश्‍चित रूप से उसे कई मानसिक और शारीरिक लाभ मिलेंगे । यदि उसे मानसिक शांति मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना करने से मिलती है तो वह वहाँ पहुँचे लेकिन व्रत या आस्था का यह मतलब तो कम से कम सबको पता होना चाहिए, कि इस दौरान आपसी बैरभाव न हो, धक्‍का-मुक्‍की की स्थिति हो तो कम से कम कुछ पल के लिए दूसरों को पहले निकलने दे या कम से कम पंक्‍तिबद्ध होकर अपनी बारी का तो इंतजार कर लें । भागदौड़ वाली इस जीवनशैली और तेज रफ्तार शहर में अगर हम संयमित जीवन जी लें तो निश्‍चित रूप से सुकून मिलेगा और सही मायने में उपासना भी हो जायेगी । ”
सार्थक जन मंच के संयोजक रमेश सिंह राघव कहते हैं कि -
अपना शहर सहज नहीं रहा, ना ही उसकी सांस सहज रह गयी है । धूल धक्‍कड़ जाम और दिन भर की थकाऊ दिनचर्या । आम आदमी के लिए शहर की गति और इसके रास्ते ऐसे भूल भुलैया बन गए जिसमें उसकी पूरी उम्र खप जाती है । अंधेरी जगहों से रोशनी की तलाश में शहर आए लोगों के शहरों में ‘रोशनी का अंधेरा’ दहशत में डाल रहा है । पूरा जोर लगाने के बाद भी अंत में वे अपने आपको लक्ष्य से दूर हारा और भटका हुआ पाता है । जिस जीवटता के साथ शहर में रच-बसने का प्रयास करता है, उसी अंदाज में अंततः वह मर खप जाता है । इस स्थिति के कारण लोग एक सतत खीझ और तनाव में रहते हैं । उन्हें पता नहीं होता कि वे आखिर किस बात से खफा हैं और अपना गुस्सा आखिर निकालें तो आखिर किस पर निकालें । भीतर दबा यह गुस्सा कहीं कोई दरार मिला नहीं कि तूफानी गति से बाहर निकल कर लोगों को बेकाबू कर देता है । जरा जरा सी बातों में लोगों का धीरज चूक रहा है । बेहद मामूली चीजों पर भड़क कर लोग जान देने व लेने लगे हैं । चाहे रोटी देने में होटल के नौकर ने देरी कर दी हो या कोई अपने मित्र के चार हजार की रकम चुकाने में असमर्थ है और अपने मित्र के तानों का सामना नहीं करना चाहता है । तानों से बचने के लिए वह शख्स अपने मित्र की जान लेने से भी संकोच नही करता । आज दिल्लीवासियों को इस गंभीर विषय पर चिंतन करने की आवश्यकता है ।

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