Saturday, November 28, 2009

जिनका उद्देश्य है ग्राहकों को आकर्षित करना

मेले में किसी भी उत्पाद के प्रचार के लिए कंपनी विभिन्‍न हथकंडे अपनाती है ।ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए कंपनियाँ दर्शकों के भीड़ जुटाकर अपने उत्पाद हेतु प्रचार-प्रसार करना ज्यादा फायदेमंद मानती है । इसके तहत रोड शो, नुक्‍कड़ नाटक, ऑस्केस्ट्रा, लकी ड्रा, लॉटरी, पजल गेम, क्विज आदि तरीके आते हैं । ग्राहकों के मन में उत्पाद के प्रति संभावना, माँग, नकारात्मक एवं सकारात्मक पहलुओं को जानना समझना अति आवश्यक होता है । इसके लिए हर बड़ी कंपनी सर्वेक्षण एजेंसी का सहारा लेती है । देश के विभिन्‍न क्षेत्रों से ग्राहकों की मानसिकता का अध्ययन कुछ पन्‍नों में विभिन्‍न प्रश्नों को पूछकर किया जाता है । सी-४, नेल्सन, मार्ग, क्रेड आदि सर्वेक्षण कंपनियाँ उत्पाद निर्माताओं, राजनैतिक दलों, गैर सरकारी/ सरकारी संस्थाओं व व्यक्‍ति विशेष के संदर्भ में व्यापक रूप से आँकड़ा इकट्‌ठा कर पूरी योजनाओं को मूर्त्त रूप देते हैं ।
इसी के अगली कड़ी के रूप में उत्पाद निर्माता अपने उत्पादों के लांचिंग हेतु ज्यादा से ज्यादा भी जुटाने हेतु विभिन्‍न कलाकारों को भी हायर करती है । इस असायनमेंट के तहत उन कलाकारों की जिम्मेवारी भीड़ का भरपूर मनोरंजन करते हुए अपने उत्पादों का प्रचार करना तथा बिक्री बढ़ाना होता है । इवेंट से जुड़े कलाकरों में कई पहलुओं का होना आवश्यक है । पॉप गायकों, सफल गजल गायकों और कवियों का इस्तेमाल आज धड़ल्ले से दर्शकों के भरपूर मनोरंजन एवं भीड़ जुटाने में किया जा रहा है ।
दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित आईआईटीएफ में विभिन्‍न उत्पाद निर्माता ऐसे बहुमुखी कलाकारों का सहारा अपने संभावित ग्राहकों हेतु ले रही है । एक ऐसे ही प्रतिभावान एवं ओजस्वी कलाकार का नाम है- अतुल जिसका इस्तेमाल लोहिया ग्रुप ने अपने ईबाईक के प्रमोशन के लिए किया है । बहुआयामी प्रतिभा के घनी अतुल में बहुत सारी खूबियाँ हैं । ये बेस्ट एंकरिंग पॉप गायन, सवाल-जवाब और क्विज के मास्टर भी हैं । इनकी सबसे बड़ी खासियत युवाओं की धड़कनों को बखूबी परखना है । पूरे प्रगति मैदान में सबसे अधिक भीड़ जुटाने का कार्य इन्होंने किया है । दर्शकों से सवाल पूछना उन्हें अंदर तक झकझोरना, उनसे हँसी-मजाक करना उनका ज्ञानवर्द्धन करना और इस सबसे महत्वपूर्ण भीड़ के दिमाग में अपने कंपनी के ब्रांड को फिक्स कर देना इनके दाहिने हाथ का खेल है । उपर से तो यह काफी आसान लगता है परन्तु यह इतना आसान भी नहीं है । दर्शकों की मानसिकता का अध्ययन करना, कंपनी की माँग एवं संतृष्टि में संतुलन स्थापित करना ही मूल उदेश्य है इनका ।
पन्द्रह दिन के मेले में भीड़ जुटाने के लिए ऐसे कलाकारों को कंपनी से ५० हजार से १० लाख रू. तक के ऑफर मिलते हैं । खासकर मोबाइल, हर्बल उत्पाद, बाईक/ऑटो, कार, टेक्सटाईल्स, कंपनियाँ फैशन शो एवं अपने स्टॉल पर उत्तेजक वस्त्र में खूबसूरत कन्याओं को हायर करती है । जिसके जितने कम कपड़े हैं उसकी उतनी ही ज्यादा कीमत हैं । दूरी का एकमात्र उद्देश्य है आकर्षण पैदा करना, दर्शकों का मनोरंजन प्रोडक्‍ट का दिल में छा जाना और इसके माध्यम से बिक्री बढ़ाना ।
अच्छे कलाकारों, मॉडलों ने तो अपने पी.आर.ओ भी नियुक्‍त कर रखे हैं । फिल्म जगत की हस्तियाँ अब मात्र फिल्म/टीवी में शूटिंग तक ही नहीं बल्कि ऐसे उत्पादों के शोरूम एवं कार्यक्रम में उद्‌घाटन कर्त्ता के रूप में धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं ।
कई व्यवसायी नामी कलाकारों/हस्तियों के साथ डिनर/लंच तथा सेमिनार/गोष्ठी, प्रदर्शनी/एक्जीविशन के माध्यम से दर्शकों/ग्राहकों को जुटाने के सशक्‍त अभियान में अपनी अहम भूमिका निभा रहे है । वैश्‍वीकरण के इस युग में उद्योग जगत के इस नए ट्रेंड को समझना काफी महत्वपूर्ण है । आज उत्पाद के निर्माण में कम,उत्पाद के प्रचार-प्रसार पर अधिक बजट खर्च की जा रही है । जो सफल व्यवसायी इस तथ्य को समझता है वह बाजार को दोहन करने में सफलता प्राप्त कर रहा है । अतः यदि आप भी अपने व्यवसाय को सफल बनाना चाहते हैं तो अबिलंब इस ट्रिक को अपनाइए एवं अपने उत्पादों को बिक्री बढाइये ।
- गोपाल प्रसाद

लोहिया ऑटो इंडस्ट्रीज के ‘इलेक्ट्रिक बाईक’ की धूम



लोहिया ऑटो इंडस्ट्रीज (एल ए आई) लोहिया समूह की पर्यावरण-अनुकूल, किफायती बिजली से चलने वाली बाईक- ओमा स्टार को बाजार में उतारा । ये कंपनी भारत में बिजली से चलने वाले दो- पहिए वाहनो का उत्पादन करने वाली औद्योगिक इकाइयों में से एक प्रमुख इकाई है ।
ओमा स्टार, सुरक्षा, स्टाईल और आराम का अद्वितीय सम्मिश्रण है । अप्ने नए रूप के साथ डिजिटल स्पीडोमीटर, एलॉए के स्टाइलिश पहियों, ज्यादा स्टोरेज क्षमता, उच्च ग्राउंड क्लीयरेंस, टेलिस्कोपिक सस्पेंशन, आदि सभी विशेषताएं इस बाइक में मौजूद हैं । हमेशा की तरह ही लोहिया ऑटो इंडस्ट्रीज का ये मॉडल भी अपने संभावित खरीदारों को पैसे की सही कीमत अदा करने में सक्षम है ।
ओम स्टार तीन तरह के रंगों में उपलब्ध है- मैको ब्लैक, फाइरी रीड और स्पीरीटेड सिल्वर । आम आदमी की जरूरतों के मुताबिक दिल्ली में ओमा स्टार की कीमत २५,९९९ रूपए और फेम की कीमत २४,६५० रूपए रखी गई है । २५ किमी/घंटा की रफ्तार के साथ ओ एन ए स्टार हर बार चार्ज करने पर ६० किमी की दूरी तय करती है । ये इलेक्ट्रोनिक बाइक अलाने में आसान और बेहतर है, इसका स्टाईल अनुपम है और इसके जरिए अच्छी खासी बचत की जा सकती है । इस इलेक्ट्रोनिक बाइक ई विशेषताएं और बढाने वाले कुछ अन्य गुण हैं २०ए एच की क्षमता ६ से ८ घंटे का चार्जिग समय ८० मिली मीटर और ११० मीटर के अगले और पिछले ब्रेक ड्रम ।
इस कंपनी ने आई आई टी एफ-२००८ में भी हिस्सा लिया था और अपने २ मॉडल ओमा और फेल बाजार मे उतारे थे । इन दोनों ही इलेक्ट्रोनिक बाइकों के लिए कंपनी को बेहद अच्छी प्रतिक्रिया मिली थी और इस अवधि के दौरान ही कंपनी ने अपने खरीदारों को बेहतर नेटवर्क और बाइकों की उपलब्धता देने के लिए सिर्फ दिल्ली में ही १० डीलरों के माध्यम से बाइकों की बिक्री शुरू कर दी है ।
इस अवसर पर लोहिया ऑटो इंडस्ट्रीज के मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री आयुश लोहिया ने कहा, “हमारे द्वारा लिए जाने वाले फैसलों में से ज्यादातर के पीछे आखरी उद्देश्य यही होता है कि जीवनस्तर को बेहतर बनाया जाए । पर्यावरण से जुड़ी चिंताओ और घटते संसाधनों की पृष्ठ भूमि में यह अनिवार्य हो गया है कि जो कुछ बचा है उसे संरक्षित करें और अर्थव्यवस्था की वृद्धि के इंजन को चलाने के लिए नए विकल्प ढूंढे । हमारी इलेक्ट्रोनिक बाइकें इन सवालों और चिंताओ का जवाब हैं ।”

कंपनी के बारे में ः

लोहिया ऑटो इंडस्ट्रीज (एल.ए.आई.) लोहिया समूह का विद्युतीय वाहन निर्माण विभाग है । सन्‌ १९७६ में मुरादाबाद में स्थापित लोहिया समूह का कारोबार भारत समेत विदेशों में फैला हुआ है, आज इस कंपनी वार्षिक राजस्व ५०० करोड़ रूपयों का है । लोहिया समूह के तहत लोहिया ऑटो इंडस्ट्रीज की शुरूआत वर्ष २००७ में हुई ।
लोहिया ऑटो इंडस्ट्रीज की काशीपुर (उत्तराखंड) में नए जमाने की तकनीकों से युक्‍त निर्माण इकाई है जहाँ पर उच्च तकनीक वाले विद्युतीय दोपहिया एवं तिपहिया वाहनों का निर्माण किया जाता है । जर्मन तकनीक से विकसित इस कारखाने में दो किस्मों के विद्युतीय स्कूटर तैयार किए जाते हैं- फेम और ओमा । ये दोनों स्कूटर देखभाल की आवश्यकता से लगभग मुक्‍त हैं । इनमें कोई गियर, इंजिन, बैल्ट या चेन ड्राइव नहीं है, इनसे कोई उत्सर्जन नहीं होता, प्रदूषण नहीं होता ये इलैक्ट्रॉनिक स्टार्ट व ऐक्सीलिरेटर युक्‍त हैं इन सब खासियतों के अलावा ये स्कूटर केन्द्रीय वाहन पंजीकरण कानून के तहत भी नहीं आते हैं क्योंकि ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ऑफ इंडिया (ए.आए.ए.आई) ने इस प्रकार के वाहनों को ऐसी आवश्यकताओं से छूट दिलायी है । इन्हें चलाने के लिए किसी पंजीकरण या लाइसेंस की आवश्यकता भी नही होती ।
उत्तराखंड के काशीपुर में स्थित कंपनी की निर्माण इकाई में हर साल २ लाख वाहन उत्पादित करने की क्षमता है । इस वित्तीय वर्ष में कंपनी ने अपने लिए २०,००० से अधिक इलैक्ट्रिक बाइक बेचने का लक्ष्य रखा है और अगले साल इस लक्ष्य को बढ़ाकर एक लाख इकाई कर दिया जाएगा । कंपनी तत्परता के साथ पड़ोसी देशों में अपने उत्पादों को निर्यात करने की संभावनाएं भी तलाश कर‘ रही है ।
- गोपाल प्रसाद

देश का दुर्भाग्य (26/11)




शायद किसी ने यह उम्मीद न किया हो कि एक तरफ हमारा देश प्रगति कर रहा है, नई ऊँचाईयों को छू रहा हैं । वही दूसरी तरफ एक निहायत ही कमजोर एवं लाचार होता जा रहा है, और हम इसके रखवाले, दिन व दिन अपंग होते जा रहे है । अगर ऐसा नही होता तो हर साल, हर महीने हम ऐसी घटनाओं के शिकार नहीं होते आज २६/११ के वर्षगांठ पर पूरा देश भावमीनी श्रद्धांजली दे रहा है । तो कोई उन शहीदों को पुष्पमाल्यार्पण कर रहा है । मैं पूछता हूँ कि क्या यह भावभीनी श्रद्धांजली, और उनकी याद में २ मिनट का मौन काफी है । उनके लिये या इस देश के लिए जिसका हदय बार-बार विद्रोहियों के द्वारा ब्यथित हो रहा हो । यह देश का दुर्भाग्य नही तो क्या है, यहाँ के रहने वालों के लिए शर्म की बात नहीं तो क्या है? यह एक ऐसा कलंक है जो मिटाये नही मिटने वाला है ।

कुछ लोगों को श्रद्धांजली फिल्म बनाने से है, वो सोचते हैं कि हम फिल्मों के माध्यम से, रेडियों के माध्यम से यहाँ के लोगों को बदलेंगे, उनके सोच को बदलेंगे, लेकिन ऐसा होना, एक ऐसे स्वप्न की तरह है, जो शायद ही पूरा हो सके । क्योंकि बदलती तो वो चीजे हैं, जिसमें चेतना हो परन्तु दुर्भाग्यवश सारे चेत होते भी अचेत है । हम इसे ऐसे याद कर रहे, ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं, जैसे बहुत ही गर्व की बात हो । वो हमें बार-बार कभी २६/११ का तो कभी १९९३ बम-ब्लास्ट, तो कभी काशी संकटमोचन के रूप में चुनौती दे जाते है, और हम उसे राजनीतिक फायदे मे तब्दील करते जा रहे है । इसे हम क्या कहेंगे । कहावत है, कि अपने घर में कुत्ता भी शेर होता है, लेकिन हम अपने को कहते शेर है, और हालत कुत्ते से बदत्तर है । कोई भी घटना होती है, चाहे वह रेल दुघर्टना हो, बस दुर्घटना हो, या बहुत बड़ी शाजिश के तहत देश पर हमला ही क्यों न हो, हम उसे दूसरे देश के द्वारा साजिश का नाम दे, अपना पिछा छुड़ा लेते है । हम किसी व्यक्‍ति या देश के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के बावजूद कार्यवाही क्यों नहीं करते । क्यों दूसरे देशों के भरोसे रह जाते हैं । शायद इसलिये की हमारे पास धन नहीं है, शायद इसलिए की हमारे पास सैन्य बल का अभाव, और शायद इसलिए कि हमारे पास तकनीकी की कमी है । .... नहीं है, तो है, सिर्फ और सिर्फ सत्ता लौलुपता की और आत्मविश्‍वास की - अगर ऐसा नहीं होता तो, संसद भवन हमले के बाद यह २६/११ नहीं होता, और कदापि नही होता- इन सारी घटनाओ से हम सिर्फ अपने-आप को निकम्मे, कमजोर और लालची, बेईमान, मतलबी, साबित कर सकते है । हमारे लिए ऐसी घटनाये कोई माइने नहीं रखती इसे सिद्ध करने की किसी को जरूरत नही है, क्योंकि वे खुद ही गवाह है, अपने गुनाहों की-
मैं पूछना चाहता हूँ, हर उस आदमी से जो थोड़ा भी अपने आप को वफादार या देश और समाज के प्रति जिम्मेदार समझता हो । अगर कोई आपके परिवार या आप पर जानलेवा हमला करता है, तो..
क्या वह दूसरे से या पड़ोसी से सहायता लेने के बाद अपनी रक्षा करेगा ?
क्या वह पहले पंचायत बुलायेगा और फिर वह निर्णय लेगा कि उसे क्या करना चाहिये?-
मेरा मानना है, कि नही कोई भी कानून कोई भी धर्म उसे अपनी रक्षा एवं परिवार की रक्षा करने की स्वीकृति अवश्य देगा-

मेरे लिखने का मकसद किसी को श्रद्धांसुमन अर्पित करना नहीं है, किसी देशभक्‍त को जो हमारी रक्षा के लिए अपने आप को नष्ट कर दिया उसके लिये उसकी श्रद्धांजली में उसे याद करना और फिर उसको राजनीतिक हवा देना नही है ।
“हमारा मकसद है, कि आप, हम सभी दृढ़ प्रतिज्ञ हो उनके बलिदानों की कीमत की वापसी की - जिस दिन हम,आप दृढ़ प्रतिज्ञ हो जायेंगे, फिर न कोई २६/११ होगा ओर ना ही ऐसी वर्षगांठ आयेंगी - ”
किसी भी देश का भाग्य एवं दुर्भाग्य बनाते बिगाड़ते है, वहां के लोग । इतनी जनसंख्या के बावजूद हम इसे दुर्भाग्य के अलावा कुछ नहीं दे पा रहे है । क्योंकि हम अपना आकलन करने में असमर्थ है ! हमारे वर्त्तमान प्रधानमंत्री श्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने आप के बारे में बताया कि वह एक कमजोर प्रधानमंत्री नही है बल्कि वह एक शक्‍तिशाली और बहुत ही प्रभावशाली व्यक्‍तित्व वाले प्रधानमंत्री है । जिसका आकलन पूरे भारतवासी तो क्या वो हमलावरी भी कर चुके है । उन्होंने अपने आप को शक्‍तिशाली इसलिये बताया क्योंकि वे दोबारा सत्ता में वापस आये । उन्होंने यह नही कहा कि मैं एकमात्र ऐसा प्रधानमंत्री हूँ, जिसके समय में हजारों औरते विधवा हुई, जिनके कार्यकाल में हजारों बच्चे यतीम हुये, आखिरकार अफजल गुरू ने जिसे कमजोर और लाचार सरकार बताया ।

हमारे बीच ऐसे हजारों सवाल जेहन में समय-समय पर अवश्य कोसेंगे जिसका दर्द हम शायद सहन कर सके ।
मैं इतना अवश्य कहुंगा अपने नौजवान दोस्तों से कि हम बदलेंगे इसकी तख्दीर क्योंकि हर व्यक्‍ति बदलना चाहता है, और एक बार हम अपनी ताकत का आकलन कर ले तो हर चीज बदल सकती है, क्योंकि -
सारी शक्‍तियाँ हम मे ही समाहित है,
और हम कुछ भी कर सकते है, कुछ भी
अगर हम अपनी कमजोरियों को भूलाकर
एक नई चेतना के साथ एक नये जोश
के साथ शुरूआत करे तो-

अगर वास्तव में हम इसे रोकना चाहते है, तो हमें अपनी सोच को बदलना होगा। हमें खुद को बदलना होगा, और सच्चे मन से अपने-आप के प्रति वफादार होना पड़ेगा ।

लगे इस देश की ही अर्थ मेरे धर्म विधा धन,
करू मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है, ठाना ।
नहीं कुछ गैर मुमकिन है, जो चाहो दिल से तुम,
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना ॥

जय हिन्द

Tuesday, November 10, 2009

ये कैसा विवाद है ?????











सौ साल पहले  श्री बंकिम चन्द्र चटर्जी ने इस गीत की रचना की थी। स्वतन्त्रता संग्राम के समय यह गीत क्रान्तिकारियों और देशवासियों मे जोश भरने का जरिया था। आज फिर देशवासियों मे जोश भरने का समय आ गया है। सभी देशभक्त मुसलमानों भाइयों से भी अपील है फर्जी इमामों के ऊल जुलूल फतवों को दर किनार कर वन्दे मातरम गाएं, आखिर वतन हम सभी का है। मादरे वतन से प्यार के इज़हार के लिए किसी फतवे की क्या जरुरत?

मेरा मानना है किः
किसी को वनदे मातरम् गाने के लिए मजबूर नही करना चाहिए – और दूसरी बात जो सच्चा हिनदुस्तानी है वोह ज़बरदस्ती नही बलकि दिल से वनदे मातरम् गाता है।

इतिहास:
वन्दे मातरम्‌ गीत आनन्दमठ में 1882 में आया लेकिन उसको एक एकीकृत करने वाले गीत के रूप में देखने से सबसे पहले इंकार 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष मौलाना अहमद अली ने किया जब उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हिमालय पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वन्दे मातरम्‌ गाने के बीच में टोका। लेकिन पं. पलुस्कर ने बीच में रुकर कर इस महान गीत का अपमान नहीं होने दिया, पं- पलुस्कर पूरा गाना गाकर ही रुके।

सवाल यह है कि इतने वषो तक क्यों वन्दे मातरम्‌ गैर इस्लामी नह था? क्यों खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत वन्दे मातरम्‌ से होती थी और ये अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इसके सम्मान में उठकर खड़े होते थे। बेरिस्टर जिन्ना पहले तो इसके सम्मान में खडे न होने वालों को फटकार लगाते थे। रफीक जकारिया ने हाल में लिखे अपने निबन्ध में इस बात की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम्‌ के गायन पर विवाद निरर्थक है। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के सभी मुस्लिम नेताओं द्वारा गाया जाता था। जो मुस्लिम इसे गाना नहीं चाहते, न गाए लेकिन गीत के सम्मान में उठकर तो खड़े हो जाए क्योंकि इसका एक संघर्ष का इतिहास रहा है और यह संविधान में राष्ट्रगान घोषित किया गया है।

बंगाल के विभाजन के समय हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इसके पूरा गाते थे, न कि प्रथम दो छंदों को। 1896 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में इसका पूर्ण- असंक्षिप्त वर्शन गया गया था। इसके प्रथम स्टेज परफॉर्मर और कम्पोजर स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर थे।

1901 के कांग्रेस अधिवेशन में फिर इसे गाया गया। इस बार दक्षणरंजन सेन इसके कम्पोजर थे। इसके बाद कांग्रेस अधिवेशन वन्दे मातरम्‌ से शुरू करने की एक प्रथा चल पडी। 7 अगस्त 1905 को बंग-भंग का विरोध करने जुटी भीड़ के बीच किसी ने कहा : वन्दे मातरम्‌ और चमत्कार घट गया। सहस्रों कंठों ने समवेत स्वर में इसे दोहराया तो पूरा आसमान वंदे मातरम के घोष से गूंज उठा। इस तरह अचानक ही वन्दे मातरम्‌ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को उसका प्रयाण-गीत मिल गया। अरविन्द घोष ने इस अवसर का बडा रोमांचक चित्र खींचा है। 1906 में अंग्रेज सरकार ने वन्दे मातरम्‌ को किसी अधिवेशन, जुलूस या सार्वजनिक स्थल पर गाने से प्रतिबंधित कर दिया गया।

प्रसिद्ध नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी और अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक मोतीलाल घोष ने बारीसाल में एकत्र हुए युवा कांग्रेस अधिवेशन के प्रतिनिधियों से चर्चा की। 14 अप्रैल 1906 को अंग्रेज सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों की अवज्ञा करके एक पूरा जुलूस वन्दे मातरम्‌ के बैज लगाए हुए निकाला गया और पुलिस ने भयंकर लाठी चार्ज कर वंदे मातरम के इन दीवानों पर हमला कर दिया। मोतीलाल घोष और सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे लोग रक्त रजित होकर सड़को पर गिर पड़े, उनके साथ सैकड़ों लोगों ने पुलिस की लाठियाँ खाई और लाठियाँ खाते खाते वंदे मातरम् का घोष करते रहे।।

अगले दिन अधिवेशन फिर वन्दे मातरम्‌ गीत से शुरू हुआ। 6 अगस्त 1906 को अरविन्द कलकत्ता आ गए और वन्दे मातरम्‌ के नाम से एक अंग्रेजी दैनिक ही निकालना शुरू किया। सिस्टर निवेदिता ने प्रतिबंध के बावजूद निवेदिता गर्ल्स स्कूलों में वन्दे मातरम्‌ को दैनिक प्रार्थनाओं में शामिल किया।

लेकिन नूरानी अकेले नहीं हैं जिनको देवी या माता जैसे शब्द भी सांप्रदायिक लगते हैं, 13 मार्च 2003 को कर्नाटक के प्राथमिक एवं सेकेण्डरी शिक्षा के तत्कालीन राज्य मंत्री बी-के-चंद्रशेखर ने ‘प्रकृति‘ शब्द के साथ ‘देवी लगाने को ‘‘हिन्दू एवं साम्दायिक मानकर एक सदस्य के भाषण पर आपत्ति की थी। तब उस आहत सदस्य ने पूछा था कि क्या ‘भारत माता, ‘कन्नड़ भुवनेश्वरी और ‘कन्नड़ अम्बे जैसे शब्द भी साम्दायिक और हिन्दू हैं?

1905 में गाँधीजी ने लिखा- आज लाखों लोग एक बात के लिए एकत्र होकर वन्दे मातरम्‌ गाते हैं। मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य राष्ट्रगीतों के विपरीत यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नह करता। 1936 में गाँधीजी ने लिखा - ‘‘ कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनके सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है।

अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन विशेषणों को यथार्थ में बदलें। इसका स्रोत कुछ भी हो, कैसे भी और कभी भी इसका सृजन हुआ हो, यह बंगाल के विभाजन के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों की सबसे शक्तिशाली रणभेरी थी। एक बच्चे के रूप में जब मुझे आनन्दमठ के बारे में कुछ नहीं मालूम था और न इसके अमर लेखक बंकिम के बारे में, तब भी वन्दे मातरम्‌ मेरे ह्रदय पर छा गया। जब मैंने इसे पहली बार सुना, गाया, इसने मुझे रोमांचित कर दिया। मैं इसमें शुद्धतम राष्ट्रीय भावना देखता। मुझे कभी ख्याल नह आया कि हिन्दू गीत है या सिर्फ हिन्दुओं के लिए रचा गया है।

देश के बाहर 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में अंतर्राष्टीय सोशलिस्ट कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होने का था जिसमें पं- श्यामजी वर्मा, मैडम कामा, विनायक सावरकर आदि भाग ले रहे थे। भारत की स्वतंत्रता पर संकल्प पारित करने के लिए उठ मैडम कामा ने भाषण शुरू किया, आधुनिक भारत के पहले राष्ट्रीय झण्डे को फहराकर। इस झण्डे के मध्य में देवनागरी में अंकित था वंदे मातरम्‌। 1906 से यह गीत भारतीयों की एकता की आवाज बन गया। मंत्र की विशेषता होती है- उसकी अखण्डता यानी इंटीग्रिटी। मंत्र अपनी संपूर्णता में ही सुनने मात्र से से भाव पैदा करता है। जब

1906 से 1911 तक यह वंदे मातरम्‌ गीत पूरा गाया जाता था तो इस मंत्र में यह ताकत थी कि बंगाल का विभाजन ब्रितानी हुकूमत को वापस लेना पडा, लेकिन, 1947 तक जबकि इस मंत्र गीत को खण्डित करने पर तथाकथित ‘राजनीतिक सहमति बन गई तब तक भारत भी इतना कमजोर हो गया कि अपना खण्डन नहीं रोक सका यदि इस गीत मंत्र के टुकड़े पहले हुए तो उसकी परिणति देश के टुकडे होने में हुई।

मदनलाल ढींगरा, फुल्ल चाकी, खुदीराम बोस, सूर्यसेन, रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य बहुत से क्रांतिकारियों ने वंदे मातरम कही कर फासी के फंदे को चूमा। भगत सिंह अपने पिता को पत्र वंदे मातरम्‌ से अभिवादन कर लिखते थे। सुभाषचं बोस की आजाद हिन्द फौज ने इस गीत को अंगीकार किया और सिंगापुर रेडियो स्टेशन से इसका सारण होता था।

1938 में स्वयं नेहरूजी ने लिखा-‘ तीस साल से ज्यादा समय से यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा है। ‘ऐसे जन गीत टेलर मेड नहीं होते और न ही वे लोगों के दिमाग पर थोपे जा सकते हैं। वे स्वयं अपनी ऊँचाईया हासिल करते हैं। यह बात अलग है कि रविन्नाथ टेगौर, पं. पलुस्कर, दक्षिणरंजन सेन, दिलीप कुमार राय, पं- ओंकारनाथ ठाकुर, केशवराव भोले, विष्णुपंथ पागनिस, मास्टर कृष्णावराव, वीडी अंभाईकर, तिमिर बरन भाचार्य, हेमंत कुमार, एम एस सुब्बा लक्ष्मी, लता मंगेशकर आदि ने इसे अलग अलग रागों, काफी मिश्र खंभावती, बिलावल, बागेश्वरी, झिंझौटी, कर्नाटक शैली आदि रागों में गाकर इसे हर तरह से समृध्द किया है। बडी भीड भी इसे गा सकती है, यह मास्टर कृष्णाराव ने पुणे में पचास हजार लोगों से इस गीत को गवाया और सभी ने एक स्वर में बगैर किसी गलती के इसको गाकर इस गीत की सरलता को सिध्द किया।फिर उन्होंने पुलिसवालों के साथ इसे मार्च सांग बनाकर दिखाया। विदेशी बैण्डों पर बजाने लायक सिद्ध करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश नेवल बैण्ड चीफ स्टेनलेबिल्स की मदद से इसका संगीत तैयार करवाया।

26 अक्टूबर 1937 को पं- जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कलकत्ता में कांग्रेस की कार्यसमिति ने इस विषय पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इसके अनुसार ‘‘ यह गीत और इसके शब्द विशेषत: बंगाल में और सामान्यत: सारे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीयय तिरोध के प्रतीक बन गए। ‘वन्दे मातरम्‌ ये शब्द शक्ति का ऐसा पस्त्रोत बन गए जिसने हमारी जनता को प्रेरित किया और ऐसे अभिवादन हो गए जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा।

गीत के प्रथम दो छंद सुकोमल भाषा में मातृभूमि और उसके उपहारों की प्रचुरता के बारे में देश में बताते हैं। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर धार्मिक या किसी अन्य दृष्टि से आपत्ति उठाई जाए।
जय हिन्द।......मुकेश पान्डेय

Friday, November 6, 2009

अप्रवासी भारतीय वेंकटरमण को रसायनशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार

वेंकटरमन रामचंदन नोबेल से सम्मानित होनेवाले सातवें भारतीय हैं । वास्तव में इससे भारत गौरवान्वित हुआ है । उल्लास में उनका बड़ौदा वि. वि. भी है । वैसे यह गलत चलन है कि काम का महत्व पुरस्कारों से तय होता है । खुद उनके कार्य (अनेक लाइलाज बीमारियों का निदान), उनसे जुड़े वैज्ञानिकों एवं उनके साथ सम्मानित अदा योनोथ व थामस स्टीज को लख-लख बधाई ।
भले ही वह बहुत पहले अमेरिका में बस गए लेकिन रसायन विज्ञान के लिए भारतीय अमेरिकी वैंकटरमन रामाकृष्णन को नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा ने करोड़ों भारतीयों को गौरवान्वित कर दिया । कोशिकीय तंत्र में प्रोटीन की रचना करने वाले अंगक राइबोजोम पर उल्लेखनीय अनुसंधान कार्य के लिए यह पुरस्कार मिला ।
मंदिरों के शहर तमिलनाडु के चिदंबरम में १९५२ में जन्में ५७ वर्षीय रामाकृष्णन ऐसे सातवें भारतीय या भारतीय मूल के व्यक्‍ति हैं जिन्हें इस प्रतिष्ठित सम्मान के लिए चुना गया है । रामाकृष्णन्‌ ने गुजरात के बड़ौदा वि. वि. से १९७१ में विज्ञान में स्नातक की उपाधि हासिल की और फिर उच्चतर अध्ययन के लिए अमेरिका चले गए । बाद में वह पूरी तरह अमेरिका में बस गए और उन्होंने वहाँ की नागरिकता हासिल कर ली । अमेरिका के ओहायो वि. वि. से उन्होंने भौतिकी में पीएचडी की उपाधि हासिल की और बाद में अमेरिका में कैलिफोर्निया वि.वि. में उन्होंने १९७६ से १९७८ तक परास्नातक के रूप में शोध कार्य किया ।
विश्‍वविद्यालय में अनुसंधान कार्य के दौरान रामाकृष्णन ने प्रतिष्ठित जैव रसायन वैज्ञानिक डॉ. मारीसियो मोंटरल के अंतर्गत काम किया । इसके बाद उन्होंने भौतिकी से जीव विज्ञान के क्षेत्र में आने का फैसला किया । इसके लिए उन्होंने दो साल तक जीवविज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान कार्य किया । फिर उन्होंने येल वि.वि. में परास्नातक के रूप में ई. कोलाई वैक्टीरिया केराइबोजोम के छोटे घटक के न्यूट्रॉन प्रकीर्णन पर काम करना शुरू किया । तब से वह राइबोजोम की संरचना का अध्ययन कर रहे हैं । इस समय रामाकृष्ण कैम्ब्रिज वि.वि. में आणविक जीव विज्ञान की एम‍आरसी प्रयोगशाला में एक वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं । उन्होंने कई शैक्षणिक पत्रिकाओं में महत्वपूर्ण अनुसंधानपरक पत्र लिखे हैं ।
क्या है विधि?
एक्स-रे क्रिस्टेलोग्राफी तकनीक की मदद से राइबोसोम में मौजूदा करोड़ों परमाणुओं की पोजीशन का पता लगाने में सफलता पाई । १९८० व १९९० में बने इनके त्रिआयामी मॉडलों से वैज्ञानिक जान पाए कि राइबोसोम कैसे डीएनए के अनुवांशिक कोड पहचान कर प्रोटीन तैयार करता है जिससे बायो केमिकल प्रक्रिया शुरू होती है ।
क्या लाभ होगा?
उनकी इस उपलब्धि से नए कारगर एंटीबायोटिक्स (रोग प्रतिरोधक) विकसित करने में मदद मिलेगी । एंटीबायोटिक्स हानिकारक बैक्टीरिया को खत्म करने और उनका विकास रोकने का काम करते हैं ।

वेबसाईट तो है पर देखेगा कौन?

सूचना तकनीक का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है । सब कुछ हाईटेक होता जा रहा है । सरकारी एवं गैरसरकारी सभी विभागों को धीरे-धीरे कम्प्यूटराईज्ड किया जा रहा है ताकि समन्वय और पारदर्शिता कायम हो सके । आज अपने या अपने विभाग/कंपनी के बारे में हर कोई वेबसाईट के माध्यम से भी जानकारी दे रहा है ताकि उससे संबंधित जानकारी कोई भी प्राप्त कर सके, परन्तु क्या केवल वेबसाईट बना देने भर से काम समाप्त हो जाएगा? सर्च इंजन काफी वेबसाईटों को नहीं दिखा पाते या सबसे अंत में दिखाते हैं । अगर आप चाहते हैं कि आपके बेवसाईट को दिखाने में सर्च इंजन प्राथमिकता दें तो आपको कुछ और भी तैयारी करनी पड़ेगी । अपने वेबसाईट पर ज्यादा से ज्यादा हिट्‌‍स बढ़वाने हेतु आपको बल्क एस.एम.एस. और बल्क ईमेल प्रोग्राम से जुड़ना पड़ेगा ताकि अधिकतम लोगों तक आप अपने बेवसाईट की उपयोगिता के बारे में बता सकें । इस प्रचार में सोशल कम्युनिटी की वेबसाईट (ऑर्कुट, फेसबुक, ट्विटर, नेटलॉग आदि) भी काफी उपयोगी हो सकता है । आपकी ड्रॉफ्टिंग काफी सरल एवं संक्षिप्त हो यह अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए । इसके साथ ही अलग-अलग लिंक को कॉपी पेस्ट कर भी ड्राफ्ट नोट में शामिल करें ताकि कोई भी लिंक पर क्लिक करके आपके वेबसाईट पर आसानी से पहुँच सके ।

युवा जगत ही नहीं अन्य वर्गों में भी सोशल कम्युनिटी वेबसाईटों का आकर्षण बढ़ा है । सर्वप्रथम अपना आकर्षक और वास्तविक संक्षिप्त प्रोफाइल बनाकर सोशल कम्युनिटी वेबसाईट‌स से जुड़ें और अपने दोस्तों की श्रृंखला तैयार करें । यही कनेक्टिविटी आपके बातों को दूर तक पहुँचाने में मददगार होगी । इसके माध्यम से शिक्षा-कैरियर, शादी, व्यापार, मनोरंजन समाजसेवा व ज्ञानवर्द्धक जानकारियों का आदान-प्रदान सरल हो जाता हैऔर आपके दायरे का विस्तार होता है । आज ब्लॉगिंग पत्रकारिता की नई विधा के रूप में उभर चुका है । सभी क्षेत्र से जुड़े लोग ब्लॉगिंग करते हैं । ब्लॉगिंग वास्तव में अपनी अभिव्यक्‍ति का एक स्वतंत्र माध्यम है । पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े अधिकांश व्यक्‍तियों के ब्लॉग हैं । आज किसान, व्यापारी, वकील, राजनीतिज्ञ, खिलाड़ी, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक आदि लोगों के भी अपने-अपने ब्लॉग हैं । ब्लॉगिंग के माध्यम से संपर्क, समन्वय, आदान-प्रदान तथा अपनी कमजोरी की जानकारी व आत्मशक्‍ति के स्त्रोत में बढोत्तरी ही होती है । आपकी बात वैश्‍विक पैमाने पर अभिव्यक्‍त होने से अधिक से अधिक लोगों को तो लाभ मिलता ही है, साथ ही नई-नई जानकारियाँ भी प्राप्त होती हैं । लालकृष्ण आडवाणी, शशि थरूर, अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान आदि भी ब्लॉगिंग हेतु समय निकाल ही लेते हैं । समय के अनुसार हर कुछ बदलता रहता है । मीडिया के पूर्णरूपेण व्यावसायिक होने तथा जनसरोकारों से कुछ मायनों में किनारा करने के कारण तो ब्लॉगिंग का महत्व और अधिक बढ़ गया है । डोमेन रजिस्ट्रेशन में हिंदी के जुड़ जाने से हिन्दी ब्लॉगरों का महत्व काफी तेजी से बढ़ेगा क्योंकि हिंदी जानने वाले इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या अंग्रेजी की तुलना में कई गुना ज्यादा है । अतः समय की माँग है कि आप अपनी बात रखने हेतु केवल वेबसाईट ही नहीं बल्कि ब्लॉग पर भी रखें । इससे आपके संपर्क का दायरा और अधिक विस्तृत होगा ।

आईटी जगत के बहुत सारी कंपनी आपके वेबसाईटों को प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करती है ताकि सर्च इंजन आप वेबसाईट को दिखाने में प्राथमिकता दें । उदाहरणस्वरूप : दिल्ली स्थित प्रमुख आईटी कंपनी “नर्मदा क्रिएटिव प्रा० लि०” आपके वेबसाईट पर ट्रैफिक बढ़ाने हेतु दृढ़ संकल्पित है । नए वेबसाईट बनाने, वेबसाईट के मेंटनेंस व वेबसाईटों के प्रचार-प्रसार व वेबसाईट कंटेट राइटिंग के क्षेत्र में यह कंपनी तेजी के साथ आगे बढ़ रही है । हिंदी या अंग्रेजी दोनों भाषाओं में वेबसाईटों पर कंटेट राइटिंग के लिए आप इस कंपनी www.narmadacreative.com पर संपर्क कर सकते हैं । इस कंपनी द्वारा समय दर्पण नामक हिंदी मासिक पत्रिका www.samaydarpan.com पर पढ़ सकते हैं । वैचारिक क्रांति हेतु अग्रसर 9 अंकों के सफल प्रकाशन के साथ यह पत्रिका अपनी लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है । आज इस पत्रिका पर करोड़ों हिट्‌स हो चुके हैं क्योंकि हजारों मेल आईडी पर इसके प्रकाशन की सूचना नियमित भेजी जाती है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि वेबसाईट के क्षेत्र में सुविचारित योजना एवं तंत्र विकसित करते हुए वेब प्रमोशन हेतु तत्पर रहते हैं तभी पूर्ण सफलता की कामना कर सकते हैं । अपनी बात रखने हेतु आपका प्रजेन्टेशन, अधिकाधिक लोगों तक पहुँच, ईमेल आईडी का संग्रह, नियमित संवाद व क्वालिटी में दम रहने की अनिवार्यता के नियमों का यदि आप पालन करें तभी आपके वेबसाईट की सही मायने में उपयोगिता कही जाएगी । प्रायः यह देखा जाता है कि लोग बेवसाईट तो बना लेते हैं मगर वह वेबसाईट बहुत रूक-रूक कर चलता है या उसके कई लिंक काम ही नहीं करते हैं जिससे उपयोगकर्त्ता के मन में खिन्‍नता हो जाती है और वह उस वेबसाईट पर रहना समय की बर्बादी मानने लगता है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उस वेबसाईट पर इंफॉमेर्टिंक क्या है और उसके कंटेट राइट‍अप में कितना दम है । यदि कंटेट में दम रहेगा तभी आकर्षण रहेगा ।
-गोपाल प्रसाद

Monday, November 2, 2009

खो रहा है बचपन


[बाल दिवस १४ नवम्बर पर विशेष]


पं० नेहरू से मिलने एक व्यक्‍ति आये । बातचीत के दौरान उन्होंने पूछा- “पंडित जी आप ७० साल के हो गये हैं लेकिन फिर भी हमेशा गुलाब की तरह तरोताजा दिखते हैं । जबकि मैं उम्र में आपसे छोटा होते हुए भी बूढ़ा दिखता हूँ । ” इस पर हँसते हुए नेहरू जी ने कहा- “इसके पीछे तीन कारण हैं । ” उस व्यक्‍ति ने आश्‍चर्यमिश्रित उत्सुकता से पूछा वह क्या? नेहरू जी बोले- “पहला कारण तो यह है कि मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ । उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, जिससे मुझे लगता है कि मैं भी उनके जैसा हूँ । दूसरा कि मैं प्रकृति प्रेमी हूँ और पेड-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरना, चाँद, सितारे सभी से मेरा एक अटूट रिश्ता है । मैं इनके साथ जीता हूँ और ये मुझे तरोताजा रखते हैं । ” नेहरू जी ने तीसरा कारण दुनियादारी और उसमें अपने नजरिये को बताया- “दर‍असल अधिकतर लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसी के बारे में सोचकर अपना दिमाग खराब कर लेते हैं । पर इन सबसे मेरा नजरिया बिल्कुल अलग है और छोटी-छोटी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता । ” इसके बाद नेहरू जी खुलकर बच्चों की तरह हँस पड़े । यहाँ बचपन की महत्ता को दर्शाती किसी गीतकार द्वारा लिखी गई पंक्‍तियाँ याद आती हैं -
ये दौलत भी ले लो
ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी ।
बचपन एक ऐसी अवस्था होती है, जहाँ जाति-धर्म-क्षेत्र कोई मायने नहीं रखते । बच्चे ही राष्ट्र की आत्मा हैं और इन्हीं पर अतीत को सहेज कर रखने की जिम्मेदारी भी है । बच्चों में ही राष्ट्र का वर्तमान रूख करवटें लेता है तो इन्हीं में भविष्य के अदृश्य बीज बोकर राष्ट्र को पल्लवित-पुष्पित किया जा सकता है । दुर्भाग्यवश अपने देश में इन्हीं बच्चों के शोषण की घटनाएं नित्य-प्रतिदिन की बात हो गयी हैं और इसे हम नंगी आखों से देखते हुए भी झुठलाना चाहते हैं- फिर चाहे वह निठारी कांड हो, स्कूलों में अध्यापकों द्वारा बच्चों को मारना-पीटना हो, बच्चियों का यौन शोषण हो या अनुसूचित जाति व जनजाति से जुड़े बच्चों का स्कूल में जातिगत शोषण हो । हाल ही में राष्ट्रीय नाट्‍य विद्यालय की ओर से नई दिल्ली में आयोजित प्रतियोगिता के दौरान कई बच्चों ने बच्चों को पकड़ने वाले दैत्य, बच्चे खाने वाली चुड़ैल और बच्चे चुराने वाली औरत इत्यादि को अपने कार्टून एवं पेन्टिंग्स का आधार बनाया । यह दर्शाता है कि बच्चों के मनोमस्तिष्क पर किस प्रकार उनके साथ हुये दुर्व्यवहार दर्ज हैं और उन्हें भय में खौफनाक यादों के साथ जीने को मजबूर कर रहे हैं ।
यहाँ सवाल सिर्फ बाहरी व्यक्‍तियों द्वारा बच्चों के शोषण का नहीं है बल्कि घरेलू रिश्तेदारों द्वारा भी बच्चों का खुलेआम शोषण किया जाता है । हाल ही में केन्द्र सरकार की ओर से बाल शोषण पर कराये गए प्रथम राष्ट्रीय अध्ययन पर गौर करें तो ५३.२२ प्रतिशत बच्चों को एक या उससे ज्यादा बार यौन शोषण का शिकार होना पड़ा, जिनमें ५३ प्रतिशत लड़के और ४७ प्रतिशत लड़कियाँ हैं । २२ प्रतिशत बच्चों ने अपने साथ गम्भीर किस्म और ५१ प्रतिशत ने दूसरे तरह के यौन शोषण की बात स्वीकारी तो ६ प्रतिशत को जबरदस्ती यौनाचार के लिये मारा-पीटा भी गया । सबसे आश्‍चर्यजनक पहलू यह रहा कि यौन शोषण करने वालों में ५० प्रतिशत नजदीकी रिश्तेदार या मित्र थे । शारीरिक शोषण के अलावा मानसिक व उपेक्षापूर्ण शोषण के तथ्य भी अध्ययन के दौरान उभरकर आये । हर दूसरे बच्चे ने मानसिक शोषण की बात स्वीकारी, जहाँ ८३ प्रतिशत जिम्मेदार माँ-बाप ही होते हैं । निश्‍चिततः यह स्थिति भयावह है । एक सभ्य समाज में बच्चों के साथ इस प्रकार की स्थिति को उचित नहीं ठहराया जा सकता ।
बालश्रम की बात करें तो आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक भारत में फिलहाल लगभग ५ करोड़ बाल श्रमिक हैं । अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भारत में सर्वाधिक बाल श्रमिक होने पर चिन्ता व्यक्‍त की है । ऐसे बच्चे कहीं बाल-वेश्यावृत्ति में झोंके गये हैं या खतरनाक उद्योगों या सड़क के किनारे किसी ढाबे में जूठे बर्तन धो रहे होते हैं या धार्मिक स्थलों व चौराहों पर भीख माँगते नजर आते हैं अथवा साहब लोगों के घरों में दासता का जीवन जी रहे होते हैं । सरकार ने सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा बच्चों को घरेलू बाल मजदूर के रूप में काम पर लगाने के विरूद्ध एक निषेधाज्ञा भी जारी की पर दुर्भाग्य से सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, नेतागण, व बुद्धिजीवी समाज के लोग ही इन कानूनों का मखौल उड़ा रहे हैं । अकेले वर्ष २००६ में देश भर में करीब २६ लाख बच्चे घरों या अन्य व्यावसायिक केन्द्रों में बतौर नौकर काम रहे थे । गौरतलब है कि अधिकतर स्वयंसेवी संस्थायें या पुलिस खतरनाक उद्योगों में कार्य कर रहे बच्चों को मुक्‍त तो करा लेती हैं पर उसके बाद उनकी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं । नतीजतन, ऐसे बच्चे किसी रोजगार या उचित पुनर्वास के अभाव में पुनः उसी दलदल में या अपराधियों की शरण में जाने को मजबूर होते हैं ।
ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिये संविधान में विशिष्ट उपबन्ध नहीं हैं । संविधान के अनुच्छेद १५(३) में बालकों के लिये उपबन्ध करने हेतु सरकार को शक्‍तियाँ प्रदत्त की गयी हैं । अनुच्छेद २३ बालकों के दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्‌श्रम प्रतिषिद्ध करता है । इसके तहत सरकार का कर्तव्य केवल बन्धुआ मजदूरों को मुक्‍त करना हीं नही वरन्‌ उनके पुनर्वास की उचित व्यवस्था भी करना है । अनुच्छेद २४ चौदह वर्ष से कम उम्र के बालकों के कारखानों या किसी परिसंकटमय नियोजन में लगाने का प्रतिषेध करता है । यही नहीं नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद ३९ में स्पष्ट उल्लिखित है कि बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर उन्हें ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्‍ति के अनुकूल न हों । इसी प्रकार बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ्य विकास के अवसर और सुविधायें दी जायें और बालकों का शोषण से तथा नैतिक व आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाय । संविधान का अनुच्छेद ४५ आरम्भिक शिशुत्व देखरेख तथा ६ वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिये शिक्षा हेतु उपबन्ध करता है । इसी प्रकार मूल कर्तव्यों में अनुच्छेद ५१(क) में ८६ वें संशोधन द्वारा वर्ष २००२ में नया खंड (ट) अंततः स्थापित करते हुए कहा गया कि जो माता-पिता या संरक्षक हैं छः से चौदह वर्ष के मध्य आयु के अपने बच्चों या यथास्थिति अपने पाल्य को शिक्षा का अवसर प्रदान करें । संविधान के इन उपबन्धों एवं बच्चों के समग्र विकास को वांछित गति प्रदान करने के लिये १९८५ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन महिला और बाल विकास विभाग गठित किया गया । बच्चों के अधिकारों और समाज के प्रति उनके कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए ९ फरवरी २००४ को ‘राष्ट्रीय बाल घोषणा पत्र’ को राजपत्र में अधिसूचित किया गया, जिसका उद्देश्य बच्चों को जीवन जीने, स्वास्थ्य देखभाल, पोषाहार, जीवन स्तर, शिक्षा और शोषण से मुक्‍ति के अधिकार सुनिश्‍चित कराना है । यह घोषणापत्र बच्चों के अधिकारों के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय समझौते (१९८९) के अनुरूप है, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं । यही नहीं हर वर्ष १४ नवम्बर को नेहरू जयन्ती को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है । मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा मुसीबत में फँसे बच्चों हेतु चाइल्ड हेल्प लाइन- १९०८ की शुरूआत की गई है । १८ वर्ष तक के जरूरत मन्द बच्चे या फिर उनके शुभ चिन्तक इस बालश्रम के शिकार हैं । हाल ही में भारत सरकार द्वारा २३ फरवरी २००७ को ‘बाल आयोग’ का गठन किया गया है । बाल आयोग बनाने के पीछे बच्चों को आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, अश्लील साहित्य व वेश्यावृत्ति, एड्‌स, हिंसा, अवैध व्यापार व प्राकृतिक विपदा से बचाने जैसे उद्देश्य निहित हैं । बाल आयोग, बाल अधिकारी से जुड़े किसी भी मामले की जाँच कर सकता है और ऐसे मामलों में उचित कार्यवाही करने हेतु राज्य सरकार या पुलिस को निर्देश दे सकता है । इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो कहीं न कहीं इसके लिये समाज भी दोषी है । कोई कानून स्थिति सुधारने का दावा नहीं कर सकता, वह मात्र एक राह दिखाता है । जरूरत है कि बच्चों को पूरा पारिवारिक-सामाजिक-नैतिक समर्थन दिया जाये, ताकि वे राष्ट्र की नींव मजबूत बनाने में अपना योगदान कर सकें ।
कई देशों में तो बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्‍त हैं । सर्वप्रथम नार्वे ने १९८१ में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्‍त लोकपाल की नियुक्‍ति की । कालान्तर में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन १९९३, स्पेन (१९९६), फिनलैण्ड इत्यादि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्‍ति की । लोकपाल का कर्तव्य है कि बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना तथा उनके हितों का समर्थन करना । यही नहीं निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरूचि उत्पन्‍न करना भी उनके दायित्वों में है । कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्श में भाग लेकर जनता की अभिरूचि बाल अधिकारों के प्रति बढ़ाते हैं । एवं जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं । यही नहीं वे बच्चों और युवाओं के साथ निरन्तर सम्वाद कायम रखते हैं, ताकि उनके दृष्टिकोण और विचारों को समझा जा सके । बच्चों के प्रति बढ़ते दुर्व्यवहार एवं बालश्रम की समस्याओं के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की माँग की जा रही है । पर मूल प्रश्न यह है कि इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो समाज भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता । कोई भी कानून स्थिति सुधारने का दावा नहीं कर सकता, वह तो मात्र एक राह दिखाता है । जरूरत है कि बच्चों को पूरा पारिवारिक-सामाजिक-नैतिक समर्थन दिया जाये, ताकि वे राष्ट्र की नींव मजबूत बनाने में अपना योगदान कर सकें ।
आज जरूरत है कि बालश्रम और बाल उत्पीड़न की स्थिति से राष्ट्र को उबारा जाये । ये बच्चे भले ही आज वोट बैंक नहीं हैं पर आने वाले कल के नेतृत्वकर्ता हैं । उन अभिभावकों को जो तात्कालिक लालच में आकर अपने बच्चों को बालश्रम में झोंक देते हैं, भी इस सम्बन्ध में समझदारी का निर्वाह करना पड़ेगा कि बच्चों को शिक्षा रूपी उनके मूलाधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये । गैर सरकारी संगठनों और सरकारी मशीनरी को भी मात्र कागजी खानापूर्ति या मीडिया की निगाह में आने के लिये अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहिये बल्कि उनका उद्देश्य इनकी वास्तविक स्वतन्त्रता सुनिश्‍चित करना होना चाहिये । आज यह सोचने की जरूरत है कि जिन बच्चों पर देश के भविष्य की नींव टिकी हुई है, उनकी नींव खुद ही कमजोर हो तो वे भला राष्ट्र का बोझ क्या उठायेंगे । अतः बाल अधिकारों के प्रति सजगता एक सुखी और समृद्ध राष्ट्र की प्रथम आवश्यकता है ।
- आकांक्षा यादव

राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन


चुनावी राजनीति से दूर रहते हुए भारतपरस्त और गरीबपरस्त राजनीति के लिए मुहिम

वर्ष २००४ में चौदहवीं लोकसभा के परिणाम घोषित किए गए । एनडीए की पराजय और यूपीए की जीत लोगों के लिए विश्‍मयकारी थी । सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री बनना तय हो चुका था । पराजय से पस्त हुयी भाजपा और उसके सहयोगी संगठन चाहकर भी कुछ करने की स्थिति में नहीं थे । लेकिन तभी भाजपा से किनारा कर चुके उसके पूर्व महासचिव के. एन. गोविन्दाचार्य सामने आए और उन्होंने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घटना का विरोध किया । अपने विरोध को तेज करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का गठन किया ।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की घोषणा से देश के उन करोड़ों लोगों को एक आवाज मिली जो सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से अत्यंत चिंतित थे । यही कारण था कि बिना किसी सांगठनिक आधार के भी इस मुद्‌दे पर देश भर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए । टी.वी. चैनलों, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं एवं लोगों की आपसी चर्चा में यह मुद्‌दा पूरी तरह छा गया । १८ मई, २००४ को जंतर-मंतर पर विशाल प्रदर्शन हुआ और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम से मिला । आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक के नाते के. एन. गोविन्दाचार्य भी प्रतिनिधि मंडल में सम्मिलित थे । राष्ट्रपति ने उनकी बात पूरे ध्यान से सुनी और आवश्यक कार्यवाही करने का आश्‍वासन दिया । इसके बाद जो घटनाएं घटीं, उसमें राष्ट्रपति महोदय की विशेष भूमिका रही । समाचार पत्रों में जो रिपोर्टें छपीं, उनके अनुसार सोनिया गांधी ने ‘अंतरात्मा’ की आवाज सुनी और प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ दी ।
इस सफलता के बाद गोविन्दाचार्य और उनके सहयोगियों ने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को एक स्थायी मंच के नाते आगे बढ़ाने का निश्‍चय किया । इस विषय पर पूछे जाने पर गोविन्दाचार्य ने बताया कि “हमने महसूस किया कि तात्कालिक रूप से खतरा निश्‍चित रूप से टल गया है, किंतु वे सभी कारण अभी भी मौजूद हैं जिनके चलते देश का नेतृत्व एक विदेशी महिला के हाथों में जाने की संभावना उत्पन्‍न हो गई थी । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमने तय किया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को एक ऐसे स्थायी मंच के रूप में विकसित किया जाए जहां से भारतपरस्त और गरीबपरस्त राजनीति की बात हो । दूसरे शब्दों में यदि कहें तो निरंकुश और जन आकांक्षाओं से दूर होती जा रही राजसत्ता को अंकुश में रखते हुए उसे जनाभिमुख बनाना राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का मुख्य उद्देश्य है । चुनावी राजनीति में अपने को उलझाए बिना यह आंदोलन सरकारों की जनविरोधी प्रवृत्तियों का विरोध करने का माध्यम बने, हमेशा हमारी यही कोशिश रही है । अपनी स्थापना से लेकर अब तक हम ढृढ़संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं । ”
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की खासियत यह है कि इसके द्वारा उठाए गए मुद्‌दे जमीन से जुड़े होते हैं । किसानों और छोटे व्यापारियों के खिलाफ सरकार ने जब-जब कोई हानिकारक नीति बनायी, तब-तब आंदोलन के लोगों ने उसका विरोध किया । सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी, कालाबाजारी के खिलाफ आंदोलन लगातार सक्रिय रहा । विकास के नाम पर गरीब लोगों को बेघर करने का भी विरोध किया गया ।
अलख यात्रा :
वर्ष २००७ अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिए आंदोलन की और एक व्यवस्थित जन-अभियान चलाने का निर्णय लिया गया । इसके लिए बिहार को चुना गया । संघ के प्रचारक के रूप में गोविन्दाचार्य ने बिहार में काफी लंबे समय तक काम किया था । जेपी आंदोलन के दौरान भी बिहार में उनकी सक्रिय भूमिका थी ।
मीडिया की चकाचौंध से दूर ६ मार्च २००७ को जब बक्सर से अलख यात्रा शुरु हुई तो उस समय बहुत कम संख्या में लोग थे । जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ी, स्थानीय लोगों की अच्छी-खासी संख्या इससे जुड़ने लगी । इस यात्रा में गोविन्दाचार्य के साथ कई कवि, साहित्यकार एवं समाजसेवी भी चले । सभी का संदेश यही था कि समाज अपनी शक्‍ति को पहचाने । राज्यसत्ता के प्रति अनावश्यक आसक्‍ति को सभी लोगों ने नुकसानदेह बताया । पूरी यात्रा के दौरान लोग बक्सर के अलावा छपरा, सिवान, गोपालगंज, मोतिहारी, बेतिया, शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णियां और अररिया जिलों में गए और वहां के लोगों से संवाद स्थापित किया । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के बैनर तले आयोजित इस यात्रा ने बिहार के लोगों को राजनीति से हटकर सोचने के लिए प्रेरित किया । इन जिलों में आज आंदोलन के कई कार्यकर्ता व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के अंतर्गत विभिन्‍न रचनात्मक एवं आंदोलनात्मक गतिविधियों से जुड़कर राष्ट्र निर्माण के कार्य में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं ।
गौसंरक्षण के लिए प्रयास:
कुछ दशक पहले तक गौवंश को भारत में एक सामान्य पशु नहीं बल्कि दैवी उपहार माना जाता था जिसे लोग समृद्धि का पर्याय समझते थे । लेकिन, दुर्भाग्यवश गौवंश आज विनाश के कगार पर है । देश का सत्ता प्रतिष्ठान शेर-भालू बचाने के लिए तो बहुत परेशान है, परन्तु गौवंश को बचाने की उसे कोई चिंता नहीं है । संकरीकरण और कत्लखानों की मार झेलते हुए कई भारतीय गौवंश प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं । कुछ ही वर्ष पहले तक हमारे यहां उपलब्ध ५० भारतीय गौ प्रजातियों में से केवल ३३ प्रजातियां ही आज बची रह गई हैं ।
भारतीय गोवंश के सम्मुख जो विकट स्थिति है, उसका समाधान ढूंढने के लिए कई स्तर पर प्रयास हो रहे हैं । लेकिन समस्या यह है कि इन सभी प्रयासों में आपसी तालमेल नहीं है । इस बात को समझते हुए कर्नाटक स्थिति श्री रामचन्द्रपुर मठ के जगद्‌गुरू श्री श्री राघवेश्‍वर भारती जी ने भारतीय गौवंश के संरक्षण में लगे लोगों को एक मंच पर लाने और जनसाधारण के बीच इस बारे में जागरूकता फैलाने के लिए शिमोगा में २१ अप्रैल से २९ अप्रैल, २००७ के दौरान विश्‍व गौ सम्मेलन का आयोजन किया । इस अनूठे विश्‍व गौ सम्मेलन में देश-विदेश से लाखों गौभक्‍तों ने भाग लिया । सम्मेलन का आयोजन अपने आप में एक चुनौती थी । इस विशाल आयोजन की तैयारी के लिए बंगलरू, दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में कार्यालय खोले गए । नौ दिन चले सम्मेलन के सफल आयोजन के पीछे मठ के शंकराचार्य स्वामी राघवेश्‍वर भारती की साधना का मुख्य योगदान रहा । उनकी प्रेरणा से इस आयोजन में देश के कई संगठन भी लगे थे । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को भी इस आयोजन में कुछ सहयोग करने का अवसर मिला ।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन गोवंश की रक्षा और संवर्धन के प्रति प्रतिबद्ध है । इसके लिए गोपालन और गोवंश के संवर्धन में लगी सज्जनशक्‍ति के सहयोग से एक स्पष्ट कार्ययोजना तैयार की जा रही है जिसे आने वाले दिनों में मूर्त रूप दिया जाना है ।
किष्किंधा बैठक :
अपनी स्थापना के बाद राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने जनहित से जुड़े विभिन्‍न मुद्दों पर देश के कोने-कोने में आंदोलन किए हैं । चूंकि ये आंदोलन राज्य की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध होते हैं, इसलिए राजसत्ता से उसके संबंधों के बारे में स्पष्ट नीति बनाने की जरूरत महसूस की जा रही थी । इसी प्रकार यह प्रश्न भी कार्यकर्ताओं के मन में उठ रहा था कि क्या आंदोलन को एक सांगठनिक आधार देने से इसे और बल मिलेगा । इन्हीं मुद्‌दों पर चर्चा के लिए २१-२३ अगस्त, २००७ को भगवान श्रीराम के अनन्य भक्‍त हनुमान जी की जन्म स्थली किष्किंधा में राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का आयोजन किया गया । वर्तमान समय में किष्किंधा क्षेत्र कर्नाटक राज्य के कोपल जिले में स्थित है । कार्यक्रम की मेजबानी श्री कोत्तल बसवेस्वर भारतीय शिक्षण समिति, सेडम की ओर से की गई । किष्किंधा में संगठन के स्वरूप और भावी योजनाओं के बारे में व्यापक चर्चा हुई । इस दौरान जहां एक ओर इस बात पर सहमति बनी कि वर्तमान राजनीति जनता से कटकर कुछ राजनेताओं की स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन गई है, वहीं इस बात को भी रेखांकित किया गया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन एक राजनीतिक दल के नाते कभी भी चुनावी राजनीति में हिस्सा नहीं लेगा । किंतु राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के मूल्यों और मुद्दों को आधार बनाते हुए यदि कोई मंच, मोर्चा या राजनीतिक दल, चाहे वह पुराना हो या नया, आगे आता है तो उसका स्वागत एवं समर्थन किया जाना चाहिए । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के कार्यकर्ताओं को व्यक्‍तिगत स्तर पर राजनीति के क्षेत्र में नए प्रयोग एवं नई पहल करने की छूट दी गई, लेकिन साथ ही एक मंच के नाते राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को दलगत राजनीति से दूर रखने का संकल्प लिया गया ।
आंदोलन के सांगठनिक ढांचे को लेकर भी व्यापक चर्चा हुई और अंततः यह निर्णय लिया गया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को एक कसे हुए सांगठनिक ढांचे में बांधने की जरूरत नहीं है । प्रतिभागियों ने कई संगठनों का उदाहरण देते हुए इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया कि औपचारिक संगठन बनने के बाद प्रायः संगठन अपने मुद्‌दों और अपने उद्देश्यों से भटक जाते हैं । समाज का संगठन धीरे-धीरे समाज में संगठन बन जाता है । समाज में आवश्यक परिवर्तन के लिए उत्प्रेरक की भूमिका से हटकर सर्वज्ञ संचालक या नियंत्रक की भूमिका में आने की इच्छा होने लगती है । और इसके लिए आवश्यक सामर्थ्य जुटाने की कोशिश शुरू हो जाती है । समाज के लिए साधन बनने के बजाय संगठन स्वयं साध्य बन जाते हैं । इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए प्रतिनिधियों ने यह तय किया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन एक ऐसे संगठन के रूप में कार्य करे जिसमें पर्याप्त लचीलापन हो । आदेश और आज्ञापालन अर्थात हाईकमांड संस्कृति से दूर होकर यह संगठन साहस, पहल और प्रयोग के सिद्धांतों पर चले । एक ऐसी व्यवस्था बनाने पर जोर दिया गया जिसमें सक्रिय एवं अच्छे लोग आसानी से आ सकें और साथ ही निष्क्रिय एवं संदेहास्पद लोग स्वाभाविक तरीके से बाहर हो सकें । इन निदेशक बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया कि संगठन की संरचना राष्ट्रीय, प्रांतीय एवं जिला स्तर पर होगी और प्रत्येक स्तर पर कार्यकर्ता अपने में से ही संयोजक एवं सह संयोजक का आम सहमति से चुनाव करेंगे ।
गंगा मुक्‍ति अभियान:
राष्ट्रीय स्वाभिमान उन सभी संगठनों एवं व्यक्‍तियों के समर्थन में सदैव खड़ा रहा है जो सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरोध में आवाज उठाते हैं । अभी पिछले दिनों गंगा में बढ़ते प्रदूषण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन ने गंगा महासभा के साथ मिलकर गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा का आयोजन किया । १ फरवरी, २००८ को पश्‍चिम बंगाल में गंगासागर में शुरू हुयी यह यात्रा गंगातटीय २८ शहरों से होते हुए २ मार्च को हरिद्वार में पूरी हुयी । जब गुरूदास अग्रवाल ने जन जागरण और संघर्ष के रास्ते गंगा के लिए अलख जगाया तब भी आंदोलन के लोग उनके साथ थे । मां गंगा की रक्षा के मसले पर देश भर के लोग जिस तरह एकजुट हुए वह निश्‍चय ही हौसला बढ़ाने वाला रहा ।
इस अनशन का असर यह हुआ कि देश भर के लोगों को गंगा के संबंध में काम किए जाने की जरूरत महसूस हुयी । देश के कई हिस्सों में लोगों ने मां गंगा को बचाने के लिए संघर्ष की शुरूआत भी कर दी है, जो एक सुखद संकेत है । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का मानना है कि गंगा मईया के लिए हम सबको जनजागरण और जनसंघर्ष के रास्ते आगे बढ़ना होगा । इसी को आगे बढ़ाने के मकसद से इसके लोग समविचारी संगठनों के साथ साझा रणनीति बनाने का प्रयास कर रहे हैं ।
बौद्धिक कार्यक्रमों का आयोजन:
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की भूमिका धरना प्रदर्शन और आंदोलन के साथ-साथ बौद्धिक गतिविधियों में भी रही है । देश की भावी तस्वीर कैसी हो, उसके लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए । यह प्रश्न प्रायः उठाया जाता रहा है । इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने की दिशा में सार्थक पहल करते हुए राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन ने देश के अन्य समविचारी संगठनों के सहयोग से सभी प्रमुख शहरों में वैकल्पिक व्यवस्था से जुड़े विभिन्‍न विषयों पर सेमिनार एवं विचार गोष्ठियां आयोजित कीं । जुलाई, २००८ से शुरू हुआ यह सिलसिला छः महीनों तक चला । कई महत्वपूर्ण विषय जैसे जल, जंगल, जमीन, जानवर, खेती, रोजगार से लेकर प्रतिरक्षा, सांस्कृतिक प्रदूषण, ऊर्जा, मौजूदा संविधान की प्रसांगिकता, कर व्यवस्था, न्यायपालिका के बारे में गोष्ठियां विशेष रूप से लाभप्रद रहीं । इन गोष्ठियों में प्राप्त विचारों को ध्यान में रखते हुए सभी विचारित विषयों पर नीतियां बनाने और फिर उन नीतियों को साकार करने की योजना है ।
देश भर में जो गोष्ठियां आयोजित की गयीं, उसमें दिल्ली में ‘मीडिया के भूमंडलीकरण’ पर आयोजित गोष्ठी बहुत महत्वपूर्ण रहीं । इसमें हर किसी ने माना कि पत्रकारिता अपनी राह से भटक गई है । जो पत्रकार अब तक मौजूदा दौर की पत्रकारिता को ही सही ठहराते थे, वे पहली बार रक्षात्मक मुद्रा में दिखे और गलती स्वीकार की । ऐसे ही भोपाल में ऊर्जा के मसले पर बड़ी सार्थक चर्चा हुई । यहां यह बात उभर कर सामने आई कि हमें अपनी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए वैकल्पिक साधनों की तलाश के साथ-साथ उन्हें बढ़ावा भी देना चाहिए । सभी गोष्ठियों में सज्जन शक्‍ति की सहभागिता को देखते हुए एक बात ध्यान में आयी कि अगर समान विषय पर काम रहे अलग-अलग लोग एक साथ मिलकर कोई पहल करें तो समाज को इसका बहुत लाभ मिल सकता है ।
मिलजुल कर काम करने का प्रयास:
वास्तव में राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की लड़ाई एक लंबी और जटिल लड़ाई है । यह मानना है आंदोलन के अंयोजक श्री के. एन. गोविन्दाचार्य का जो कहते हैं, “इस लड़ाई को भारत की जनता को अपने स्तर पर लड़ना है । राजव्यवस्था देश के स्वभाव और आवश्यकता को ध्यान में रखकर सहयोग करें, इस हेतु राज्यकर्ताओं का मानस और उनकी समझ बने, राज्य का ढांचा, तरीका, कानून और संविधान उस अंतिम आदमी के हित और हक के पोषण का कार्य कर सके, यह आवश्यक है । इस सबके लिए राज्य व्यवस्था का क्रमेण रूपान्तरण एक जरूरत है और चुनौती भी । इस चुनौती को स्वीकार करना किसी एक व्यक्‍ति या संगठन के जिम्मे नहीं लगाया जा सकता है । इस चुनौती को तो भारत के जन-जन को स्वीकार करना पड़ेगा । यह लड़ाई जनता की लड़ाई होगी । सामाजिक रूप से सक्रिय लोग इस लड़ाई को केवल दिशा देने का कार्य करेंगे । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की भूमिका को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए । ”

-के.एन. गोविन्दाचार्य

साहित्य हो विकसित तो राष्ट्र समृद्ध :राष्ट्रपति

राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटील ने कहा है कि समावेशी समाज के निर्माण में साहित्यकार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । साहित्य व्यक्‍ति को गरिमा और सम्मान के साथ जीना सिखाता है, वह उसे बेहतर मनुष्य बनाता है । कोई भी राष्ट्र तभी समृद्ध माना जा सकता है जब उसका साहित्य विकसित हो । वह संसद भवन पुस्तकालय के बालयोगी सभागार में आयोजित ४१वें ज्ञानपीठ समारोह में बोल रही थीं । इस अवसर पर उन्होंने हिंदी के प्रख्यात कवि कुंवर नारायण को वर्ष २००५ का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया ।
राष्ट्रपति ने कहा कि मानवतावादी साहू शांति प्रसाद जैन द्वारा स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ ने भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण दायित्व निभाया है । कुंवर नारायण ने इस बात पर खुशी जताई कि काफी दिनों के बाद यह पुरस्कार हिंदी को मिला है । कार्यक्रम की शुरूआत में अतिथियों का स्वागत करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ की अध्यक्ष इंदु जैन ने कहा कि मीडिया से भाषाओं को विस्तार मिलता है, साहित्य से उन्हें जीवनी शक्‍ति और गहराई मिलती है । भारत के पास अपनी भाषाओं और साहित्यों का एक बहुत बड़ा भंडार है । उसके और मीडिया के बीच निकट संपर्क से दोनों समृद्ध होंगे ।
कविता मेरे मन की दुनिया है ः कुंवर
राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने हिंदी के प्रख्यात कवि कुंवर नारायण को २००५ का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया । इस मौके पर राष्ट्रपति ने कुंवर नारायण की रचनायात्रा की भी चर्चा की । राष्ट्रपति ने कहा कि नारायण ने विविध मानवीय भावों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है ।
इस मौके पर कुंवर नारायण ने कहा कि कविता मेरे मन की दुनिया है । मैं उसे व्यापक बनाए रखना चाहता हूं, ताकि उसमें सबके दुःख-सुख के लिए पर्याप्त जगह हो । साहित्य का अर्थ मेरे लिए बुद्धि विलास नहीं, जीवन का एक बहुत बड़ा यथार्थ और आश्‍चर्य भी है । इस विचार से मुझे साहस और आत्मविश्‍वास मिला है । मैं अपनी इस दुनिया को विकसित करते रहना चाहता हूं । फौजी ढंग से नहीं ढाई आखर प्रेम के बल पर ।
भारतीय ज्ञानपीठ की अध्यक्ष इंदु जैन ने कहा कि कुंवर जी की भाषा में अद्‌भुत क्षमता है । उनकी ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ जैसी काव्य कृतियां भारतीय साहित्य की शोभा हैं । इंदु जैन ने कुंवर नारायण से जुड़े अपने कई आत्मीय संस्मरण सुनाए । निर्णायक मंडल के अध्यक्ष सीताकांत महापात्र ने कुंवर नारायण की कविताओं की विशिष्टताओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि कुंवर नारायण ने जीवन के कुछ मूलभूत प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया है और उन्हें सहजता से प्रस्तुत किया है । भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया ने धन्यवाद ज्ञापन किया । कार्यक्रम में बड़ी संख्या में रचनाकार, बुद्धिजीवी और साहित्यप्रेमी उपस्थित थे ।

- संजय कुंदन

ईमानदार एक क्यों नहीं हो सकते?




बी.आर.एस.पी. भारतीय राष्ट्रवादी समानता पार्टी तमाम छोटे-छोटे दलों को एकीकृत कर सांझा मंच बनाने में जुट गई हैं । साझे राजनैतिक कार्यक्रम पर आम सहमति बनाकर आनेवाले समय में आम लोगों के हित में चलाए जाने वाले जन आन्दोलन या आम चुनाव (लोकसभा/विधानसभा/नगर निगम) में एक साझे प्लेटफॉर्म से उनमें हिस्सा लेने की है । यह सपना दिल्ली राज्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हर प्रान्त की राजधानी में पहुँचकर पूरे देश की राजनैतिक पार्टियों (जो हजारों में होगी) को जोड़ना है ताकि आगे होने वाले चुनावों में आम लोगों के मतों का विभाजन न होने पाए । इसी विभाजन का लाभ सत्ताधारी दल अक्सर उठाते हैं और आम जनता की आवाज तूती की आवाज बनकर रह जाती हैं ।
इसके तहत आपस में मिलकर आम राय के द्वारा एक कार्यक्रम निश्‍चित करके समन्वय की भावना से साझा उम्मीदवार तय करने की योजना है । भारतीय राष्ट्रवादी समानता पार्टी के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष एवं संयोजक अवतार सिंह के अनुसार उनके इस अभियान को काफी समर्थन मिला है । बी. आर. एस. पी. के सदस्यों की क्षमता, व प्रतिभा अद्वितीय है । सभी सदस्य स्वेच्छा से पार्टी से जुड़े हैं । सभी सक्षम हैं, देशभक्‍त हैं और सभी व्यवस्था में बदलाव भी चाहते हैं । श्री सिंह ने कहा हम यह बदलाव शिक्षा व न्याय द्वारा लाएँगे । सर्वविदित है कि योग गुरू स्वामी रामदेवजी ने इस पार्टी के विचारधारा एवं संगठनशक्‍ति से प्रभावित होकर मार्गदर्शन एवं समर्थन देने का निश्‍चय किया है जो काफी महत्वपूर्ण है । भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद एवं राजनीति में शुद्धता के लिए बाबा रामदेव काफी चर्चित रहे हैं । इस संदर्भ में इन जैसे हस्ती का समर्थन मिलने से युवाओं का तेजी से जुड़ाव होना शुरू हो गया है क्योंकि युवाओं के नजर में आज बाबा रामदेव एक रोल मॉडल हैं ।
भारतीय राष्ट्रवादी समानता पार्टी के मुख्य संरक्षक रमेश अग्रवाल कहते हैं कि बी.आर.एस.पी. का जन्म दुष्ट निवारण और शिष्ट परिपालन के लिए हुआ है । जातिगत आरक्षण का विरोध करते हुए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कर्नल तेजेन्द्र पाल त्यागी ने सरकार की तरफ इशारा करते हुए कहा कि “क्या समझते हैं ये लोग कि ये जुल्म करते रहेंगे और हम चुपचाप सहते रहेंगे? हमने भारतीय राष्ट्रवादी समानता पार्टी को इसलिए बनाया है कि आम आदमी को न्याय, इज्जत एवं सुरक्षा देने के लिए बनाया है । हम बेरोजगार युवकों की सहकारी समिति बनाकर बेरोजगारी दूर करेंगे और हर समय व हर जगह कृषि व किसानों को प्राथमिकता दी जाएगी । वे व्यंग्य भरे लहजे में कहते हैं- “कमाल का लोकतंत्र है यहाँ, किसान का बेटा तो मजदूर हो गया और घुटभईयों के बेटे राजनेता हो गए । ”
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कर्नल तेजेन्द्र पाल त्यागी के अनुसार “ बी.आए.एस.पी का भविष्य सभी पार्टियों से बेहतर है क्योंकि इस पार्टी के राष्ट्रीय प्रशासनिक सदस्य बाबा रामदेव से आशीर्वाद लेकर आए हैं । यह पार्टी एक राष्ट्रीय आंदोलन है । पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष शिव खेड़ा के अनुसार- “अन्याय सहना, अन्याय करने से बड़ा पाप है । ” जिंदगी जीने की कीमत तो हर तरह चुकानी पड़ती है । घुटने टेककर भी और सर उठाकर भी । स्वाभिमान चाहते हैं तो हमारे साथ चलें । आज आवश्यकता राजनीति के समाजीकरण की है ना कि समाज के राजनीतिकरण की । हम जो साँस ले रहे हैं उसमें भी राजनीति है, इसलिए इससे बचा नहीं जा सकता । उन्होंने युवाओं को आह्वान करते हुआ कहा कि वो संगठित होकर सामूहिक समर्थन उस व्यक्‍ति को दें जो देशभक्‍त, पुरूषार्थी और ईमानदार हो । जब हमारा देश जवान है तो नेता भी जवान होने चाहिए । यदि ६० वर्षों में आरक्षण से समस्याओं का समाधान नहीं हुआ तो अब क्या होगा? संविधान सभा की १३ सदस्यों की कोर कमिटी में सभी ब्राह्मण थे । यदि उनके मन में जात-पात होती तो वे भीमराव अंबेडकर के बजाय माणिक लाल या वी.एन. राव को ड्राफ्टिंग कमिटी का चेयरमैन बनाते ।
सर्वसम्मति से हमलोगों ने सभी सदस्यों के लिए नैतिक मानदंड स्थापित किए हैं, जिसके तहत “आपसी अभिवादन में जय हिंद बोलना और बुलवाना, कम से कम एक विकलांग या शहीद सिपाही के आश्रित को कुछ ना कुछ सहारा देना अपने घर या दफ्तर में बाबा रामदेव के फोटो के साथ संस्था का बोर्ड लगवाने का निश्‍चय किया है । भारत स्वाभिमान ट्रस्ट और बाबा रामदेव के नेतृत्व में २३ जनवरी २०१० को दिल्ली में संत, सैनिक और किसानों के लिए सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है । अंतः में वे एक प्रश्न उठाते हैं कि “बेईमान लोग एक हो सकते तो ईमानदार एक क्यों नहीं हो सकते?
- गोपाल प्रसाद

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस :क्रांतिकारियों के नायक की संक्षिप्त जीवनी

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस क्रांतिकारियों के नायक की संक्षिप्त जीवनी

सन्‌ 1920 - आई. सी. एस. से त्यागपत्र ।
सन्‌ 1924 - गिरफ्तारी मांडले जेल में प्रवास ।
सन्‌ 1927 - काँग्रेस आन्दोलन के मंच से सीधी कार्यवाही का प्रयास ।
सन्‌ 1933 - यूरोप में भारतीय पक्ष का प्रचार ।
सन्‌ 1941 - ग्रेट एस्केप ।
सन्‌ 1943 आजाद हिन्द फौज व अन्तिम सरकार का गठन ।
सन्‌ 1945 - भारत को मुक्‍त कराने के लिए आक्रमण, चलो दिल्ली चलो का आह्‌वान ।
मंत्री, संत्री, अधिकारी, बुद्धिजीवी सभी क्यों सो रहे हैं?

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्रों को सरकारी कार्यालय आदि स्थानों पर लगाये जाने पर पाबन्दी क्यों लगाई गयी? यह पाबन्दी भारत सरकार की सहमति पर बम्बई सरकार ने ११ फरवरी १९४९ को गुप्त आदेश संख्या नं० 155211 के अनुसार प्रधान कार्यालय बम्बई उप-क्षेत्र कुलाबा-६ द्वारा लगाई गई ।
नेताजी को अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध अपराधी भारतीय नेताओं ने क्यों स्वीकार किया? अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी गुप्त फाईल नं० 10(INA) क्रमांक २७९ के अनुसार नेताजी को १९९९ तक युद्ध अपराधी घोषित किया गया था, जिस फाईल पर जवाहर लाल नेहरू के हस्ताक्षर हैं । परन्तु 3-12-1968 में यू.एन.ओ. परिषद के प्रस्ताव नं० 2391/ xx3 के अनुसार १९९९ की बजाय आजीवन युद्ध अपराधी घोषित किया जिस पर श्रीमती इन्दिरागांधी के हस्ताक्षर हैं ।
भारत सरकार द्वारा गठित मुखर्जी आयोग के सदस्यों को तब करारा झटका लगा जब अगस्त सन्‌ २००२ में ब्रिटिश सरकार से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी से सम्बंधित गोपनीय दस्तावेजों की माँग की तथा ब्रिटिश सरकार ने मुखर्जी आयोग के सदस्यों को सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए वापिस लौटा दिया तथा सन्‌ २०२१ से पहले अपने अभिलेखागार से कोई भी महत्वपूर्ण दस्तावेज जो नेताजी से सम्बंधित है, देने से इन्कार कर दिया एवं मुखर्जी आयोग के सदस्य १३ अगस्त सन्‌ २००१ को लाल कृष्ण आडवाणी, तत्कालीन गृहमंत्री, भारत सरकार से मिले थे तथा आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से आग्रह किया था कि भारत सरकार लंदन में उनके लिए दस्तावेजों की उपयोगी सामग्री दिलाने के लिए समुचित कदम उठाए एवं आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से यह भी कहा था कि रूस के लिए भी सरकारी रूप से पत्र लिखें जिससे रूस भी ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाले और आयोग के सदस्यों को दस्तावेज मिल सकें । अगर श्री अटल बिहारी वाजपेयी, प्रधानमंत्री, भारत सरकार, सरकारी तौर पर ब्रिटेन पर दबाब डालते तो गोपनीयता समझौतों के दस्तावेज प्राप्त किये जा सकते थे । इसलिए प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का मौन रहना भी कोई राज की बात है । तथा नेताजी के विरूद्ध हुए समझौतों को स्वीकृति देना है ।
नेताजी के विषय में भ्रमित भारतीयों के प्रश्नों के उत्तर
अब जबकि अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि नेताजी की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में नहीं हुई थी, न ही आज सरकार के पास नेताजी के मृत्यु की कोई निश्‍चित तारीख है । साथ ही खण्डित भारत सरकार शाहनवाज जांच कमेटी तथा खोसला आयोग द्वारा भी नेताजी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु सिद्ध नहीं कर पाई । उपरोक्‍त दोनों जांच समितियों की रिपोर्ट से भारत के लोगों को नेताजी के विषय में गुमराह करने का षड्‍यंत्र रचा । इस षड्‍यन्त्र से भारतीय लोगों के दिमाग में तरह-तरह के सवाल उठना जरूरी है । सुभाषवादी जनता (बरेली) की १९८२ में प्रकाशित एक “नेताजी प्रशस्तिका” में कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं ।
प्रश्न आज जो देश की हालत है उसे देखकर क्या नेताजी चुप रह सकते थे?
प्रश्न क्या नेताजी जैसा देशभक्‍त इतने लम्बे समय तक छिपकर बैठ सकता था?
उत्तर कौन सा ऐसा महान क्रान्तिकारी है जो छुप कर न रहा हो?
जरा सोचो रामचंद्र जी को अवतार माना जाता है, फिर उन्होंने छिपकर बालि को बाण क्यों मारा?
क्या पाण्डव छिपकर जंगलों में नहीं रहे थे?
क्या अर्जुन ने स्वयं को बचाने के लिए स्त्री का रूप धारण नहीं किया था?
क्या हजरत मौहम्मद साहब जिहाद में अपनी जान बचाने के लिए छिपकर मक्‍का छोड़कर मदीना नहीं चले गये थे?
क्या छत्रपति शिवाजी कायर थे, जो औरंगजेब की कैद से मिठाई की टोकरी में छिपकर निकले थे?
क्या चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह समय-समय पर भूमिगत नहीं हुये थे?
क्या चे गोवेरा तथा मार्शल टीटो जैसे विश्‍व के महान क्रान्तिकारी अपनी जिन्दगी में अनेक बार भूमिगत नही हुये थे? क्या उपरोक्‍त सभी महान क्रान्तिकारी कायर थे? नहीं ये सभी क्रान्तिकारी बहुत साहसी थे वे केवल अपने उद्देश्यों के लिये भूमिगत हुए थे । जबकि नेताजी इन क्रान्तिकारियों के गुरू भी हैं तथा नेताजी की लड़ाई तो पूरे विश्‍व में साम्राज्य के खिलाफ है । इसलिये नेताजी किसी भय से नहीं अपने महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये भूमिगत हुए ।
- याद रहे कि व्यक्‍ति जितना महान होता है, उसका उद्देश्य भी उतना ही महान होता है ।
प्रश्न नेताजी का क्या उद्देश्य है?
प्रश्न यदि नेताजी जीवित हैं तो क्यों नहीं आते?
उत्तर नेताजी ने सन्‌ १९३१ में कहा था “इस समय हमारा एक ही लक्ष्य है- “भारत की स्वाधीनता” नेताजी भारत के विभाजन के विरूद्ध थे । उन्होंने यह भी कहा था कि “हमारा युद्ध केवल ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं बल्कि संसार के साम्राज्यवाद के विरूद्ध है । ” अतः हम केवल भारत के लिये ही नहीं बल्कि मनुष्य मात्र के हितों के लिये भी लड़ रहे हैं । भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है- समस्त मानव जाति का भय मुक्‍त हो जाना ।
नेताजी जानते थे कि द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद भी एक और महायुद्ध अवश्य होगा, जिसकी सम्भावना उन्होंने २६ जून १९४५ को आजाद हिन्द रेडियो (सिंगापुर) से प्रसारित अपने एक भाषण में व्यक्‍त कर दी थी । धीरे-धीरे संसार तृतीय महायुद्ध के निकट पहुँच रहा है । इसी महायुद्ध में भारत पुनः अखण्ड होगा तथा नेताजी का प्रकटीकरण होगा ।
भारत के धूर्त राजनीतिज्ञों से नेताजी का कोई समझौता नहीं होगा । नेताजी किसी भी व्यक्‍ति या देश के बल पर नहीं, अपनी ही शक्‍ति के बल पर प्रकट होंगे । उनके प्रकट होने से पहले उनके नेताजी होने के बारे में सन्देह के बादल छँट चुके होंगे । जैसे अर्जुन का अज्ञातवास पूरा होने पर गाण्डीव धनुष की टंकार ने पाण्डवों के होने के सन्देह के बादल छांट दिये थे ।
जहाँ तक हमारे विश्‍वास का प्रश्न है, नेताजी अभी भी जीवित हैं और अब भारत के लोगों के विवेक व सोच पर निर्भर करता है । लेकिन वे कब प्रकट होंगे इस प्रश्न का समुचित उत्तर नेताजी के अनुसार तृतीय विश्‍व युद्ध की चरम सीमा पर प्रकट होना है । जैसा कि उन्होंने १९ दिसम्बर १९४५ को मन्चूरिया रेडियों से अपने प्रथम सन्देश में कहा था ।
-डा. राजकरण हमदम

एक खुराक लेते ही मूड बदलेगी और उमंग जगाएगी दवा

अवसाद के मरीजों के लिए एक अच्छी खबर है । शोधकर्ताओं ने एक ऐसी दवाई खोजी है जो फौरन अवसाद के मरीजों की सोच और मूड में बदलाव लाएगी । ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का मानना है कि यह दवाई उन लोगों पर सबसे ज्यादा असर करेगी जो लोग अपनी सोच को बदलने के लिए सचेत रूप से बातचीत सेशन करते हैं । शोधकर्ताओं ने कहा कि अवसाद के जो मरीज इस थेरेपी का इस्तेमाल करते हैं उन्हें इस पर ऐतबार करना चाहिए कि इस दवा का असर उन पर हो रहा है । शोधकर्ताओं ने बताया कि यह दवाई इतनी असरदार है कि इसके खाने के कुछ घंटे बाद ही शरीर में असर करने लगती है । मरीज की नकारात्मक सोच में भी यह दवा जल्द बदलाव लाती है और मरीज सचेत होकर अपने काम में दिलचस्पी लेने लगते हैं । अमेरिकन जर्नल ऑफ साइकेट्री की रिपोर्ट के मुताबिक मनोवैज्ञानिक डॉ. कैथरीन हार्मर ने शोधकर्ता के साथ मिलकर अवसाद की यह दवाई बनाई जो अवसाद के मरीजों में नई सोच लाती है ।
इस शोध को प्रमाणित करने के लिए अवसाद के ३३ मरीजों और ३१ स्वस्थ व्यक्‍तियों को शामिल किया । शोध में शामिल लोगों को जब यह दवाई दी गई तो अवसाद से ग्रस्त लोगों पर इसका तुरंत असर देखने को मिला । शोधकर्ताओं ने पाया कि दवाई खाते ही अवसाद के मरीज की सोच में सकारात्मक बदलाव और चुस्ती पाई गई ।

जीवन की सांझ में जरूरी है ऊष्मा

आमतौर पर लोग रिटायरमेंट के बाद खुद को भी रिटायर मान लेते हैं, जबकि वास्तविक सच्चाई यह है कि कोई भी सिर्फ नौकरी से ही रिटायर होता है, समाज से नहीं । रिटायरमेंट के बाद भी काम की कोई कमी नहीं होती । जरूरत है तो सिर्फ सोच को बदलने और संयम रखने की । सेनानिवृत्ति के बाद भी हर आदमी को अपने आपको व्यस्त रखना चाहिए । इससे उनका शरीर तो स्वस्थ रहेगा ही, साथ ही अपने घर के अन्य सदस्यों की जरूरतों को पूरा कर सकेंगे ।
रिटायरमेंट का मतलब जिम्मेदारियों से मुक्‍त होना बिल्कुल भी नहीं होता है । रिटायर होने के बाद जरूरतें खत्म नहीं होती इसलिए अपनी जरूरतों को जहां तक हो सके स्वयं ही पूरा करें । देखने में आया है कि सेनानिवृत्ति के बाद भी व्यस्त रहने वालों का शरीर और मन काम नहीं करने वालों की अपेक्षा ज्यादा चुस्त रहता है । अकसर यह भी देखने में आता है कि जो व्यक्‍ति रिटायर होने के बाद घर बैठ जाते हैं, वह तमाम प्रकार की बीमारियों की गिरफ्‍त में आ जाते हैं और कई बार तो उनको सघन अवसाद भी घेर लेता है । इसके अलावा काम न करने के कारण मोटापा भी उनके शरीर को जल्द ही घेर लेता है ।
चिकित्सकों का भी मानना है कि रिटायर होने के बाद जरूरी है कि कुछ न कुछ कामकाज अवश्य करते रहना चाहिए । इससे शरीर को स्वस्थ और निरोगी रखा जा सकता है । फरीदाबाद स्थित डॉ. सुदीप गुप्ता का कहना है कि यदि आप काम में व्यस्त रहेंगे तो फालतू बातों की ओर आपका ध्यान नहीं जाएगा और मस्तिष्क भी सही रहेगा । एनजीओ फोर्स की संचालिका ज्योति शर्मा का कहना है कि यदि आप नौकरी आदि में अपने आपको व्यस्त नहीं रखना चाहते हैं तो सामाजिक संस्थाओं के साथ जुड़ जाएं । इससे समाज में आपका रूतबा बढ़ेगा और मनोबल भी बढ़ेगा ।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. अलका लांबा का कहना है कि सुबह और शाम के वक्‍त सैर पर अवश्य जाएं । इसके अलावा शारीरिक प्रशिक्षक से सलाह लेकर थोड़ा बहुत व्यायाम भी अवश्य करें । उनका कहना है कि सैर पर जाने से कुछ हम उम्र दोस्तों का भी साथ मिल जाता है । जिनके साथ समय बिताने से मन को हल्का करने में मदद मिल सकती है । घर-परिवार के साथ भी दिन में कुछ समय अवश्य ही बिताना चाहिए जिससे घर का माहौल अच्छा बनेगा । बैंक से रिटायर हुए एल. पी, अग्रवाल का कहना है कि वह अपने बच्चों की फैक्ट्री में जाकर काम देखते हैं और अपने पोतों के साथ भी समय बिताते हैं । इससे उनका समय बहुत बढ़िया कट जाता है । आजकल वह अपने बड़े पोते को लेकर दुकान चलाने की सोच रहे हैं जिसमें वह पोते की दुकान को जमाने में मदद करेंगे ।
-देबलीना बनर्जी

भविष्य की नयी इबारत डिजाइन करते हाथ

अपने भविष्य की इबारत लिखते हुए समीना के हाथ अब नहीं कांपते । सुनहरे अक्षरों में उसका भविष्य चमचमाता नजर आता है । ग्राफिक डिजाइनिंग का कोर्स भले ही दूसरे बच्चों के लिए एक सामान्य-सी बात हो, लेकिन समीना के लिए यह आने वाले कल का सपना है ।
समीना जैसी बच्चियों के लिए ग्राफिक डिजाइनिंग का यह कोर्स क्यों इतना महत्वपूर्ण है, यह समझने के लिए सच्चर समिति की रिपोर्ट को देखा जा सकता है । समिति की सिफारिशों में कहा गया है कि मुस्लिम समाज में ६से १४ साल के बीच के २५ प्रतिशत बच्चों ने या तो कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा या उन्होंने किसी न किसी वजह से स्कूल की पढ़ाई अधूरी छोड़ दी । समीना भी ऐसी ही एक बच्ची है, जिसने सातवीं के बाद स्कूल छोड़ दिया था । पर अब वह वेलकम, दिल्ली में स्थित मदरसा जीनतुल कुरान में ग्राफिक डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है और सोचती है कि एक दिन अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी ।
कभी सिर्फ धार्मिक शिक्षा देने के लिए बनाए गए मदरसों ने अब समय के अनुसार चलना शुरू कर दिया है । देश में ऐसे कई मदरसे हैं, जो शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक तालीम भी दे रहे हैं । मदरसा जीनतुल कुरान भी ऐसे ही कर रहा है । यहां उर्दू, अरबी में ग्राफिक डिजाइनिंग के अलावा डेस्कटॉप पब्लिशिंग भी सिखाई जाती है । लड़कियों को सिखाने के लिए महिला अध्यापिकाएं हैं, जिसकी वजह से परंपरागत परिवारों के लिए अपनी लड़कियों को यहां भेजना मुश्किल नहीं होता ।
समीना कहती हैं, ‘महिला अध्यापिकाओं की वजह से ही मेरे अब्बा इस बात के लिए तैयार हुए कि मैं यहां आकर ग्राफिक डिजाइनिंग का कोर्स करूं, हालांकि उन्होंने अच्छी पढ़ाई करने के बावजूद मुझे सातवीं के बाद स्कूल से हटा दिया था । ’ वैसे लड़कियों के लिए तालीम का मतलब सिर्फ करियर बनाना नहीं है । उन्हें आज के समाज में खुद की पहचान बनाने के लिए भी पढ़ाई करनी चाहिए । जामिया मिल्लिया इस्लामिया से ग्रेजुएशम करने वाली मेहरून्‍निसा कहती हैं, ‘मैं मानती हूं कि अच्छी तालीम लेने से हम दुनिया को सही नजरिए से देख सकते हैं । यह किसी भी लड़की के लिए जरूरी है । लड़कियां परिवार की धुरी होती हैं । अगर वे पढ़ी-लिखी होंगी तो परिवार की तरक्‍की होगी । ’
मजहब और रवायत से आगे बढ़ कर भी जाना चाहिए । टीवी ऐक्ट्रेस निगार जेड खान कहती हैं, ‘जब आप एक बड़े दायरे में जाते हैं तो कई बार आपसे कोई यह नहीं पूछता कि आपका मजहब क्या है । तब आपकी काबिलियत देखी जाती है । अगर लड़कियों को अच्छी तालीम नहीं मिलेगी तो वे काबिल नहीं होंगी । फिर दुनिया के सामने टिकने की हिम्मत भी उनमें नहीं आएगी । ’ आंकडे कहते हैं कि मुसलमानों में साक्षरता दर ५९.१ प्रतिशत है । यह दर भी प्राथमिक शिक्षा तक सीमित है । उच्च शिक्षा के लिहाज से देखा जाए तो सिर्फ चार प्रतिशत मुसलमान युवा ही ग्रेजुएशन या दूसरे प्रोफेशनल कोर्स करते हैं ।
इस दिशा में मदरसा जीनतुल कुरान की मिसाल दी जा सकती है । इसके प्रमुख मुहम्मद सलीम अंसारी कहते हैं, ‘कम साधनों के बावजूद हम कोशिश करते हैं कि बच्चों को कोई परेशानी न हो । वे पूरी तालीम ले सकें । ’ वैसे मदरसा पांचवीं तक की तालीम भी बच्च्चों को मुहैया करता है ।
- मानस