Monday, November 2, 2009
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन
चुनावी राजनीति से दूर रहते हुए भारतपरस्त और गरीबपरस्त राजनीति के लिए मुहिम
वर्ष २००४ में चौदहवीं लोकसभा के परिणाम घोषित किए गए । एनडीए की पराजय और यूपीए की जीत लोगों के लिए विश्मयकारी थी । सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री बनना तय हो चुका था । पराजय से पस्त हुयी भाजपा और उसके सहयोगी संगठन चाहकर भी कुछ करने की स्थिति में नहीं थे । लेकिन तभी भाजपा से किनारा कर चुके उसके पूर्व महासचिव के. एन. गोविन्दाचार्य सामने आए और उन्होंने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घटना का विरोध किया । अपने विरोध को तेज करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का गठन किया ।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की घोषणा से देश के उन करोड़ों लोगों को एक आवाज मिली जो सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से अत्यंत चिंतित थे । यही कारण था कि बिना किसी सांगठनिक आधार के भी इस मुद्दे पर देश भर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए । टी.वी. चैनलों, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं एवं लोगों की आपसी चर्चा में यह मुद्दा पूरी तरह छा गया । १८ मई, २००४ को जंतर-मंतर पर विशाल प्रदर्शन हुआ और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम से मिला । आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक के नाते के. एन. गोविन्दाचार्य भी प्रतिनिधि मंडल में सम्मिलित थे । राष्ट्रपति ने उनकी बात पूरे ध्यान से सुनी और आवश्यक कार्यवाही करने का आश्वासन दिया । इसके बाद जो घटनाएं घटीं, उसमें राष्ट्रपति महोदय की विशेष भूमिका रही । समाचार पत्रों में जो रिपोर्टें छपीं, उनके अनुसार सोनिया गांधी ने ‘अंतरात्मा’ की आवाज सुनी और प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ दी ।
इस सफलता के बाद गोविन्दाचार्य और उनके सहयोगियों ने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को एक स्थायी मंच के नाते आगे बढ़ाने का निश्चय किया । इस विषय पर पूछे जाने पर गोविन्दाचार्य ने बताया कि “हमने महसूस किया कि तात्कालिक रूप से खतरा निश्चित रूप से टल गया है, किंतु वे सभी कारण अभी भी मौजूद हैं जिनके चलते देश का नेतृत्व एक विदेशी महिला के हाथों में जाने की संभावना उत्पन्न हो गई थी । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमने तय किया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को एक ऐसे स्थायी मंच के रूप में विकसित किया जाए जहां से भारतपरस्त और गरीबपरस्त राजनीति की बात हो । दूसरे शब्दों में यदि कहें तो निरंकुश और जन आकांक्षाओं से दूर होती जा रही राजसत्ता को अंकुश में रखते हुए उसे जनाभिमुख बनाना राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का मुख्य उद्देश्य है । चुनावी राजनीति में अपने को उलझाए बिना यह आंदोलन सरकारों की जनविरोधी प्रवृत्तियों का विरोध करने का माध्यम बने, हमेशा हमारी यही कोशिश रही है । अपनी स्थापना से लेकर अब तक हम ढृढ़संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं । ”
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की खासियत यह है कि इसके द्वारा उठाए गए मुद्दे जमीन से जुड़े होते हैं । किसानों और छोटे व्यापारियों के खिलाफ सरकार ने जब-जब कोई हानिकारक नीति बनायी, तब-तब आंदोलन के लोगों ने उसका विरोध किया । सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी, कालाबाजारी के खिलाफ आंदोलन लगातार सक्रिय रहा । विकास के नाम पर गरीब लोगों को बेघर करने का भी विरोध किया गया ।
अलख यात्रा :
वर्ष २००७ अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिए आंदोलन की और एक व्यवस्थित जन-अभियान चलाने का निर्णय लिया गया । इसके लिए बिहार को चुना गया । संघ के प्रचारक के रूप में गोविन्दाचार्य ने बिहार में काफी लंबे समय तक काम किया था । जेपी आंदोलन के दौरान भी बिहार में उनकी सक्रिय भूमिका थी ।
मीडिया की चकाचौंध से दूर ६ मार्च २००७ को जब बक्सर से अलख यात्रा शुरु हुई तो उस समय बहुत कम संख्या में लोग थे । जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ी, स्थानीय लोगों की अच्छी-खासी संख्या इससे जुड़ने लगी । इस यात्रा में गोविन्दाचार्य के साथ कई कवि, साहित्यकार एवं समाजसेवी भी चले । सभी का संदेश यही था कि समाज अपनी शक्ति को पहचाने । राज्यसत्ता के प्रति अनावश्यक आसक्ति को सभी लोगों ने नुकसानदेह बताया । पूरी यात्रा के दौरान लोग बक्सर के अलावा छपरा, सिवान, गोपालगंज, मोतिहारी, बेतिया, शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णियां और अररिया जिलों में गए और वहां के लोगों से संवाद स्थापित किया । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के बैनर तले आयोजित इस यात्रा ने बिहार के लोगों को राजनीति से हटकर सोचने के लिए प्रेरित किया । इन जिलों में आज आंदोलन के कई कार्यकर्ता व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के अंतर्गत विभिन्न रचनात्मक एवं आंदोलनात्मक गतिविधियों से जुड़कर राष्ट्र निर्माण के कार्य में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं ।
गौसंरक्षण के लिए प्रयास:
कुछ दशक पहले तक गौवंश को भारत में एक सामान्य पशु नहीं बल्कि दैवी उपहार माना जाता था जिसे लोग समृद्धि का पर्याय समझते थे । लेकिन, दुर्भाग्यवश गौवंश आज विनाश के कगार पर है । देश का सत्ता प्रतिष्ठान शेर-भालू बचाने के लिए तो बहुत परेशान है, परन्तु गौवंश को बचाने की उसे कोई चिंता नहीं है । संकरीकरण और कत्लखानों की मार झेलते हुए कई भारतीय गौवंश प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं । कुछ ही वर्ष पहले तक हमारे यहां उपलब्ध ५० भारतीय गौ प्रजातियों में से केवल ३३ प्रजातियां ही आज बची रह गई हैं ।
भारतीय गोवंश के सम्मुख जो विकट स्थिति है, उसका समाधान ढूंढने के लिए कई स्तर पर प्रयास हो रहे हैं । लेकिन समस्या यह है कि इन सभी प्रयासों में आपसी तालमेल नहीं है । इस बात को समझते हुए कर्नाटक स्थिति श्री रामचन्द्रपुर मठ के जगद्गुरू श्री श्री राघवेश्वर भारती जी ने भारतीय गौवंश के संरक्षण में लगे लोगों को एक मंच पर लाने और जनसाधारण के बीच इस बारे में जागरूकता फैलाने के लिए शिमोगा में २१ अप्रैल से २९ अप्रैल, २००७ के दौरान विश्व गौ सम्मेलन का आयोजन किया । इस अनूठे विश्व गौ सम्मेलन में देश-विदेश से लाखों गौभक्तों ने भाग लिया । सम्मेलन का आयोजन अपने आप में एक चुनौती थी । इस विशाल आयोजन की तैयारी के लिए बंगलरू, दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में कार्यालय खोले गए । नौ दिन चले सम्मेलन के सफल आयोजन के पीछे मठ के शंकराचार्य स्वामी राघवेश्वर भारती की साधना का मुख्य योगदान रहा । उनकी प्रेरणा से इस आयोजन में देश के कई संगठन भी लगे थे । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को भी इस आयोजन में कुछ सहयोग करने का अवसर मिला ।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन गोवंश की रक्षा और संवर्धन के प्रति प्रतिबद्ध है । इसके लिए गोपालन और गोवंश के संवर्धन में लगी सज्जनशक्ति के सहयोग से एक स्पष्ट कार्ययोजना तैयार की जा रही है जिसे आने वाले दिनों में मूर्त रूप दिया जाना है ।
किष्किंधा बैठक :
अपनी स्थापना के बाद राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने जनहित से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर देश के कोने-कोने में आंदोलन किए हैं । चूंकि ये आंदोलन राज्य की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध होते हैं, इसलिए राजसत्ता से उसके संबंधों के बारे में स्पष्ट नीति बनाने की जरूरत महसूस की जा रही थी । इसी प्रकार यह प्रश्न भी कार्यकर्ताओं के मन में उठ रहा था कि क्या आंदोलन को एक सांगठनिक आधार देने से इसे और बल मिलेगा । इन्हीं मुद्दों पर चर्चा के लिए २१-२३ अगस्त, २००७ को भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमान जी की जन्म स्थली किष्किंधा में राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का आयोजन किया गया । वर्तमान समय में किष्किंधा क्षेत्र कर्नाटक राज्य के कोपल जिले में स्थित है । कार्यक्रम की मेजबानी श्री कोत्तल बसवेस्वर भारतीय शिक्षण समिति, सेडम की ओर से की गई । किष्किंधा में संगठन के स्वरूप और भावी योजनाओं के बारे में व्यापक चर्चा हुई । इस दौरान जहां एक ओर इस बात पर सहमति बनी कि वर्तमान राजनीति जनता से कटकर कुछ राजनेताओं की स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन गई है, वहीं इस बात को भी रेखांकित किया गया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन एक राजनीतिक दल के नाते कभी भी चुनावी राजनीति में हिस्सा नहीं लेगा । किंतु राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के मूल्यों और मुद्दों को आधार बनाते हुए यदि कोई मंच, मोर्चा या राजनीतिक दल, चाहे वह पुराना हो या नया, आगे आता है तो उसका स्वागत एवं समर्थन किया जाना चाहिए । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत स्तर पर राजनीति के क्षेत्र में नए प्रयोग एवं नई पहल करने की छूट दी गई, लेकिन साथ ही एक मंच के नाते राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को दलगत राजनीति से दूर रखने का संकल्प लिया गया ।
आंदोलन के सांगठनिक ढांचे को लेकर भी व्यापक चर्चा हुई और अंततः यह निर्णय लिया गया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को एक कसे हुए सांगठनिक ढांचे में बांधने की जरूरत नहीं है । प्रतिभागियों ने कई संगठनों का उदाहरण देते हुए इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया कि औपचारिक संगठन बनने के बाद प्रायः संगठन अपने मुद्दों और अपने उद्देश्यों से भटक जाते हैं । समाज का संगठन धीरे-धीरे समाज में संगठन बन जाता है । समाज में आवश्यक परिवर्तन के लिए उत्प्रेरक की भूमिका से हटकर सर्वज्ञ संचालक या नियंत्रक की भूमिका में आने की इच्छा होने लगती है । और इसके लिए आवश्यक सामर्थ्य जुटाने की कोशिश शुरू हो जाती है । समाज के लिए साधन बनने के बजाय संगठन स्वयं साध्य बन जाते हैं । इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए प्रतिनिधियों ने यह तय किया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन एक ऐसे संगठन के रूप में कार्य करे जिसमें पर्याप्त लचीलापन हो । आदेश और आज्ञापालन अर्थात हाईकमांड संस्कृति से दूर होकर यह संगठन साहस, पहल और प्रयोग के सिद्धांतों पर चले । एक ऐसी व्यवस्था बनाने पर जोर दिया गया जिसमें सक्रिय एवं अच्छे लोग आसानी से आ सकें और साथ ही निष्क्रिय एवं संदेहास्पद लोग स्वाभाविक तरीके से बाहर हो सकें । इन निदेशक बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया कि संगठन की संरचना राष्ट्रीय, प्रांतीय एवं जिला स्तर पर होगी और प्रत्येक स्तर पर कार्यकर्ता अपने में से ही संयोजक एवं सह संयोजक का आम सहमति से चुनाव करेंगे ।
गंगा मुक्ति अभियान:
राष्ट्रीय स्वाभिमान उन सभी संगठनों एवं व्यक्तियों के समर्थन में सदैव खड़ा रहा है जो सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरोध में आवाज उठाते हैं । अभी पिछले दिनों गंगा में बढ़ते प्रदूषण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन ने गंगा महासभा के साथ मिलकर गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा का आयोजन किया । १ फरवरी, २००८ को पश्चिम बंगाल में गंगासागर में शुरू हुयी यह यात्रा गंगातटीय २८ शहरों से होते हुए २ मार्च को हरिद्वार में पूरी हुयी । जब गुरूदास अग्रवाल ने जन जागरण और संघर्ष के रास्ते गंगा के लिए अलख जगाया तब भी आंदोलन के लोग उनके साथ थे । मां गंगा की रक्षा के मसले पर देश भर के लोग जिस तरह एकजुट हुए वह निश्चय ही हौसला बढ़ाने वाला रहा ।
इस अनशन का असर यह हुआ कि देश भर के लोगों को गंगा के संबंध में काम किए जाने की जरूरत महसूस हुयी । देश के कई हिस्सों में लोगों ने मां गंगा को बचाने के लिए संघर्ष की शुरूआत भी कर दी है, जो एक सुखद संकेत है । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का मानना है कि गंगा मईया के लिए हम सबको जनजागरण और जनसंघर्ष के रास्ते आगे बढ़ना होगा । इसी को आगे बढ़ाने के मकसद से इसके लोग समविचारी संगठनों के साथ साझा रणनीति बनाने का प्रयास कर रहे हैं ।
बौद्धिक कार्यक्रमों का आयोजन:
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की भूमिका धरना प्रदर्शन और आंदोलन के साथ-साथ बौद्धिक गतिविधियों में भी रही है । देश की भावी तस्वीर कैसी हो, उसके लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए । यह प्रश्न प्रायः उठाया जाता रहा है । इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने की दिशा में सार्थक पहल करते हुए राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन ने देश के अन्य समविचारी संगठनों के सहयोग से सभी प्रमुख शहरों में वैकल्पिक व्यवस्था से जुड़े विभिन्न विषयों पर सेमिनार एवं विचार गोष्ठियां आयोजित कीं । जुलाई, २००८ से शुरू हुआ यह सिलसिला छः महीनों तक चला । कई महत्वपूर्ण विषय जैसे जल, जंगल, जमीन, जानवर, खेती, रोजगार से लेकर प्रतिरक्षा, सांस्कृतिक प्रदूषण, ऊर्जा, मौजूदा संविधान की प्रसांगिकता, कर व्यवस्था, न्यायपालिका के बारे में गोष्ठियां विशेष रूप से लाभप्रद रहीं । इन गोष्ठियों में प्राप्त विचारों को ध्यान में रखते हुए सभी विचारित विषयों पर नीतियां बनाने और फिर उन नीतियों को साकार करने की योजना है ।
देश भर में जो गोष्ठियां आयोजित की गयीं, उसमें दिल्ली में ‘मीडिया के भूमंडलीकरण’ पर आयोजित गोष्ठी बहुत महत्वपूर्ण रहीं । इसमें हर किसी ने माना कि पत्रकारिता अपनी राह से भटक गई है । जो पत्रकार अब तक मौजूदा दौर की पत्रकारिता को ही सही ठहराते थे, वे पहली बार रक्षात्मक मुद्रा में दिखे और गलती स्वीकार की । ऐसे ही भोपाल में ऊर्जा के मसले पर बड़ी सार्थक चर्चा हुई । यहां यह बात उभर कर सामने आई कि हमें अपनी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए वैकल्पिक साधनों की तलाश के साथ-साथ उन्हें बढ़ावा भी देना चाहिए । सभी गोष्ठियों में सज्जन शक्ति की सहभागिता को देखते हुए एक बात ध्यान में आयी कि अगर समान विषय पर काम रहे अलग-अलग लोग एक साथ मिलकर कोई पहल करें तो समाज को इसका बहुत लाभ मिल सकता है ।
मिलजुल कर काम करने का प्रयास:
वास्तव में राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की लड़ाई एक लंबी और जटिल लड़ाई है । यह मानना है आंदोलन के अंयोजक श्री के. एन. गोविन्दाचार्य का जो कहते हैं, “इस लड़ाई को भारत की जनता को अपने स्तर पर लड़ना है । राजव्यवस्था देश के स्वभाव और आवश्यकता को ध्यान में रखकर सहयोग करें, इस हेतु राज्यकर्ताओं का मानस और उनकी समझ बने, राज्य का ढांचा, तरीका, कानून और संविधान उस अंतिम आदमी के हित और हक के पोषण का कार्य कर सके, यह आवश्यक है । इस सबके लिए राज्य व्यवस्था का क्रमेण रूपान्तरण एक जरूरत है और चुनौती भी । इस चुनौती को स्वीकार करना किसी एक व्यक्ति या संगठन के जिम्मे नहीं लगाया जा सकता है । इस चुनौती को तो भारत के जन-जन को स्वीकार करना पड़ेगा । यह लड़ाई जनता की लड़ाई होगी । सामाजिक रूप से सक्रिय लोग इस लड़ाई को केवल दिशा देने का कार्य करेंगे । राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की भूमिका को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए । ”
-के.एन. गोविन्दाचार्य
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