Monday, August 3, 2009

“बलिदान यह तुम्हारा” के रचयिता राष्ट्रकवि जय सिंह आर्य

“बलिदान यह तुम्हारा” के रचयिता जय सिंह आर्य कहते हैं-
लगभग सात वर्ष पूर्व प्रकाशित मेरे गीत संग्रह “गीत लहरी” को आप लोगों ने जो स्नेह व सम्मानजनक स्थान दिया है, आपके इस स्नेहिल सहयोग के परिणाम के रूप में मेरा यह नया गीत संग्रह “बलिदान यह तुम्हारा” प्रस्तुत है । गत सात वर्षों में सुधी पाठकों तथा विद्वतजनों के लगभग दो सौ पत्र मुझे प्राप्त हुए और पाठकों की मांग पर “गीत लहरी” का दूसरा संस्करण सन्‌ १९८८ में प्रकाशित हुआ । आपके पत्रों द्वारा तथा मौखिक सुझावों ने मेरी लेखनी को धार देकर और पैना कर दिया है । यह तो मैं पहले भी स्वीकार कर चुका कि पिंगल शास्त्र, रस, छन्द आदि काव्य के कला पक्ष पर अधिक अधिकार न होते हुए भी मैने गुरूदेव डॉ. श्यामनन्द सरस्वती की विशेष अनुकम्पा से रचनाओं को अधिक समर्थ सरस एवम्‌ छन्दमय बनाने का प्रयास किया है । मैं अपने चारों ओर के सामाजिक व राष्ट्रीय परिवेश को खुली आँखों से ही देखता हूँ और उसी की भीतरी प्रतिक्रिया कलम से फूट पड़ती है । यद्यपि मेरे भीतरी विचार मंथन से उपजी अभिव्यक्‍ति से प्रत्येक व्यक्‍ति का सहमत होना या प्रभावित होना आवश्यक नहीं है । क्योंकि मैं एक आम आदमी हूँ तथा आम आदमी की परिस्थितियां, समस्याएं, पीड़ा, आक्रोश, विवशता को मैंने सिद्दत के साथ भोगा है । इसलिए मैं नैतिक पतन, दिरभिसँधियों, गिरते राष्ट्रीय चरित्र को अनदेखा नहीं कर सकता हूँ और यही कारण है साहित्यकारों की विशिष्ट सूची में अपना नाम अंकित कराने का अपना मोह त्याग कर मैने जनसामान्य की सोच का प्रतिनिधित्व करते हुए उसे जागृत कर राष्ट्र व समाज के प्रति निष्ठावान बनाने के प्रयास को प्राथमिकता दी है । मैं अपने इस प्रयास में कितना सफल रहूँगा यह तो काल के गर्भ में है, हाँ इतना अवश्य है कि यदि कुछ लोगों तक भी चेतना का स्वर पहुँचा सका तो मैं स्वयं को धन्य समझूंगा । कयोंकि मैं तो स्वयं को जनसाधारण के रोष, दर्द व चिंतन को स्वर प्रदान करने वाला माध्यम मात्र समझता हूँ इसलिए मुझे आपके सहयोग, सुझाव तथा स्नेह की विशेष आवश्यकता है । अपने विचार भेजकर मेरी कलम को सम्बल प्रदान करेंगे ।
समीक्षक संतोष आनंद के अनुसार -
श्री जयसिंह आर्य की नवीनतम कृति “बलिदान यह तुम्हारा” अपने मौलिक रूप में है । मैंने इस पांडुलिपि को बड़े ध्यान और सम्मान से पढ़ा है । श्री आर्य मेरी दृष्टि में एक जन्मजात कवि हैं । जीवन की विसंगतियों से संघर्ष करते-करते वह एक समर्थ कवि बन गये हैं । सबसे बड़ी बात है उनके गीतों की सहजता । जैसे भाव उनके अनुरूप वैसे ही शब्द, ऐसा लगता है जैसे भाषा एक स्रोत के रूप में उनकी कलम से झरती चली जा रही हो । जो कवि होते हैं उनकी संरचना की यही स्वाभाविकता होती है । गीत और छन्द पर उनका विशेष अधिकार है जहाँ राष्ट्रभक्‍ति के गीतों में वह अपने शब्द संयोजन को तलवार का एक पैनापन प्रदान करते हैं । उनके गीतों में शहीदों के प्रति एक अनूठा अनुराग है । उनके प्रति जहाँ श्री आर्य के मन में संवेदना और करूणा की भावना है वहाँ उनके बलिदान से प्रेरित होकर राष्ट्र के प्रति स्वयं के समर्पण की भी भावना है । उनकी दो पक्‍तियाँ द्योतक हैं -
सत्य है शहीदों यह सत्य बात जानो बलिदान यह तुम्हारा हरगिज न व्यर्थ होगा
मेरी सदैव से यह मान्यता रही है कि जिस कवि के हृदय में मानवीय प्रेम नहीं है उसके हृदय में राष्ट्र के प्रति भी प्रेम नहीं हो सकता अर्थात्‌ कविता की मूल जरूरत ‘प्रेम’ है । यह अनुभव श्री जयसिंह आर्य में कूट-कूट कर भरा है । उनकी एक-एक पंक्‍ति जैसे चीख-चीख कर रही हो, प्रेम को अपनाओ और देश को बनाओ, कुर्बानी के गीत, बलिदानों के गीत, समर्पण के गीत लिखने में ईश्‍वर-प्रदत्त महारथ हासिल है । उनकी चार पंक्‍तियाँ मेरे हदय में जैसे घर कर गई हैं-
दुश्मन के घर में घुसकर आँधी बनकर जिसने अपना साहस कौशल दर्शाया दूध छटी का याद दिलाया डायर को वह ऊधम था भारत माता का जाया
श्री जयसिंह आर्य देहात में जन्मे मॉटी पुत्र हैं । उनके गीतों में मॉटी की सुगन्ध आना स्वाभाविक है । ग्राम्य सौन्दर्य को उन्होंने गीतों में बहुत अच्छी तरह संजोया है । ग्राम्य परिवेश के मुहावरे एवम्‌ लोकोक्‍तियों को अपने छन्दों में बहुत ही कारीगरी से इस्तेमाल किया है । उदाहरण के तौर पर
अमुवा की डारी पीपल की छाँव चल मेरे मनवा चल अपने गाँव बरगद के नीचे बचपन है खेला सावन में तीजन-तीजन का मेला चन्दन सी मॉटी, मॉटी में पाँव चल मेरे मनवा चल अपने गाँव
श्री जयसिंह आर्य के अन्तर मन में सामाजिक क्रिया भरपूर काम करती रहती है । राष्ट्र की खामियों को भी उनकी ज्वलन्त पंक्‍तियाँ भरपूर उजागर करती हैं-
दया धर्म से अपना रिश्ता मानव ने अब तोड़ा है गद्‌दारी और मक्‍कारी से उसने नाता जोड़ा है आशाओं पर निर्ममता का भीषण आज प्रहार हुआ मानवताकी पांचाली का चीरहरण हर बार हुआ अपने शव को अपने कंधे पर ही निशदिन मानव ढोता बीज फूट के इस धरती पर मानव बार-बार क्यों बोता
कोई कविताछोटी बड़ी नहीं होती है । श्री जयसिंह आर्य का हृदय जब क्रोंच पंछी की तरह आहत हुआ है तभी उनकी कलम से एक सच्ची एवम्‌ निर्मल कविता का जन्म हुआ है । जब भी वह प्रकाश को पाने निकले हैं तभी उन्हें अन्धकार का सामना करना पड़ा । लेकिन उनकी अधिक इच्छा सदैव अन्धकार को परास्त करती आई और अपने सतत्‌ संघर्ष से रोशनी को मुट्‌ठी में बांध लाई है । तूफानों एवं झंझावातों से लड़ते रहने की वृत्ति उनकी कविताओं की कुलबुलाहट में भाँति-भाँति परिलक्षित होती है -
पैदा जिसने वीर किये हैं नमस्कार उस माटी को प्राण लुटाकर जीवित रखा भारत की परिपाटी को तूफानोंसे सदा खेलते प्रहरी हिन्दुस्तान के ।
नियति का निर्णय सदैव उनके पक्ष में जाता है जो निरन्तर श्रम एवम्‌ लगन से अपने कर्तव्यों को प्रतिष्ठित एवम्‌ प्रतिपादित करते हैं । इन्हीं गुणों को देखकर मैं यह बात बेबाकी के तौर पर कह सकता हूँ कि श्री जयसिंह आर्य अभी बहुत आगे जायेगें उनकी कुछ कर गुजरने की सिद्‌दत है । मेरी हार्दिक कामना है कि उनकी पवित्र एवम्‌ बिना रूके चलने वाली कलम से भविष्य में एक से एक गरिमापूर्ण काव्य ग्रन्थों की रचना साकार हो । यह मेरी कामना ही नहीं मेरे भीतर का अटूट विश्‍वास भी है । “बलिदान यह तुम्हारा” अब पाठकों के समक्ष है । मेरी अन्तर आत्मा बोल रही है कि यह पुस्तक जन-जन के मन में समा जायेगी । मेरी यह हार्दिक शुभकामना है कि श्री जयसिंह आर्य की यह संरचना कालजयी बने ।
अखिल भारतीय साहित्य परिषद के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष डॉ. देवेन्द्र आर्य कहते हैं-
लगभग १५-२० वर्ष पहले की बात है । राणा प्रताप बाग दिल्ली में आयोजित एक कवि सम्मेलन में जयसिंह आर्य से मुलाकात हुई, सामान्य सा परिचय हुआ, कोई विशेष बात नहीं थी पर जब श्री जयसिंह आर्य कविता पढ़ने खड़े हुए और मधुर स्वर में सिंह नादी मुद्रा में गीत के बोल वायुमंडल में थिरकने लगे तो उपस्थित सारा समाज चमत्कृत हो उठा । मेरे सारे शरीर में सिहरन दौड़ गई, रोमांच हो आया । मधुर स्वरों में कवि आग उगल रहा था, सारा गीत देश को समर्पित था । शब्द-शब्द का सारल्य उत्तेजना बन शिराओं में समा रहा था । बहुत देर तक मैं खोया-खोया सा बैठा रहा । तालियों के अनवरत स्वर से मेरी तन्द्रा टूटी । मैंने सार्थक गीत और प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए कवि की पीठ थपथपाई । सामान्य परिचय अब मित्रता में बदल गया था। इसके बाद अनेक मंचों पर ‘जय’ का जय अभियान देखा-सुना है और हर बार इस कवि ने अपनी कविता और प्रस्तुतिकरण से प्रभावित किया है । वस्तुतः यह कवि माटी की सौंधी सुगन्ध से जुड़ा कवि है । राष्ट्र-प्रेम इसकी शिराओं में खनकता है, लहू बनकर प्रवाहित होता है । भाव जब पूरे वेग के साथ कंठ से ही नहीं हृदय से भी निकलता है तो अलंकारों, बिम्ब और प्रतीकों की कृत्रिम डगर छोड़कर अभिव्यक्‍ति का राजपथ, जनपथ ग्रहण कर जन-जन को आन्दोलित करने मचल उठता है, उस समय छन्द के बन्धन भी शिथिल से हो जाते हैं, वस्तुतः भावरूपी उमड़ते ज्वार भाटों के समक्ष सभी बन्धन या तो शिथिल हो जाते हैं या टूटकर किनारे हो जाते हैं । जयसिंह आर्य ऐसी ही ऊर्जा के कवि हैं । आक्रोश है तो सार्थक, भोर की प्रथम किरण सा संस्पर्श है तो स्तुत्य, फूलों की वासन्ती गंध है तो हृदय को गुदगुदाती सी, बांसुरी की मधुर लय है तो जमुना जल में थिरकतीसी, नगाड़े पर चोट है तो अरि दल मर्दन करती सी । सच पूछो तो मुझे इस कवि का आक्रोश भी अच्छा लगताहै और स्नेहमय लालित्य भी- और भला जिसने देश पर सर्वस्व बलिदान करने का प्रण लिया हो, सर पर कफन बांधकर एकाकी निकल पड़ा हो, उस पर क्या कुछ न्यौछावर नहीं किया जा सकता? एक बात विशेष रूप से ‘जय’ के गीतों में देखी जा सकती है, वह है राष्ट्र-प्रेम के साथ-साथ उनका विसंगतियों की ओर भी सजग रहना । समाज में उग्रवाद, भ्रष्टाचार, दुराचार, राजनैतिक पतन, अनैतिकता, समष्टिभाव का अभाव, नपुंसकता की हद तक झुकी समझौतावादी कायरता आदि को ‘जय’ ने खुली आँखों से देखा-परखा है ।
वे देश के प्रति पाठक को जागृत करने के लिए सवाल उठाते हैं- दनदनाती चल रही है गोलियाँ हर नगर में जालिमों की टोलियाँ जल गया ये देश तो फिर शेष क्या?
“फिर शेष क्या” एक विराट प्रश्न आपके समक्ष प्रस्तुत किया गया है । यह शाश्‍वत प्रश्न उसके लिए कहीं ज्यादा महत्व का है जिसका उद्देश्य है ः- जिस धरती पर जन्में उसका कर्ज चुकाना है गद्दारों का इस धरती से बीज मिटाना है
कवि का यह पुरातन आदर्श देश, उसकी शाश्‍वत परम्पराएं कहीं खो गई हैं ः-वह कहता है ः- देख लेना राष्ट्रका उद्धार होगा एक दिन हर मनुज को हर मनुज से प्यार होगा एक दिन
इसके लिए उसे कहना पड़ा ः- माँगे जो देश जान तो हँस के जान दें निज आन, बान, शान की ऊँची उड़ान दें
यूं तो कवि ने अनपढ़ प्यार की सुहानी गंध को भी बहुत करीने से उकेरा है ः-“रूक जा रे मनिहार” लोक गीत के माध्यम से अपने प्रिय को प्रेमपुष्प का भावपूर्ण समर्पण किया है ।
‘जय’ ने अधिकार गीतों में भारतीय वीरों की गौरव गाथा को ही बार-बार प्रणाम किया ः- जो वीर लहू से सींच गये भारत के आँगन का उपवन, उन वीर-शहीदों को मन से करता हूँ मैं शत बार नमन,
जयसिंह आर्य ‘जय’ सम्पूर्ण भावेन राष्ट्र पर समर्पित है और मुझे उसका यह रूप सबसे ज्यादा प्रभावित करता है ।कवि आयु से ही नहीं कविता से भी यौवन काल में चल रहा है यानि कि कवि में अनन्त सम्भावनाएं हैं । ऊपर उठने की हिमालय की बुलन्दी और गगन सा विस्तार है । दृढ़-संकल्पी ‘जय’ में सागर की गहराई और ऊर्जा का अनन्त स्रोत है । देखें भविष्य को और कैसे संवारते हैं । वर्तमान तो कवि का गीत की समृद्ध गलियों में मुस्करा रहा है । सचमुच मैं जयसिंह आर्य ‘जय’ के सुखद वर्तमान से सन्तुष्ट हूँ ।
भविष्य के लिए आशान्वित हूँ - उत्साहित हूँ ।

3 comments:

  1. श्री जयसिंह आर्य के बारे और उनकी रचनाओ तथा शैली के बारे मे जानकारी जो दी है उसके लिये धन्यवाद. बलिदान तुम्हारा अवश्य ही पाठको के मन मे छाप छोडेगी येसा मेरा विश्वास है. शुभकामनाये.
    प्रतिबिम्ब बडथ्वाल
    www.merachintan.blogspot.com

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  2. आपका बहुत बहुत आभार श्री जयसिंह आर्य के बारे में इस विस्तृत जानकारी का.

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