Saturday, September 18, 2010

कश्मीर का दर्द



बरसों से कह रहे हैं पर कोई सुनता ही नहीं
लोग प्रदर्शन क्यों करते हैं? जवाब सरल है वे अपनी बात रखना चाहते हैं? लोग विरोध क्यों करते हैं? जाहिर है जब उनके साथ कुछ गलत होता है । घाटी के लोगों के साथ गलत भी हुआ और फिर किसी ने उनकी सुनी भी नहीं । जब वे हालात से मजबूर होकर सड़कों पर उतर आए तो उन्हें कुचलने की कोशिशें भी की गईं । ऐसे में आग भड़केगी नहीं तो क्या होगा? पर कश्मीर में आज जो ज्वाला दहक रही है उसकी चिंगारी तो दशकों पहले सुलग गई थी ।

महाराजा हरीसिंह के शासनकाल में कश्मीर की राजनीति में गहमागहमी मची हुई थी । बहुसंख्यक होने पर भी मुस्लिम समुदाय अत्याधिक पिछड़ा अनपढ़ और गरीब था । इन अन्याय को लेकर कहीं-कहीं से दबी हुई आवाजें उठने लगी थीं । इन आवाजों को बल मिला १९३० में शेख अब्दुला के सियासत की राजनीति में कदम रखने से ।

पहले-पहल 1939 में लोगों का गुस्सा भड़का, जब उत्तर प्रदेश से आए कट्‌टरपंथी नेता अब्दुल कादिर ने श्रीनगर की जामा मस्जिद में भड़काऊ भाषण देते हुए लोगों को महाराजा के खिलाफ जेहाद छेड़ देने को कहा । इस एवज में उनको गिरफ्तार कर दिया गया । इस वाक्ये से महाराज की नींद खुली और इन्होंने रियासत के विभिन्‍न इलाकों से शेख अब्दुल्ला, मौलाना मसूद मौ० यूसुफ शाह समेद लोगों के १७ प्रतिनिधियों को वार्ता के लिए बुलाया । पर ये वार्ता विफल हो गई नतीजतन इन नेताओं ने लोगों से विद्रोह जारी रखने की अपील की । ये सब देखते हुए महाराज ने सभी १७ नेताओं को गिरफ्तार कर दिया । फिर क्या था लोग सड़कों पर उतर आए और लगातार १७ दिनों तक कश्मीर में जनजीवन ठप हो गया । आखिरकार मजबूर होकर सरकार को सभी नेताओं को रिहा करना पड़ा ।

13 जुलाई 1939 को कश्मीर की राजनीति हमेशा के लिए बदल गई । अब्दुल कादिर पर मुकदमे के दौरान भारी भीड़ ने श्रीनगर की सेंट्रल जेल पर धावा बोल दिया । भीड़ को खदेड़ने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाना शुरू कर दिया, जिसमें 7 लोगों की जान चली गई । इन लोगों को दफन करते समय प्रदर्शन में और 10 लोग पुलिस की गोली का शिकार हुए । रातों-रात शेख कश्मीर के निर्विवादित नेता घोषित कर दिए गए । और घाटी में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जोर पकड़ने लगा । 2 सितम्बर 1939 को महाराजा ने शेख को श्रीनगर के हरिप्रभात महल में कैद कर दिया । ये सब अभी थमा नहीं था कि भारत, पाकिस्तान की आज़ादी की खबरों के चलते घाटी में भी सरगर्मियाँ बढ़ने लगीं। भारत? पाकिस्तान? या फिर आजाद रियासत? इंडियन इंडिपेन्डस एक्ट १९४७ के तहत सभी ५६५ रजवाड़ों को भारत या पाकिस्तान में से किसी को चुनना था । उनके पास स्वतंत्र रहने का विकल्प नहीं था ।

महाराजा हरीसिंह पर दोनों तरफ से दबाव बन रहा था, पर हरी सिंह रियासत को आजाद रखने के हक में थे । इन्हीं पशोपेश के हालात में २२ अक्टूबर को पाकिस्तान ने लगभग १५ से २० हजार कबयाली भेजकर रियासत में घुसपैठ कर ली । मुज्जफराबाद पर कब्जा करने के बाद लोगों को मारते हुए ये कबायली घाटी के दूसरे हिस्सों की ओर बढ़ रहे थे । लोगों ने उनका जमकर विरोध किया । इस बीच नेता मकबूल शेरवानी और मास्टर अब्दुल अजीज जैसे लोग अपने लोगों को बचाते हुए शहीद हो गए । 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए । २७ को भारतीय फौजें कश्मीर पहुंची । युद्ध विराम के समय दक्षिण कश्मीर (मुज्जफराबाद) में पाक सेनाएं थीं । मामला UN पहुंचा तो जनमत (Plebicite) की बात उठी । रियासत के लोगों से वादा किया गया कि जनमत के जरिए उनके भाग्य का फैसला किया जाएगा ।

तीन टुकड़ों में बंटा हुआ जम्मू कश्मीर - रियासत जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल 2, 22, 236 कि.मी. था, जिसमें से 78, 114 कि.मी पर पाकिस्तान का कब्जा है तो 42, 684 कि.मी. चीन ने हथिया लिया और बाकी 101, 448 कि.मी भारत के पास है । 18 अक्टूबर, 1949 को Article 370 पारित किया गया और राज्य को सदर-ए-रियासत का दर्जा दिया गया ।

9 अगस्त, 1953 को प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को भारत के खिलाफ साजिश करने के लिए गिरफ्तार किया गया और उनकी जगह बख़्शी गुलाम मोहम्मद को प्रधानमंत्री बनाया गया । रियासत एक बार फिर से भड़क उठी । कश्मीर और डोडा के इलाकों में लोगों ने शेख के समर्थन में जबरदस्त हिंसक प्रदर्शन किए । जनमत की माँग जोर पकड़ने लगी और हवाओं का रूख भारत के खिलाफ होने लगा । पर धीरे-धीरे सब शांत हो गया और लम्बे समय तक इलाका शान्त और खुशहाल बना रहा । इसके बावजूद राज्य में पिछड़ापन, अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी अभी भी कायम भी । 90 के दशक में पाकिस्तान ने इन्हीं कमजोरियों का फायदा उठतए हुए धर्मनिरपेक्ष कश्मीरियों का फायदा उठाते हुए धर्मनिरपेक्ष कश्मीरियों के जहन में कट्‌टरता और धर्म के प्रति जज्बे को सुलगाया और सेकड़ों युवकों को लाखों की नौकरियाँ दीं । काम था हथियार उठाना, जिसके लिए उन्हें सीमा पार कुछ महीनों की ट्रेनिंग दी जाती थी और इस तरह सक्रिय आतंकवादी तैयार किए गए । सौहार्द्र और भाईचारे की मिसाल कश्मीर में सब कुछ बदल गया । हजारों कश्मीरी पंडित रातों रात अपना सब कुछ छोड़ छाड़ घाटी से हमेशा के लिए पलायन कर गए । आतंकियों से निपटने के लिए घाटी में भारी सेना तैनात की गई । इसके बाद जो हुआ वे कश्मीरियों के लिए डरावने सपने से कम न था । सुरक्षा बल हर कश्मीरी को आतंकवादी की नजर से देखती थी तो आतंकियों से भी उन्हें रहम की कोई उम्मीद न थी । चारों तरफ से घिरा, कश्मीर हैरान सी हालात में था । कोई भी उसे समझने सुनने को तैयार नहीं ।

हाल ही में कश्मीर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों का जायजा लेने के लिए जब मैंने कुछ घाटी वासियों से बात की तो उनका दर्द कुछ यूं बयां हुआ-

* हमें इंसान नहीं समझा जाता ः हर एक घाटीवासी को शक की निगाह से देखा जाता है । निर्दोष होने पर भी हमें गुनहगारों की तरफ ट्रीट किया जाता है । जब चाहे घर से उठा लिया, जब चाहे रास्ते पर ही थप्पड़ जड़ दिया, जब चाहे रिमांड, या फिर इन्टरोगेशन । हम परेशान हो गए हैं । अपने ही इलाके में उन लोगों के रहमों करम पर जी रहे हैं जो हमें इंसान ही नहीं समझते ।" * हम अपने लोग नहीं हैं न?

* भारत की खाते हो, की ताने? हमें ताने दिए जाते हैं कि हम भारत की खाते हैं और उसी का विरोध करते हैं । फिर इतना खाने से हमारी सेहत क्यूं नहीं सुधरी, कहाँ है विकास? हमारे पास किसी भी चीज की कमी नहीं । सिंधु, चिनाब, जेहलम हमें जीवन देती है । हरे भरे जंगल सेब, लीची, बादाम, अखरोट, केसर दुनिया भर में मशहूर है, कालीन पशमीना दस्तकारी का कोई जवाब नहीं । फिर धरती के स्वर्ग में रहने वाले हम इतने गरीब क्यों हैं? है कोई जवाब?

* अपने ही प्रदेश में बेगाने ः पीढ़ियों से कश्मीर में रहने वालों को बार-बार अपनी पहचान उन लोगों को देनी पड़ती है, जो जानते भी नहीं कि कश्मीर क्या है, कितना खराब लगता है जब घर से बाहर निकलते ही हमें रोज तलाशियों और इन्टरोगेशन झेलना पड़ता है ।

* मीडिया पर बैन ः जब लोकल टीवी चैनल और अखबारों ने हमारी आवाज को उठाना चाहा तो उनकी आवाज को भी दबा दिया गया । जब मीडिया जैसी शक्‍ति को दबाया जा सकता है, तो आम लोगों की बिशाख ही क्या है? यहां तक कि कम्यूनिकेशन सोर्सिस को भी सील किया जा रहा है ।संदेश भेजना भी बन्द कर दिया गया । घाटी में तो कई जारी मोबाइल भी ब्लाक है और इंटरनेट पर भी बंदिशें हैं । अगर सेना के लोग इन सबका उपयोग करते हैं तो इसका क्या मतलब वे बैन कर दी जाए । ताज-होटल पर हमले के लिए आतंकी किश्तियों में आए थे न फिर किश्तियों पर भी बैन लगा देना चाहिए न?

* बेरहमी की हद जब किसी का बच्चा मरता है, तो उसको कैसे कहें कि वे चुप रहे यहाँ उनसे हमदर्दी से तो दूर गोलियों से बात की जाती है । और जब किसी बात की हद हो जाती है न तो लोग मजबूरी में सड़क पर उतर जाते हैं ।

* कोई नहीं सुनता कोई नहीं समझता ः कश्मीरियों को कोई भी अपना हितैशी नहीं लगता, क्योंकि नेता तो कभी भी खुले मन से उनका दुःख दर्द समझने नहीं आए । कोई हमारी समस्याओं पर गम्भीरता से विचार नहीं करता । आखिरकार हम अपनी जान पर खेलकर सड़कों पर न आएं तो क्या करें । जिल्लत की जिन्दगी से मौत भली ।

लोगों से बात करने पर उनके करीबी हाल जानने पर मुझे तो एक बात साफ-साफ समझ आ रही है । प्रधानमंत्री चाहे कुछ भी करलें, जितनी कमेटियां बना लें, जितनी भी सेनाएं भिजवा लें, जितनी भी सर्वदलीय बैठकें बुलवां लें प्रदर्शनकारियों का गुस्सा शांत नहीं होने वाला । इस समस्या का एक ही हल है लोगों से सीधे बात करना । इस मीटिग में बेशक बिचौलियों को भी बुलाया जाए पर बात सीधा लोगों के साथ होनी चाहिए । जब तकलीफ लोगों को है तो उन्हें इस बारे में क्यूं नहीं पूछा जा रहा । गाँव-गाँव शहर-शहर जाकर प्रदर्शनकारियों से बात करनी होगी । जमीनी तौर पर लोगों से जुड़ना होगा । बैठकें बुलाओ, चौपालें बुलाओ, कुछ भी करो पर लोगों से जुड़ना होगा । कम्यूनिकेशन गैप की ये खाई बढ़ती जा रही है और कश्मीर समस्या की सबसे गहरी जड़ भी यही है । अगर सच में समस्या को सुलझाना है तो गंभीरता से मसले को लो और वहां के लोगों के लिए वक्‍त निकालो ।



--जय हिन्द, जय भारत

1 comment:

  1. beshak tasveer kaa ek pahloo yah bhi hai jo aapne ukeraa hai .aur haan samvaad heentaa to kisi bhi haal me kisi ke liye bhi achchhi nahin hai .samvaad ho lekin kashmeer ke partinidhik log kaun hain iskaa faislaa kaun karegaa ?kyaa chnd raajnitik parivaar ?raahul gaandhi yaa umr abdullaa ,baalak raahul ?yaa unki ammaa ?digbhrmit manmohanaa ?janmat sangrah ho jaaye aur saali democracy kaa matlab hai kyaa ?chamchaa giri ??.haaikamaan farmaan ?yaa jantaa ki aavaaz jantaa ke liye ?
    veerubhai .

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