Saturday, July 24, 2010

लोकतंत्र के सर्वोच्च पद की गरिमा खतरे में

एक बार फिर देश के सर्वोपरि पद राष्ट्रपति की गरिमा को ठेस पहुंची जहां उसके द्वारा लाभ पद विधेयक के मामले में दिये गये सुझाव को दरकिनार करते हुए उसी स्वरूप में राष्ट्रपति के पास दुबारा भेजे जाने का निर्णय लिया गया है । जिस पर देश के राष्ट्रपति ने अपनी मुहर लगाने से पूर्व उस सुझाव के साथ पुनः विचारार्थ भेज दिया था । इस लोकतंत्र में उनके सुझाव की कौन कद्र करे जहां लाभ ही सर्वोपरि बना हुआ है । जिस लाभ को पाने के लिये यहां के जनप्रतिनिधियों ने पूरा जीवन ही दांव पर लगा दिया हो, उसे छोड़े जाने की बात कैसे स्वीकार हो । इस तरह के सुझाव जिससे वे लाभ पद से वंचित हो जाय, उन्हें कतई स्वीकार नहीं । जनता द्वारा चुने जाने के बाद भारतीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि आज सर्वशक्‍तिमान पृष्ठभूमि में दिखाई देने लगे हैं । जहां राष्ट्रपति जैसे देश के सर्वोपरि पद की भी महिमा खंडित होती जा रही है । आज इनके निर्णय को कोई चुनौती दे, कतई स्वीकार नहीं । भले देश के सर्वोपरि पद पर विराजमान राष्ट्रपति ही इनके निर्णय से सहमत न हो, कोई फर्क नहीं पड़ता । ये जो चाहते हैं, वही करते हैं । तभी तो राष्ट्रपति के सुझाव को भी दरकिनार करते हुए स्वहित में बने लाभ पद विधेयक को ज्यों की त्यों ही राष्ट्रपति के पास पुनः भेजने का निर्णय लिया गया है । इस तरह की घटना पूर्व में भी घटती रही है । जहां विधायिका एवं राष्ट्रपति के बीच वैचारिक मतभेद उभरते रहे हैं । जहां राष्ट्रपति जैसे सर्वोपरि शक्‍तिमान को भी कठपुतली सा आचरण स्वीकार करना मजबूरी बन जाता है । जिसकी पूरी शक्‍ति विधायिका के पांव तले दबायी जाती रही हो । भारतीय लोकतंत्र में अभी तक के उभरते हालात इस बात के साक्षात प्रमाण है ।

भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति का पद वैसे तो सर्वोपरि है परन्तु इस पद के अनुरूप इसकी गरिमा व मर्यादा का ख्याल सही मायने में किसी को भी नहीं है । दिन प्रतिदिन इस पर होते राजनीतिक प्रहार से सर्वोपरि इस पद की गरिमा धूमिल ही होती जा रही है । जहां से स्वतंत्र निर्णय लेने की पृष्ठभूमि को भी सदैव खतरा बना हुआ है । और जब कभी इस पद ने स्वतंत्रता की सांस लेने की कोशिश भी की है या अपने पद के अनुरूप अपने आपको पहचानने की चेष्टा की है, उसे कुंठित होना पड़ा है । सर्वशक्‍तिमान सा समझे जाने वाले सर्वोपरि इस पद की सारी शक्‍ति आज भारतीय लोकतंत्र के आधार स्तम्भ विधायिका के नीचे दबकर रह गयी है । जहां से इसके निर्जीव मूर्तिमान सा स्वरूप को साफ-साफ देखा जा सकता है । कभी-कभी इन सब परिस्थितियों के कारण इस तरह के महत्वपूर्ण पद भी अब मतभेद के दायरे में आने लगे हैं । भारतीय लोकतंत्र में सर्वोपरि इस पद का चयन जनता के द्वारा सीधे न होकर जनप्रतिनिधियों के द्वारा किया जाना ही इस तरह की परिस्थितियों का कारण बन सकता है । जहां सर्वशक्‍तिमान सर्वोपरि पद की गरिमा एवं शक्‍ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है । जहां विधायिका राष्ट्रपति से भी सर्वोपरि होती दिखाई दे रही है ।

संसद के सत्र शुभारंभ से ही लाभ पद विधेयक के प्रसंग पर विवाद छिड़ चला । जहां सत्‍ता पक्ष ज्यों का त्यों पूर्व पारित विधेयक को अंतिम जामा पहनाने के लिये राष्ट्रपति के पास पुनः भेजने की तैयारी कर रहा था तो दूसरी ओर विपक्ष इस पर विवेचना किये जाने की वकालत करते हुए राष्ट्रपति के साथ खड़े होने की पृष्ठभूमि बनाता रहा । इस दिशा में इस विधेयक के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की राय भी राष्ट्रपति के माध्यम से जानने की मंशा भी विपक्ष की रही, जो सोची-समझी रणनीति की पृष्ठभूमि हो सकती है । जहां विवादों के कटघरे में सरकार को एक बार फिर खड़ा किया जा सके । इस तरह के हालात में लाभ पद विधेयक को लागू करा पाना सरकार के लिये वर्तमान में मुश्किल तो अवश्य दिखाई दिया, साथ ही साथ उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगता नजर भी आया । पूर्व में ऐसा लगता था कि इस परिस्थिति में वर्तमान लाभ पद विधेयक को राष्ट्रपति के पास तत्काल भेजे जाने की प्रक्रिया में विराम लग सकता है । ऐसी संभावनायें नजर आने भी लगी थी । परन्तु ऐन-केन-प्रकारेण सभी एक बिन्दु पर सहमत दिखाई देने लगे । क्योंकि स्वलाभ के दायरे में खड़े हर जनप्रतिनिधि इस लाभ पद विधेयक के पक्ष में मानसिक रूप से जुड़े अवश्य हैं । उनका नजरिया भी स्वलाभ से जुड़ चला है । जहां राष्ट्रहित से स्वहित सर्वोपरि स्वरूप धारण कर चुका है । जिनका जनसेवक का स्वरूप बदलकर मालिकाना रूप धारण कर चुका है और जो लाभ कमाने के लिये ही यहां तक पहुंचे हैं । ऐसे हालात में इस लाभ पद विधेयक को लागू कराने में सभी की पृष्ठभूमि एक जैसी होते हुए भी पूर्व में मतभेदों का प्रसंग उभरता तो अवश्य दिखाई दे रहा था जहां कहीं न कहीं एक-दूसरे की स्वहित की राजनीति समायी नजर आ रही है । इस तरह के हालात में लाभ पद विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी हेतु अंततः पुनः भेज दिया गया जिस पर सभी एक स्वर में मौन दिखाई दिये । लाभ पद विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल भी गयी । जिस विधेयक को पुनः विचार हेतु पूर्व में राष्ट्रपति ने वापिस कर दिया था उसी विधेयक को ज्यों का त्यों बिना परिवर्तन किये राष्ट्रपति के पास दुबारा भेजे जाने का केवल मानस ही नहीं बनाया गया, ऐने-केन-प्रकारेण मंजूरी हेतु अप्रत्यक्ष रूप से दबाव बनाने की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी । इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री द्वारा ज्यों का त्यों भेजे विधेयक पर राष्ट्रपति की मंजूरी दिये जाने के पक्ष में अपनी सहमति उजागर करने एवं संसदीय समिति बनाकर उसी पर सही होने की मुहर लगाये जाने की प्रक्रिया विचारणीय है ।

जहां तक लाभ पद के स्वरुप पर विचारणीय पहलू है, राष्ट्रपति की पूर्व प्रतिक्रिया को राष्ट्रहित के परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिए । लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का दर्जा जनसेवक के रूप में जाना गया है । सही मायने में जनप्रतिनिधि लाभ पद से दूर रहकर ही जनता एवं जनतंत्र की रक्षा कर पायेंगे । देश के सर्वोच्च पद पर विराजमान राष्ट्रपति की सोच में शामिल इस प्रसंग ने लाभ पद विधेयक, जो कहीं न कहीं जनप्रतिनिधि नियम एवं स्वरूप के प्रतिकूल दिखाई दे रहा था, पुनः विचार हेतु भेजने की पृष्ठभूमि बनायी । जिसे नजर‍अंदाज कर दिया गया । इस तरह की पृष्ठभूमि में स्वहित की भावना राष्ट्रहित की भावना से सर्वोपरि होती साफ-साफ दिखायी दे रही है । ‘समरथ को कोई दोष न गोसाई’ रामचरितमानस की यह पंक्‍ति सदैव ही इस तरह के परिवेश में सार्थकता का बोध कराती रहेगी । जहां देश के सर्वोपरि पद पर बैठे व्यक्‍ति की राय की कोई कदर नहीं ।

जहां तक लाभ पद के बारे में वैचारिक मंथन की आवश्यकता है, एक बात साफ होनी चाहिए की लाभ पद से जनप्रतिनिधियों का क्या वास्ता है जिनकी पहचान जनसेवक के रूप में ही लोकतंत्र के तहत स्थापित की गई हो । यह एक सैद्धांतिक रूप से विचारणीय पृष्ठभूमि तो बन सकती है परन्तु व्यवहारिक पक्ष कुछ और ही यहां दिखाई दे रहा है । लाभ पाने के उद्देश्‍य से आये हुए जनप्रतिनिधियों को लाभ पद के दायरे से अलग कर पाना संभव कहीं नहीं दिखायी देता । इस तरह के परिवेश ने आज लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल डाली है । जहां लोकतंत्र के सर्वोच्च पद की गरिम अभी खतरे में हैं ।

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